कौन दिलों की जाने! - 17 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

कौन दिलों की जाने! - 17

कौन दिलों की जाने!

सत्रह

नियति की विडम्बना!

एक दिन पूर्व आलोक और रानी ने प्रभु से प्रार्थना की थी कि उनके जीवन में किसी प्रकार के विषाद के लिये कोई स्थान न हो, उनका प्रेममय सम्बन्ध दुनिया की नज़रों से बचा रहे। दूसरे ही दिन मिस्टर मेहरा और रमेश की मुलाकात हुई। इस मुलाकात ने आलोक और रानी की प्रभु से की गई प्रार्थना को न केवल विफल कर दिया, वरन्‌ रमेश के मन—मस्तिष्क में आलोक और रानी के सम्बन्धों को लेकर चल रहे झंझावात को और उग्र कर दिया। आलोक और रानी ने कामना तो की थी खुशियों की वर्षा की, आ घेरा घनघोर घटाओं ने, भविष्य की चिंताओं ने।

मिस्टर मेहरा एक सफल व्यवसायी होने के साथ ही कवि—गोष्ठियों के भी शौकीन हैं। रमेश के साथ इनके न केवल व्यापारिक सम्बन्ध हैं, बल्कि पारिवारिक स्तर पर भी दोनों में काफी घनिष्ठता है, एक—दूसरे के परिवारों में आना—जाना है।

मिस्टर मेहरा — ‘हैलो रमेश, ऑफिस में हो या कहीं और बिजी हो?'

‘ऑफिस में ही हूँ। कहो, क्या बात है मेहरा साहब?'

‘बहुत दिन हो गये मिले हुए, सोचा, तुम फुर्सत में हो तो चाय पीने आ जाऊँ?'

‘आपको इतनी भूमिका बनाने की क्या जरूरत है, आ जाओ। आपके लिये फुर्सत—ही —फुर्सत है।'

थोड़ी देर में ही मिस्टर मेहरा रमेश के ऑफिस में था। रमेश ने पूछा — ‘मेहरा साहब, आपने होली—मिलन समारोह की सूचना दी और खुद पहुँचे नहीं।'

‘सॉरी यार, मुझे अपने साले अमित के साथ कहीं जाना पड़ गया था, इसलिये नहीं आ सका। तुम्हें तो पता ही है — सारी खुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ। काम ही कुछ ऐसा था कि अमित को ना भी नहीं कह सकता था। कैसा लगा प्रोग्राम? भाभी जी ने तो खूब ‘एन्जॉय' किया होगा? उनका कवि—सम्मेलनों में अच्छा ‘इन्ट्रेस्ट' लगता है! हरियाणा साहित्य अकेडमी, पंचकूला के कवि—सम्मेलन में भी उन्हें देखा था, किन्तु तब उनसे मिलना नहीं हो पाया था।'

आखिरी बात सुनकर रमेश को एकदम बिजली के करंट—सा झटका लगा। पूछा — ‘कब था यह कवि—सम्मेलन? रानी अकेली थी या अपनी किसी सहेली के साथ?'

‘यह प्रोग्राम गणतन्त्र—दिवस की पूर्व संध्या पर पच्चीस जनवरी को हुआ था। भाभी जी के साथ उनकी कोई सहेली तो नहीं दिखी, शायद वे अपने किसी दोस्त या रिश्तेदार के साथ थीं, परन्तु मैंने उस व्यक्ति को तुम्हारे परिवार में पहले कभी देखा नहीं।'

यह बात सुनते ही रमेश के अन्दर तो तूफान—सा उमड़ने लगा। एक ही पल में उसके मन में कितने ही विचार आये और गये। रमेश ने संयत रहने की बहुत कोशिश की, किन्तु मिस्टर मेहरा से उसके मुख पर उभरे उद्विग्नता के भाव छिपे न रह सके। मिस्टर मेहरा ने पूछ ही लिया — ‘क्या हुआ रमेश, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं लगती?'

