कौन दिलों की जाने!
पन्द्रह
अंजनि बच्चों सहित नाश्ता करने के पश्चात् वापस चली गई। उन्हें विदाकर रमेश भी अपने ऑफिस चला गया। जब लच्छमी अपना काम करके जा चुकी तो रानी ने सोचा, आलोक को सारे घटनाक्रम से अवगत करवाना चाहिये, क्योंकि आलोक प्रतिभावान् व बुद्धिमान होने के साथ—साथ धैर्यवान और प्रत्युत्पन्नमति व्यक्ति है। उसका सबसे बड़ा गुण है कि वह सदैव निर्द्वन्द्व रहता है, चिंता उसे छूती तक नहीं। वह सभी बातों का सही परिप्रेक्ष्य में आकलन कर जो राय देगा, वही समीचीन होगी। यही सब सोचकर उसने आलोक को फोन किया — ‘आलोक, फुर्सत में हो या कहीं व्यस्त? तुम से कुछ पसर्नल बातें करनी थीं।'
‘रिटायर्ड आदमी तो फुर्सत में ही होता है और जब प्रिय साथी बात करना चाहे तो दुनिया के सारे काम, सारी व्यस्तताएँ छोड़ी जा सकती हैं। कहो क्या बात है, तुम कुछ चिंतित—सी लग रही हो?'
‘हाँ आलोक, चिंता की ही बात है, इसीलिये तुम्हें फोन किया है। बात यह है कि जब तुम पहली बार घर पर आये थे, उसके बारे में मैंने रमेश जी को बता दिया था, किन्तु मेरे पटियाला आने के सम्बन्ध में मैंने कुछ नहीं बताया था, बल्कि यह कह लो कि मैंने पटियाला आने के विषय में अपनी मेड को भी ठीक न बताकर यह कहा था कि मैं अपनी सहेली को मिलने जाऊँगी। रमेश जी ने मेड से पूछा होगा, उसने जैसा उसको मालूम था, बता दिया होगा। आज सुबह चाय के समय ड्रार्इंगरूम में बैठे हुए रमेश जी ने टेबल पर अधखुली किन्तु उलटी रखी ‘मन्टों की चुनिंदा कहानियाँ' जो मैं कल शाम पढ़ते—पढ़ते वहीं भूल गई थी, देखकर मुझसे पूछा कि यह किताब कब खरीदी? मैंने बता दिया कि यह तुमने दी थी और आगे पूछने पर बताया कि यह किताब जब मैं पटियाला गई थी, तब लेकर आई थी। इसपर हमारे बीच कुछ तीखी कहा—सुनी भी हुई। रमेश जी को हमारी दोस्ती और एक—दूसरे से मिलना अच्छा नहीं लगता। उन्हें डर है कि हमारी दोस्ती का जब मिलने—जुलने वालों का पता चलेगा तो बदनामी होगी। ऐसे हालात में हमें क्या करना चाहिये? जब से हम दुबारा मिले हैं, मैं सोच भी नहीं सकती कि कोई वजह हमें मिलने से रोक पायेगी। सच तो यह है कि चाहे हम कई—कई दिन तक बात भी न करें तो भी लगता यही है कि मेरे अस्तित्व, मेरे जीवित रहने का कारण केवल तुम ही होः
ख्बाबों में तुम, ख्यालों में तुम
ज़िन्दगी में तुम, बस तुम ही तुम हो।
रोम—रोम में तुम
हर साँस में तुम्हीं बसे हो।
तुम्हारे बिना कुछ अच्छा लगता नहीं
मेरे जीने का कारण बस तुम हो।'
आलोक — ‘तुम्हारे विश्वास, स्नेह व तन्मयता ने मेरी आत्मा को विस्तार प्रदान किया है। एक—दूसरे से अपना अँधेरा—उजाला बाँटना आवश्यकता भी है और अच्छा भी लगता है। अच्छा किया जो तुम अपनी समस्या मेरे साथ ‘शेयर' कर रही हो, क्योंकि यह अब तुम तक सीमित नहीं है। इस विषय में हमें गम्भीरता से विचार करना होगा। फिलहाल तो हमें सतर्क रहना होगा ताकि रमेश जी को सन्देह करने का कोई अवसर न मिले। भविष्य के लिये मैं विचार करता हूँं। इतना स्मरण रखना कि सच्चे प्यार की राहें सरल नहीं होतीं। यह शे'र याद रखनाः
ये इश्क नहीं आसां, इतना समझ लीजिए
इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है।
और कोई बात हो तो बताओ।'
‘फिलहाल तो और कोई बात नहीं। रखती हूँं। बॉय।'
आलोक ने चाहे जितना मसले को सँभालने का प्रयास किया, किन्तु रानी ने जिस बुझे—से स्वर में बात समाप्त की थी, उससे वह भी चिंता किये बिना न रह सका। वह अच्छी तरह समझता था कि रमेश का सन्देह कुछ भी रूप इख्तियार कर सकता था और उसकी प्रिय साथी की जीवन—नौका भँंवर में फँंस सकती थी। इसी तरह के विचार उसके मन—मस्तिष्क को देर रात तक मथते रहे जब तक कि मानसिक थकावट के कारण उसे निद्रादेवी नेे अपने आगोश में नहीं ले लिया।
दूसरे दिन बारह बजे के लगभग आलोक ने रानी को कॉल की। पूछा — ‘रानी, अकेली हो या कोई और है घर में?'
‘अकेली ही हूँं, कोई हल सूझा समस्या का?'
रानी की आवाज़़ में पहले जैसी गर्मजोशी की जगह कल वाली उदासी की झलक कायम थी।
‘हाँ ऽऽ; एक तो अपने मोबाइल से मेरा नाम डिलीट कर दो। दूसरे, हमें कुछ समय के लिये एक—दूसरे से मिलना स्थगित कर देना चाहिये। मोबाइल पर बात भी ऐसे समय करें जब तुम घर पर बिल्कुल अकेली हो। वैसे तो मैं कॉल समय देखकर ही करूँगा, फिर भी कहीं मेरी कॉल आये और उस समय घर पर कोई अन्य व्यक्ति उपस्थित हो तो बस इतना ही कहना — मुझे जरूरत नहीं — और फोन काट देना।'
‘जब तक स्थिति ऐसी है, यही सही। मन से कुछ बोझ तो उतरा।'
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