कौन दिलों की जाने! - 14 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

कौन दिलों की जाने! - 14

कौन दिलों की जाने!

चौदह

अंजनि और बच्चे होली के पाँच दिन बाद वापस चले गये। सभी को होली—मिलन समारोह में खूब आनन्द आया। हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा ने अपनी कविताओं से श्रोताओं को खूब हँसाया, कई श्रोता तो हँस—हँस कर दुहरे हुए जा रहे थे। उपस्थित श्रोताओं में से कइयों ने हँसी—मज़ाक के चुटकले तथा क्षणिकाएँ सुनाकर मनोरंजन किया। अन्त में फूलों की होली खेली गई और लड्डुओं का प्रसाद बाँटा गया। बच्चों ने ननिहाल में एक सप्ताह तक खूब मौज—मस्ती की। रमेश ने भी उन्हें काफी समय दिया। आर्यन अपना लैपटॉप तथा आई—पैड साथ लेकर आया था। रमेश और आर्यन ने लैपटॉप तथा आई—पैड पर एक—दूसरे को नई—नई बातें बताई व सिखाई। रमेश के ऑफिस जाने के पश्चात्‌ आर्यन कभी—कभी अपनी नानी के सामने भी लैपटॉप खोलकर बैठ जाता था और उसे नई—नई बातें बताता था। रानी को लगता कि आर्यन का ‘आई क्यू' उसके हमउम्र बच्चों से कहीं अधिक है। पिंकी तो अपनी नानी के साथ ही सारा दिन लगी रहती थी। बातुनी इतनी कि चुप होने का नाम ही नहीं लेती थी। उसके नानी के साथ लगी रहने से अंजनि ने स्वयं को काफी ‘रिलीव्ड' अनुभव किया। रानी पिंकी को कहानियाँ भी सुनाती थी और अपने साथ छोटे—मोटे कामों में भी लगाये रखती थी। एक दिन रानी मटर के दाने निकालने लगी तो पिंकी बोली — ‘नानी, मैं मदद कर देती हूँ।' रानी ने मटरों का कटोरा और थाल उसे पकड़ा दिया और समझा दिया कि मटर के दाने कैसे निकालने हैं। थोड़ी देर में ही पिंकी ने सारे मटरों के दाने निकाल दिये। रानी को उसकी फुर्ती देखकर हैरानी भी हुई और प्रसन्नता भी। इसी तरह पिंकी हर उस काम को करने की कोशिश करती जो रानी कर रही होती।

जिस दिन अंजनि नेे वापस जाना था, उस दिन सुबह रमेश रानी को चाय बनाने के लिये कहकर अखबार लेकर ड्रार्इंगरूम में आ बैठा। अंजनि और बच्चे अभी सोये हुए थे। टेबल पर ‘मन्टो की चुनिंदा कहानियाँ' पुस्तक अधखुली किन्तु उलटी पड़ी देखी जो कल शाम को रानी पढ़ते—पढ़ते वहीं छोड़ गई थी, जब उसे अचानक गैस पर रखी सब्जी देखने के लिये रसोई में जाना पड़ा था। फिर वह भूल गई कि किताब भी उठानी है। जब रानी चाय बनाकर लाई तो रमेश ने पूछा — ‘यह किताब कब खरीदी?'

‘यह तो आलोक ने दी थी। दो—तीन और किताबें भी दी थीं।'

‘आलोक जब यहाँ आया था तब लाया था या उसके यहाँ से लेकर आई हो?'

रानी सोचने लगी, क्या उत्तर दे, झूठ बोले या सच? मन ने सच बोलने की गवाही दी, किन्तु रानी ने आधा सच ही बोला। बसन्त पर पटियाला जाने की बात का, क्योंकि कोई सम्बन्ध नहीं था, उसने उल्लेख नहीं किया।

‘क्रिसमस से अगले दिन, जब आपको अचानक दिल्ली जाना पड़ा था, मैं पटियाला गई थी। आलोक की पर्सनल लाईब्रेरी में बहुत अच्छी—अच्छी किताबें हैं, उनमें से मैं तीन—चार किताबें पढ़ने के लिये ले आई थी। आपको भी टाईम मिले तो इन्हें जरूर पढ़ना।'

रमेश सोचने लगा, लच्छमी की कही बात का खुलासा करे या फिर कभी। उसके अन्दर की बेचैनी ने उसे रुकने नहीं दिया। अपनी बेचैनी को दबाये बिना उसने तल्खी से कह ही दिया — ‘उस दिन तुमने लच्छमी को तो किसी सहेली से मिलने जाने की बात कही थी।'

रमेश की तल्ख—अन्दाज़ में कही बात सुनकर रानी को झटका लगा। सोचने लगी, इन्होंने लच्छमी से पूछा होगा, तभी उसने बताया होगा, किन्तु लच्छमी से पूछने की आवश्यकता क्यों पड़ी? फिर भी संयत रहते हुए उत्तर दिया — ‘जरूरी तो नहीं कि हमारी ज़िन्दगी की हर बात नौकर को सही—सही बताई जाये!'