अपने अन्दर उथल—पुथल मचा रहे तूफान को भरसक नियन्त्रित करते हुए रमेश ने कहा — ‘नहीं, ऐसी कोई चिंता की बात नहीं है। कई बार अचानक बी. पी. बढ़ जाता है। इसी से सिर भारी हो जाता है, चक्र आने जैसा लगने लगता है। माफ करना, मुझे तुरन्त डॉक्टर के पास चैकअप के लिये जाना होगा।'

‘मैं साथ चलूँ?'

‘नहीं, आप चलो। ड्राईवर है। मैं चला जाऊँगा।'

मिस्टर मेहरा के जाने के बाद रमेश ने एकबार तो सोचा कि इसी क्षण घर जाकर रानी से इस विषय पर बात करूँ, किन्तु फिर मन को स्थिर करते हुए रात को ही बात करने की सोची। लेकिन, इसके बाद उसका मन ऑफिस के किसी काम में नहीं लगा। समुद्र की उत्ताल तूफानी तरंगों की तरह विभिन्न ख्यालात उसके मस्तिष्क को मथते तथा विचलित करते रहे। सोचने लगा, रानी जरूर आलोक के साथ ही गई होगी, और तो कोई ऐसा आदमी नहीं जिसके साथ रानी कभी अकेली गई हो। यदि किसी रिश्तेदार के साथ गई होती तो मुझे तो बताती ही। बड़ी मुश्किल से ऑफिस के आवश्यक कामकाज़ निपटाये।

रात को घर आकर रमेश ने खाना भी बड़े अन्यमनस्क ढंग से खाया। जैसे बहुत थका हो, आकर बेडरूम में लेट गया। जब रानी रसोई से फारिग होकर आई, टी.वी. ऑफ और रमेश को लेटे देखा तो उसने टी.वी. ऑन करते हुए पूछा — ‘क्या बात है, तबीयत ठीक नहीं क्या, आपने खाना भी ढंग से नहीं खाया?'

‘टी.वी. बन्द ही रहने दो,' मन की भड़ास को शब्दों में ढालते हुए रमेश बिफर पड़ा — ‘तबीयत कैसे ठीक रह सकती है, जब तूने मेरी सुखी ज़िन्दगी में ज़हर घोल दिया है। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि मेरी पीठ पीछे तुम ऐसे—ऐसे गुल खिला रही होगी! कितना कुछ छिपाने लगी हो मुझसे? मिस्टर मेहरा बता रहे थे कि उन्होंने तुझे हरियाणा साहित्य अकेडमी, पंचकूला के कवि—सम्मेलन में देखा था। किसके साथ गई थी वहाँ?'

रमेश को आभास ही नहीं, पूर्ण विश्वास था कि रानी आलोक के साथ ही गई होगी, किन्तु वह रानी के मुख से ही स्वीकारोक्ति सुनना चाहता था। रमेश की बात सुनकर रानी एकदम सकते में आ गई। पंचकूला के कवि—सम्मेलन में रानी की नज़र चाहे मिस्टर मेहरा पर नहीं पड़ी थी, किन्तु उसके पास सच स्वीकारने के अतिरिक्त कोई विकल्प न था। उसने कहा — ‘हाँ, मैं पंचकूला कवि—सम्मेलन में गई थी। आलोक ने मुझे उस कार्यक्रम के विषय में बताया था। वे भी वहाँ आये थे।'

आलोक द्वारा उसे घर से लेकर जाने वाली बात रानी गोल कर गई।

रमेश ने जैसे अपना अन्तिम निर्णय सुनाते हुए दो—टूक शब्दों में कहा — ‘जिस तरह से तुम लोगों के बीच नज़दीकियाँ बढ़ रही हैं, वह मेरे जैसे साधारण व्यक्ति की बर्दाश्त से बाहर है। अगर तू चाहती है कि हमारी ज़िन्दगी उसी तरह चलती रहे जैसे तेरे बचपन के दोस्त के प्रगट होने से पहले चल रही थी तो इस दोस्ती को एक भयावह दुःस्वपन की तरह भूल जा वरना मुझे कोई और कदम उठाना पड़ेगा।'

