मुश्किलों से कह दो, मेरा खुदा बडा है
प्रोफेसर वीणा तिवारी (75 वर्ष) कैंसर से ग्रस्त होने के बाद भी अपनी सकारात्मक दृष्टि, दृढ़ इच्छाशक्ति और आत्मबल से इस रोग से निजात पा सकी है। वे शिक्षाविद् होने के साथ ही कवियत्री भी है। साहित्य के क्षेत्र में उनका नाम बडे ही सम्मान के साथ लिया जाता है। वे धार्मिक कार्यक्रमों में बडे श्रद्धा भाव से सम्मिलित होकर सामाजिक रूप से सतत् सक्रिय रहती हैं।
उनका कथन है कि अगर हम गहराई से विचार करें तो भय रोग का नही मृत्यु का होता हैं। वैसे मृत्यु एक अनिवार्य सत्य है परंतु कारण, समय और प्रकार अज्ञात रहता है। इस सत्य पर हम चाहकर भी विश्वास नही करना चाहते है। कोई भी रोग मृत्यु का कारण हो सकता है पर कैंसर का नाम ही आपके शरीर से जीवन नही छीनता, जीवन शक्ति छीन लेता है। आपके अदम्य साहस को पटकनी दे देता है। आप अपने को बेचारा समझने लगते है और यह मानना ही आपको निराशा के गर्त में ढकेलता है। आप अपनी बची हुई अनगिनत सांसों की तरफ, उनमें छिपे भविष्य के सुख, उपलब्धियों, नये अनुभवों से पीठ कर लेते हैं। हर पल आप चिंता करते है मात्र मृत्यु की।
प्रश्न उठता है कि आपका यह व्यवहार आपके लिए आपके परिवार के लिये और समाज के लिए ठीक है क्या? भागवत में एक प्रसंग आता है- राजा परीक्षित को श्राप मिलता है कि सातवें दिन उनकी मृत्यु तक्षक नाग के काटने से होगी। यह जानकर परीक्षित संतों और विद्वानों के पास अंतिम सत्य को जानने बैठ गये। अभी तक प्राप्त ज्ञान के बाद भी अंतिम सत्य को जानने के प्रयास में जुट गये। इस ज्ञान ने उन्हे इतना साहसी बना दिया कि वे समय आने पर गंगा तट पर बैठ गये। उन्होने तक्षक की राह में फूल बिछा दिये और उसके स्वागत में दूध का कटोरा रख दिया और उसकी प्रतीक्षा करने लगे।
हम राजा नही है। गंगा तट पर प्रतीक्षा में नही बैठ सकते। फिर हम क्या करें ? यह प्रश्न सभी के जीवन का है। हर व्यक्ति के पास सात ही दिन है। हम इस तक्षक के जहर से बचने के लिये समय पर दवा करे। यदि रोग हो ही गया है तो उससे बाहर आने संकल्पित होकर प्रयास करें। प्राण शक्ति व आंतरिक ऊर्जा बढाये। निराशा के भरे पल न जियें। सहानुभूति व दया के पात्र न बनें। इस गर्त से बाहर आयें कि यह अपराध है वह भी इस जन्म का या पूर्व जन्म का। यह मात्र एक रोग है। संतुलित आहार लें। दवा समय पर लें व दिनोंदिन रोग में बदलते अपने रंग रूप को स्वीकार करें। उसे नकारने से आपका दुख बढेगा। जब आप प्रतिदिन खुली हवा में प्रकृति से सुबह मिलकर स्वयं को प्रसन्नता से भर लेंगे तो आपके आसपास, आपसे जुडे लोगो पर भी इसका सकारात्मक प्रभाव पडेगा।
आप योग से जुडे आशावादी साहित्य पढे। ध्यान, जप आपकी आत्मशक्ति को बढायेगा। स्वयं से वादा करें कि न तो मैं डरूंगा और न ही मृत्यु के पहिले भय से मरूंगा। खुश रहूँगा व खुश रखूंगा। सात दिन तो सबके पास है, पर पूर्व के छः दिनों में अपनी अधूरी योजनाओं को पूरा करूंगा। हर पल जीना चाहूँगा। कभी निराशावादी माहौल में न तो स्वयं रहूँगा न ही किसी को अपने कवच को भेदकर निराशा में डुबाने दूँगा।
कितने सात दिनों का चक्र बीतेगा, पता नही ? तो इतवार को ही अंतिम क्यो मानूँ। प्रकृति हर मौसम में सुंदर है चाहे वसन्त हो या पतझर। वैसे तो आजकल मुझे एक गीत की एक कडी बहुत अच्छी लग रही है -
‘ये मत कहो खुदा से, मेरी मुश्किलें बडी हैं।
इन मुश्किलों से कह दो, मेरा खुदा बडा है।‘