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सुधा ओम ढींगरा
वह कब, कहाँ पहुँच जाती है, किसी को पता नहीं चलता। उस दिन भी वह दबे पाँव वहाँ चली गई थी......
सामने वाला दृश्य देखने के साथ ही उसका दिल ज़ोर से धड़कने लगा और उसकी सोचने-समझने की शक्ति साथ छोड़ गई थी। उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ; उसकी आँखों ने जो देखा, क्या वह सच था? कमरे के भीतर जाने से पहले ही वह पलट आई। असहज हो गई थी वह। उसे भीतर कुछ कटोचने लगा। ऐसा लगा जैसे टाँगें चलना नहीं चाह रहीं। उसने स्वयं को वहाँ से धकेला। अच्छा हुआ जब दबे पाँव वह सीढ़ियाँ उतर कर पहले तल पर आई, तो घर का कोई भी सदस्य सामने नहीं था वरना उसकी बदहवासी देखकर कई तरह के प्रश्न पूछे जाते और वह संकट में पड़ जाती। झूट बोलती तो भी पकड़ी जाती। सासू माँ की पैनी नज़रें उससे सच उगलवा लेतीं।
उसने धम्म से सोफे पर अपना शरीर पटका; जो बेहद काँप रहा था। दिल के धड़कने की आवाज़ उसे कानों में सुनाई दे रही थी। घबराहट के साथ वह बुदबुदा रही थी। राम नाम जप रही थी। माँ ने कहा था, जब भी विकट या असामान्य परिस्थितियाँ आएँ, तो राम नाम जपना। अदृश्य शक्ति जो कण-कण में है और हरेक के भीतर भी है, जाप से सचेत हो जाती है, जाग्रत हो जाती है, संकट के क्षणों में सही राह दिखा कर स्थितियों से लड़ने की शक्ति प्रदान करती है। वह अपनी माँ से बहुत प्यार करती है, उसकी बातों को बहुत गंभीरता से लेती है। उस समय उसे अपने विचलित मन को काबू में करने के लिए बहुत ऊर्जा चाहिए थी। राम नाम का जप ही उसे वह ऊर्जा दे सकता था। मस्तिष्क में जेठानी और देवर.…उनकी क्रियाएँ घूम रही थीं। दरवाज़ा खुला था और वे इतने संलिप्त थे कि उसके आने-जाने का उन्हें आभास ही नहीं हुआ। दृश्य को याद कर उसे फिर घबराहट हुई और उसका बदन पसीने से भीग गया। कृत्य उन दोनों का और चित्त उसका अस्थिर हो रहा था।
वह अवाक् थी। दोनों कितने निडर थे। दरवाज़ा भी बंद नहीं किया था। उन्हें शायद किसी के आने का अंदेशा नहीं था। भय भी नहीं था। उसका भी नहीं; जबकि परिवार का हरेक सदस्य जानता है कि वह पूरे घर में अतृप्त आत्मा- सी घूमती रहती है। एक जगह टिक कर नहीं बैठ सकती। उसकी सास ने उसकी इस आदत पर उसे कई बार टोका। पर जो आदतें बचपन में पड़ जाती हैं, वे इतनी आसानी से छूटती नहीं।
मायके घर में शुरू से ही उसे बेचैन आत्मा कहा जाता था। बेवजह, बेमतलब घर में घूमती रहती थी। घर के उन कोनों तक भी पहुँच जाती थी, जो बच्चों के लिए वर्जित थे। उसे सब कहते थे कि वह फ़िजूल टाँगों को चलाती रहती है और समय की बर्बादी करती है। यही कारण था कि वह कोई भी काम एकाग्रचित्त होकर नहीं कर पाती। काम करते हुए ध्यान भटक जाता है और वह उसे अधूरा छोड़कर चल पड़ती है। एक दिन वह होम वर्क करते हुए उसे बीच में छोड़कर छत पर टहलने चली गई तो चाचा और पड़ोसन को देखा…पड़ोसन मुँडेरा लाँघ कर आई थी। वह दौड़कर नीचे आई और सारी बात चाची को बता दी। चाची ने उसके मुँह पर हाथ रखकर उसकी बात पूरी नहीं होने दी और उसका कान ऐंठते हुए कहा- 'खबरदार यह बात किसी और को कही, यहीं ज़मीन खोद कर तुम्हें गाड़ दूँगी।'