बहुत दिनों से दबी अपनी भड़ास निकालते हुए रमेश ने कुछ अधिक तल्खी भरे स्वर में कहा — ‘नौकर को न सही, किन्तु मुझे तो बता सकती थी। मेरे मुम्बई जाने के बाद आलोक यहाँ आया। निश्चय ही उसके आने का प्रोग्राम मेरे मुम्बई जाने के पहले से तय था। ड्रार्इंगरूम में लगी पेंटिंग्स देखकर मैंने पूछ लिया तो तुमने आलोक के आने की बात बता दी वरना तो इस बात का मुझे पता ही नहीं चलना था। और दोस्ती यहाँ तक बढ़ चुकी है कि उसने तुम्हें पटियाला बुलाया और तुम हो भी आई।'

‘उन्होंने मुझे नहीं बुलाया था, मैं स्वयं ही गई थी।'

‘एक ही बात है।'

सामान्यतया शान्त रहने तथा स्वभाववश तीखी बात को भी सहज में लेने वाली रानी भी आज थोड़ा तल्ख होकर बोली — ‘हम बचपन में दोस्त रहे हैं। एक—दूसरे के घर आना—जाना, मिलजुल कर खेलना, इकट्ठे खाना—पीना करते रहे हैं। दोस्ती मनुष्य का सहज स्वभाव है, उतना ही सहज जितना साँस लेना और भूख लगना। मुम्बई से लौटने के बाद जब आपसे आलोक के बारे में बात हुई थी तो आपने स्वयं कहा था — बचपन की बातें आदमी को ताउम्र याद रहती हैं। अब अगर हम दुबारा मिल गये हैं तो मिलने—जुलने में क्या बुराई है?'

रमेश ने अपना लहज़ा बदले बिना कहा — ‘तुम्हें आलोक से मिलने में बुराई नहीं दिखती, लेकिन हमारे समाज में विवाहित स्त्री के गैर—पुरुष से मिलने—जुलने को सामान्य नज़रों से नहीं देखा जाता। अभी तुम लोग दो—चार बार मिले हो। शायद तुम्हें इकट्ठे किसी जानकार ने देखा भी नहीं होगा। यही बात जब दो—चार आदमियों को पता चलेगी तो समाज को पचेगी नहीं। लोग अँगुलियाँ उठायेंगे, बातें बनायेंगे। बदनामी झेलना आसान नहीं होता, कम—से—कम मेरे बस की तो बात नहीं।'

रमेश के चेहरे के भाव देखकर तथा बात को समाप्त करने की गर्ज़ से रानी ने कहा — ‘मुझे हमारी दोस्ती में कोई बुराई नहीं दिखती।'

रमेश ने अभी तक चाय का कप नहीं उठाया था। रानी बोली — ‘चाय ठंडी हो रही है, पी लो।'

रमेश ने चाय नहीं पी। गुस्से में कप सरका दिया। जब एक व्यक्ति गुस्से में हो तो दूसरे व्यक्ति के चुप रहने से ही स्थिति और बिगड़ने से बचती है। रानी ने भी बात को आगे नहीं बढ़ाया। कप ट्रे में रखकर उठ खड़ी हुई। रमेश को अखबार पढ़ना भी दूभर लगा। मन विचलित था, किन्तु अभी वह कोई टंटा खड़ा करना नहीं चाहता था, क्योंकि अंजनि किसी भी पल उठकर आ सकती थी। इसलिये वह थोड़ी देर घूमने के इरादे से बाहर चला गया। रानी मन—ही—मन सोचने लगी, लच्छमी से रमेश ने पूछा होगा या उसने खुद बताया होगा। यदि रमेश ने पूछा होगा तो लच्छमी ने क्या—क्या बताया होगा और अगर लच्छमी ने खुद बताया होगा तो कहीं बढ़ा—चढ़ा कर नमक—मिर्च लगाकर तो नहीं बताया। इन लोगों पर ऐतवार कैसे करें? रमेश पर भी गुस्सा आ रहा था कि उन्हें नौकरानी से पूछने की क्या जरूरत थी? सीधे मुझसे भी तो पूछ सकते थे। प्रत्यक्षतः रानी घर के काम करती रही, लेकिन उसके मन—मस्तिष्क में इस प्रसंग को लेकर उधेड़बुन निरन्तर बनी रही।

***