इस कहा—सुनी के बीच रानी भी उद्वेलित हो उठी, फिर भी उसने अपने मनोभावों पर नियन्त्रण रखते हुए शान्त किन्तु निर्णयात्मक स्वर में कहा — ‘हम एक—दूसरे को बचपन से जानते हैं। इतने लम्बे अर्से बाद अचानक मिले हैं। जिस तरह आप चाहते हैं, उस तरह से एकदम भूल जाना तो मेरे लिये शायद सम्भव नहीं होगा।'

गुस्से किन्तु हताश स्वर में रमेश ने कहा — ‘फिर तो मुझे ही कुछ सोचना पड़ेगा।'

और रमेश करवट बदल कर लेट गया। रानी ने भी उसकी तरफ पीठ करके सोने की मुद्रा इख्तियार कर ली। दोनों अन्दर से बेचैन थे, उनके अन्दर मची हलचल के कारण नींद उनसे कोसों दूर थी। दोनों बहुत देर तक सो नहीं पाये, रह—रहकर चुपचाप करवटें बदलते रहे। गहराती रात में गली में चक्कर लगाते चौकीदार की लम्बी लयपूर्ण आवाज़़ घर के पास से गुज़रने पर एकदम तेज सुनायी देती और फिर जैसे—जैसे चौकीदार गली में आगे बढ़ता जाता था, उसकी आवाज़़ भी धीरे—धीरे कम होती—होती डूब गई प्रतीत होती थी। कभी चौकीदार की आवाज़़ कुत्तों के भौंकने में दब जाती थी। कभी सब—कुछ गहरे सन्नाटे में खो गया लगता था। आखिर शरीर ने अपना धर्म निभाया और नींद ने उन्हें हर तरह की सोच तथा उधेड़बुन से निर्द्वन्द्व कर दिया। मन में कितनी भी उथल—पुथल क्यों न हो, यदि आप रात के समय किसी काम में व्यस्त हैं तो और बात है वरना रात के समय देर से ही सही, नींद आती अवश्य है, चाहे थोड़े समय के लिये ही क्यों न आये।

नित्यनियम की तरह अगली सुबह उठने पर रानी ने रमेश को सम्बोधित कर ‘राम—राम' कहा, किन्तु रमेश ने कोई उत्तर नहीं दिया। रमेश के फ्रैश होकर आने के बाद रानी चाय बना लाई। दोनों ने चुपचाप चाय पी। किसी ने कोई बात नहीं की। सदैव की भाँति रानी ने स्नानादि तथा पूजापाठ से निवृत होकर नाश्ता बनाया, दोपहर के लिये रमेश का टिफिन तैयार किया। रमेश जब कार की तरफ बढ़ रहा था, रानी ने प्रतिदिन की भाँति ‘बॉय' कहा, किन्तु रमेश बिना कोई उत्तर दिये कार में बैठ गया और ड्राईवर को कहा —‘चलो।'

ऑफिस की व्यस्तता भी रमेश के मन की उलझन को कम नहीं कर पाई। वास्तविकता यह है कि रमेश ऑफिस के काम तो निपटा रहा था, किन्तु अनमनेपन से, क्योंकि मन में तो रानी की अन्तिम बात — आलोक से दोस्ती को एकदम से भुला देना उसके लिये सम्भव नहीं होगा — एक शूल की भाँति चुभ रही थी। उसने अपने साले विनय से सलाह करने की सोची। विनय चाहे रानी से दो साल छोटा है, किन्तु सरकारी नौकरी के उच्च पद्‌ से रिटायर हुआ है। अतः उसकी राय रमेश के लिये अहमीयत रखती है। इसलिये फोन मिलाकर उसे दो—चार दिन में आने के लिये कहा। विनय ने कहा — ‘जीजा जी, अगर कोई बहुत जरूरी काम है तो मैं कल ही आ जाता हूँ।'

रमेश चाहता तो यही था कि जल्द—से—जल्द किसी ‘अपने से' सारे घटनाक्रम के विषय में विचार—विमर्श करे, किन्तु अपनी बेचैनी तथा उद्विग्नता को एकदम प्रकट नहीं करना चाहता था। अतः कहा — ‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। दो—चार दिन में जैसे तुम्हें ठीक लगे, एक बार जरूर आना। तुम्हारे साथ बैठकर कुछ जरूरी बातें करनी हैं।'

‘ओ.के. जीजा जी।'

***