पर वह चुप कहाँ रहने वाली थी! उसने अपनी माँ को सारी घटना बता दी और साथ ही चाची के व्यवहार का भी ज़िक्र कर दिया। माँ ने उसे सीने से लगा कर गहरी साँस भरकर कहा था-'इतनी छोटी उम्र में मेरी बच्ची को यह सब देखना पड़ा।' माँ आगे कुछ भी नहीं बोली थीं, बस उसे सीने से लगा कर सहलाती रहीं थीं। अब उसे सहलाने के लिए उसकी माँ आस -पास नहीं थी। वह अपने आपको कोसने लगी..... उस की किस्मत फूटी है, जो हर बार उसे ही ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं.…। वह तो अपनी जेठानी नीरा, जिसे वह भाभी कहती है.....,से बात करने गई थी....कौन सी बात! उसे याद नहीं आ रही। उस दृश्य ने उसे जैसे सब कुछ भूला दिया था.....दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डालने पर उसे बस इतना याद आया कि नीरा भाभी ने उसे डिनर बनाने को कहा था। लंच भाभी ने बनाया था और कहा था कि वह थोड़ी देर आराम करने अपने कमरे में जा रही हैं। साथ ही यह भी हिदायत दी थी कि वह डिनर बनाकर ही किचन से हटे। दो तीन घंटे की व्यस्तता थी। उसके लिए इतना समय काम करते हुए काटना कठिन था, कुछ याद आते ही वह नीरा भाभी से पूछने चली गई। अपनी इस आदत से वह बेहद परेशान हो गई है, तंग आ गई है- वह धैर्य से काम क्यों नहीं लेती! अब वह बच्ची नहीं रही। नीरा के लौटने का इंतज़ार करती, जो भी याद आया था तब पूछ लेती। उसके मन -मस्तिष्क की अजीब सी हालत हो गई थी। उसे कुछ हो रहा था पर वह समझ नहीं पा रही थी.....उसे क्या हो रहा है?
वह सोफे से उठकर पानी पीने जाना चाहती थी, उसे प्यास लगी थी पर वह उठ नहीं पाती। लगता था उठेगी तो गिर जाएगी। वह वहीं बैठी अपने बदन और भावनाओं के बिखरेपन को समेटने लगी। नैतिक और अनैतिक का द्वंद्व छिड़ चुका था... वह सोचने लगी.... जो कुछ उसने देखा वह अनैतिक है, गलत है, छोटा देवर भाई की तरह होता है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? परिस्थिति को समझने के लिए वह सहज होने की कोशिश कर रही थी। विचारों का रेलमपेल था। उसका देवर घर कब आया! उसे पता क्यों नहीं चला! शायद वह घर पर था, काम पर गया ही नहीं। वह इतनी लापरवाह कैसे है कि उसे कुछ भी पता नहीं चलता। अब वह इस घर में कैसे रहेगी? अपनी जेठानी और देवर का सामना कैसे कर पाएगी? क्या उसे अपने पति से इसकी चर्चा करनी चाहिए! पति की क्या प्रतिक्रिया होगी? क्या उसे चुप रहकर सब देखना चाहिए! अम्मा जी अपने छोटे बेटे से बहुत प्यार करती हैं। वे शायद उसे ही गलत ठहरा दें, फिर वह क्या करेगी? उसे इस घर में आए कुछ ही महीने तो हुए हैं। अभी वह सबके स्वभाव से भी परिचित नहीं। जेठ जी को पता चलेगा, तो उन पर क्या बीतेगी? पत्नी और भाई के धोखे को वे सह नहीं सकेंगे। वे बेहद सरल, सौम्य और मितभाषी हैं। उसके पति भी ऐसे ही हैं। देवर बहुत चुलबुला है। बेसुरे खरपतवार से कई प्रश्न उगने लगे। वह उनके उत्तर तलाशती उनमें उलझती गई।
'भाभी किन सोचों में डूबी हैं आप' -देवर की आवाज़ सुनकर वह चौंकी। बड़ी देर से वह अपने आपसे लड़ रही थी।
