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एक शाम गुमनाम सी

एक शाम गुमनाम सी

श्री मोहन शशि (83 वर्ष) साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में एक आधार स्तंभ एवं नये युग के सूत्रपात के रूप में जाने जाते हैं। वे वरिष्ठों का सम्मान, समव्यस्कों से स्नेह और कनिष्ठों को प्रोत्साहन देने के स्वभाव के कारण सभी वर्गों में सम्माननीय है। उनसे मुलाकात होने पर इस अवस्था में भी उनकी युवा लोगों के समान सक्रियता, उनके कर्मठ जीवन का प्रमाण है। उनके अनुसार जीवन एवं मृत्यु के प्रति धारणा ... क्या कहूँ ? हम तो कठपुतली है, डोर ऊपर वाले के हाथ ! उनके ही इशारों पर नाच रहे हैं, वहाँ डोर टूटी...... यहाँ राम नाम सत्य.......‘मुट्ठी बांधे आए थे और हाथ पसारे जाना है’ तब समय से पूर्व चिंता की चिता सजाने से क्या लाभ ?

जीवन तो जीने का नाम है और इस जीवन की शाम, गुमनाम है। उसे जब, जहाँ, जैसे आना है..... आए .....स्वागत है। जहाँ तक जीवन के संबंध में विचार का प्रश्न है तो अपने राम तो ’बीती ताहि बिसार दे.....’ ’और आगे सोचे-बैरी खाय’ के पक्षधर रहे है। जो सामने है, उसे वर्तमान को जीना ही मैंने श्रेयष्कर माना है। संभावनाएँ.... खट्टे अंगूर रहीं तो अब ’जाहि विधि राखै राम, ताहि विधि रहिए’ पर मनसा वाचा कर्मणा से मोहर ठोककर जीने का आनंद ले रहा हूँ। जीवन-क्रम पहले भी अनुशासन के बंधनों से मुक्त रहा है और अभी भी ’वही रफ्तार बेढंगी......।’ दृष्टिकोण.....

जिंदगी जिंदादिली का नाम है,

मुर्दादिल खाक जिया करते है।

उन्होंने बताया कि अपने बचे हुए जीवन से समय का सदुपयोग कुछ लिख के, कुछ पढ के, कुछ सुन के, कुछ सुना के...... साहित्य और समाज सेवा में लगा के करता रहूँ, जीवन की अंतिम श्वास तक कलम चलती रहे, गीत गाते प्राण जाएं तो मृत्यु को धन्य मानूं।

स्वाभिमान और शान से, लडी ये जीवन जंग,

और चढ़ाव उतार के, भोगे सारे रंग।

आमंत्रण है मृत्यु को, चलते-फिरते आय,

अपने न सपने रहें, मेरे मरण प्रसंग।

संस्मरणों की गागर छलकाई तो स्मृतियों के झरोखों से झांके वे पल जब 1962 में अंतर्राष्ट्रीय युवक शिविर यूगोस्लाबिया के लिए दिल्ली से मुम्बई पहुँचा। गन्तव्य के लिये उडान भरने कई घंटे की देर थी। पैदल ही घूमने निकला। सडक किनारे एक तथाकथित ज्योतिषी जी पर नजर गई। अनायास पहुँच गया उनके पास समय व्यतीत करने हेतू। दक्षिणा रखी और हथेलियाँ खोल उनसे भविष्य बतलाने का आग्रह किया। ज्योतिषी जी ने भविष्य के ढेर सारे सजीले सपने दिखाए और जब विदेश यात्रा का संयोग जानना चाहा तब बडी गौर से रेखाएँ देखते हुए जैसे ही वे बोले अभी नही 10-12 साल बाद तो मैंने पहले तो दक्षिणा में दिए पैसे उठाए फिर उन्हें पासपोर्ट दिखाते हुए कहा - ज्योतिषी जी! 10-12 साल आज ही पूरे गये। मैं हंसता हुआ चल दिया, ज्योतिषी जी ठगे से देखते रह गये।

हमारा समाज बौद्धिक, शिक्षित और शान्तिप्रिय अपेक्षित है और अनेकता में एकता के इन्द्रधनुष बिखरें, साम्प्रदायिक सद्भावना के साथ देश में विकास की गंगा बहे, एकता के अमोघ अस्त्र से हर दुश्मन के छक्के छुडाएं, महान भारत राष्ट्र को पुनः विश्व गुरू, पुनः सोने की चिडिया बनायें.... सच! धन्य हो जाएं यदि पूरी हो जाएं ये अपेक्षाएं।

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