'अरे आप तो ऐसी चौंकी, जैसे आपकी चोरी पकड़ी गई'- देवर हँसते हुए बोला। वह उसकी ओर देखे बिना किचन में चली गई। किचन बिखरा छोड़ कर ही वह चली गई थी। उसे समेटने लगी।
'ठीक है आप चाय बनाएँ, मैं अम्मा और बाऊ जी को बुलाता हूँ।' देवर ने उसे देखकर कहा। उसने कनखियों से देवर को देखा। उसके चेहरे पर कोई मलाल नहीं, वही मुस्कराता नटखट कमल। उसे देखकर अम्मा जी अक्सर कहती हैं-'मेरे बेटे का नाम कमल है और चेहरा भी कमल की तरह खिला रहता है।' कमल तो कीचड़ में खिलता है पर यह कीचड़ में धँसता जा रहा है। ऐसे संबंधों को क्या कहेंगे? मन ही मन वह विचारों के उलझे धागे सुलझा रही थी।
वह कपों में चाय डालने लगी, तभी नीरा ने पीछे से उसके कन्धों पर हाथ रखा। उसके हाथ काँप गए और चाय गिर गई।
'सम्पदा, तेरा ध्यान कहाँ है? सारी चाय गिरा दी।' और नीरा ने चाय की केतली उसके हाथ से ले ली। सम्पदा बौखला गई और दूर जाकर खड़ी हो गई। सजी-धजी मुस्कराती नीरा सबको चाय देने लगी। सम्पदा की सोच के घोड़े उसके बस में नहीं रहे; वे बेतहाशा भागने लगे। क्या उसने जो देखा, उसकी आँखों का धोखा था या वहाँ सच में कुछ हुआ था। दृश्य फ़्लैशबैक सा घूमने लगा। उसे महसूस हुआ, उसका बदन तप रहा था।
सम्पदा वहाँ से जाने लगी तो देवर ने उसे कहा-'भाभी जी, आज आप किन्हीं ख़्यालों में डूबी हुई हैं। क्या बात है! हमसे शेयर करें। शायद हम आपकी कुछ मदद कर दें।'
'नहीं ऐसी कोई बात नहीं, मेरी तबियत ठीक नहीं।', कह कर वह वहॉँ से चली गई।
उसका इस तरह जाना सबको अटपटा लगा। अम्मा-बाऊ जी, कमल और नीरा उसे जाते देखते रहे.…
सम्पदा अस्वस्थ हो गई। चित्त से भी और शरीर से भी। हमेशा उसका विवेक संबंधों की गरिमा टूटने ही उनके ख़िलाफ़ खड़ा हो जाता है, फिर कोई भी तर्क दिया जाए, किसी तर्क को नहीं मानता। नाजायज़ संबंध स्वीकार नहीं करता और उसकी आत्मा उसे धिक्कार रही थी कि वह चुप क्यों है? वह अन्दर ही अन्दर घुट रही थी। किसी से संवाद नहीं करना चाहती थी। शिव, उसके पति ने उसे कई बार उसकी उदासी और बेचैनी का कारण पूछा। वह टाल गई। अधिक समय वह अपने कमरे में अपने-आप में सिमटी रहती या घर के काम -काज को अनमने मन से चुपचाप करती। अब उसने समय-असमय घर में घूमना बंद कर दिया। परिवार के सदस्यों ने उसमें आए इस परिवर्तन को महसूस किया पर उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया। लापरवाह बने रहे।
उसके भीतर घमासान मचा था। उसका मन कह रहा था कि वह अम्मा जी को बताए। शिव को घर में हो रहे इस अनाचार की सूचना दे ; पर उसके मुँह पर ताला लगा था और वह उस ताले को खोल नहीं पा रही थी। बार-बार उसका मन उसे ऐसा करने से रोक लेता। यह भीतरी युद्ध उसके लिए असहनीय था। वह अधिक दिन तक इस तरह नहीं जी सकती थी। वह जानती थी, एक दिन उसके भीतर का लावा फूट पड़ेगा, इसी बात का उसे डर था। लावा फूटने के परिणाम से भी वह भली-भाँति परिचित थी।
उस दिन के बाद का समय सम्पदा के लिए बेहद तनावपूर्ण रहा। गर्मियों के दिन थे, जो यहाँ लम्बे होते हैं। अमेरिका में रात आठ बजे तक सूरज नहीं छिपता। इस देश में आकर वैसे ही वह दो संस्कृतियों के टकराव से पैदा हुए अवसाद से निकलने की कोशिश कर रही थी। परिवार में होते हुए भी वह अकेला महसूस कर रही थी। पक्षियों का चहचहाना तक उसे सुनाई नहीं देता। वातावरण में किसी तरह का शोर नहीं, चारों ओर सन्नाटा रहता है। वह फ़ोन पर अक्सर अपने पीहर वालों से बात करती। व्हाट्सएप पर भी हर रोज़ की दिनचर्या अपने परिवार से साझा करती; पर अपने भीतर की घुटन किसी को बता नहीं पाई। नहीं बता पाई उन्हें कि उसने क्या देखा? वह किस पीड़ा से गुज़र रही थी। किसी को नहीं कह पाई कि ऐसे संबंध वह बर्दाश्त नहीं कर पा रही और वह बेहद मानसिक तनाव झेल रही थी। बस जूझ रही थी अकेली अपने आप से, अपनी सोचों से, अपने असूलों से, और कोई राह नहीं खोज पा रही थी।
दोपहर यहाँ बहुत अलसाई होती है और वह अपने कमरे में ऑल माय चिल्ड्रन या वन लाइफ़ टू लिव दोपहर के सीरियल देखते हुए अपनी उदासी और अकेलापन दूर करती।
एक सुस्त दोपहर को अम्मा जी उसके कमरे में आईं और बोलीं-'सम्पदा, हमें मंदिर ले चल। वहाँ भागवत की कथा चल रही है, हमें सुनने जाना है। बाऊजी बाहर लॉन में खड़े हैं।'
'अम्मा जी मेरी तबियत ठीक नहीं। आप नीरा भाभी को ले जाएँ।'
'मैंने तुम्हें कहा है.… तुम चलो! जितनी ड्राइविंग करोगी उतना हाथ खुलेगा।' कुछ ही दिनों में वह जान गई थी, अम्मा जी का कहा कोई टाल नहीं सकता। वह मन मारकर उठी और कार की चाबियाँ लेकर गैराज में आ गई।
रास्ते भर और मंदिर में भागवत कथा में बैठी सम्पदा अपने विवेक की ऊन से विचारों का स्वेटर बुनती रही। जब से वह इस घर में आई है, अम्मा जी कभी दोपहर को मंदिर नहीं गईं, फिर आज क्यों? शायद उसे घर से बाहर लाने के लिए वे मंदिर आईं हैं। घर में जो हो रहा है, हो सकता है, अम्मा जी को पता हो! पर एक माँ ऐसा अनर्थ कैसे होने दे सकती है! अम्मा जी का इस समय मंदिर आना संयोग मात्र भी हो सकता है। विवेक और विचारों की टकराहट चलती रही। कुछ स्वेटर बुनता और कुछ उधड़ जाता।
अब तक सम्पदा यह समझ चुकी है कि इस देश में भी स्वदेश की तरह जिन परिवारों का इकट्ठा व्यवसाय है, वे सब एक साथ रहते हैं। रहना उसे इसी परिवार में है। शादी से पहले ही उसे बात दिया गया था कि सुसराल का संयुक्त परिवार है। वैसे वह जिस परिवार से आई है, वहाँ भी सारा परिवार इकट्ठा एक ही घर में रहता है, इसलिए उसे कुछ अन्तर नहीं पड़ा। ससुराल और पति से उसे कोई शिकायत नहीं, पर जो देखा वह भूल नहीं पा रही। सही और गलत का द्वंद्व पीछा नहीं छोड़ रहा, एक भँवर सा बन गया है; जिसमें वह गहरे डूब रही है। नीरा भाभी एक बार भी उसके कमरे में नहीं आईं। कहीं उसकी बेरुखी और बदले व्यवहार से उन्हें शंका तो नहीं हो गई कि उसे उनके संबंधों का पता चल गया था। शंका होती तो अम्मा जी उसे ज़रूर कुरेद लेतीं। नीरा भाभी उसे स्नेह की चादर ओढ़ाने अवश्य आतीं। सब जानते हैं, वह भावुक है, जल्दी ही पिघल जाती है। वह स्वयं से ही तर्क-वितर्क करती रहती। सोच बेहद नकारात्मक हो गई थी, जो उसे तंग कर रही थी। उसकी सकारात्मकता जैसे कोसों दूर भाग चुकी थी। अंत में उसने अपने विचारों की लगाम सँभाली, उन्हें विराम दिया और स्वयं को समझाया....किसी को कुछ पता नहीं चला। उसके मन का वहम था, उसकी अस्त-व्यस्त अवस्था उसे विचलित करके तरह-तरह के विचारों को जन्म दे रही थी।
कीर्तन शुरू हो गया और साथ ही शुरू हो गई नारायण की स्तुति। साज़ों की आवाज़ ने उसकी सोच के तंत्रों को झंकृत कर दिया और उसके विचारों की श्रृंखला टूट गई। आरती के बाद प्रसाद लेकर वे घर को चल पड़े।
घर के पास पहुँचते ही उसने कमल को कार में जाते देखा।
'अम्मा जी, वह सामने वाली कार में कमल था।' अकस्मात् उसके मुँह से निकल गया।
'होगा, मैंने देखा नहीं।' अम्मा जी ने बेपरवाही से कहा।
'काम छोड़कर आया होगा।' उससे रहा नहीं गया।
'सम्पदा, किसी काम से घर आया होगा। कुछ भूल गया होगा। छोटी-सी बात को बड़ा मत बनाओ। मैं तुम्हारे सामने उससे पूछ लूँगी, तसल्ली कर लेना। बातों का बतंगड़ बनाने से घर की शांति भंग होती है।' अम्मा जी ने उसे झिड़कते हुए कहा। उनकी झिड़क पर उसने ख़ामोशी से दोनों की तरफ देखा। अम्मा और बाऊ जी के चेहरे पर तल्खी आ गई।
घर आकर सम्पदा अपने कमरे में बंद हो गई। उसके कंधे दुःख रहे थे, सिर भारी था; जैसे कंधे उसके सिर का बोझ उठा नहीं पा रहे। माँ को फ़ोन करने के लिए बार-बार उसके हाथ फ़ोन की ओर बढ़े, पर वह उन्हें फ़ोन कर नहीं पाई। तभी नीरा उसके कमरे में आई। वह उसके करीब आकर बैठ गई। सम्पदा का चेहरा तन गया।
'क्या बात है सम्पदा! तुम्हारा यह रूखापन हम पहली बार देख रहे हैं। कोई तो कारण होगा इसका! किसी की कोई बात बुरी लगी या देवर जी से मन -मुटाव हुआ है।' नीरा के पूछने पर सम्पदा ने कोई उत्तर नहीं दिया, खामोश रही।
'लाडो, अगर तुम कुछ बताओगी नहीं तो हल कैसे निकलेगा!' मिश्री- घुली आवाज़ में नीरा ने कहा। नीरा प्यार से उसे लाडो कहती है।
सम्पदा ने नीरा की ओर देखे बिना कहा -'भाभी मुझे अकेला छोड़ दें। इस समय मैं किसी से भी बात नहीं करना चाहती।' नीरा वहाँ से उठकर चली गई। उसे नीरा पर गुस्सा आ रहा था। शर्म घोल कर पी ली थी। चेहरा ग्लानि रहित था। कितने आत्मविश्वास के साथ बात करने आई थीं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। उसके भीतर आक्रोश बढ़ने लगा।
जब भी उसकी भावनाएँ आपे से बाहर होतीं, वह लम्बी-लम्बी साँसें लेकर उन्हें काबू में करती। उसने स्वयं को ही तर्क देने शुरू कर दिए। दूसरों के कर्मों से वह इतनी परेशान क्यों हो गई ? वह तो ससुराल वालों से बेइंतिहा खुश थी। बेहद इज़्ज़त करती थी। एक शालीन और सुलझे हुए परिवार में शादी करवा कर वह गर्व अनुभव करती थी। सब सदस्यों की भद्रता से वह प्रभावित थी। शादी से पहले शिव ने अपने बचपन से लेकर जवानी के सब किस्से उसके साथ साझा किए थे। परिवार की आर्थिक स्थिति और व्यवसाय के बारे में सब कुछ बता दिया था। परिवार के हर सदस्य के स्वभाव से भी परिचित करवा दिया था, ताकि वह जल्दी ही परिवार से हिलमिल जाए। शिव की सच्चाई और ईमानदारी पर वह फ़िदा थी। परिवार के प्रगतिशील विचारों की वह कायल थी पर इस तरह की आज़ादी उसे स्वीकार्य नहीं। तो फिर वह अपने आपको इतनी सज़ा क्यों दे रही थी? विरोध क्यों नहीं करती? कुछ कहती क्यों नहीं? अपनी भावनाएँ स्पष्ट करने से वह घबरा क्यों रही थी! एक अनजाना भय उसके भीतर बैठ गया था! कुछ खोने का डर था उसे! 'क्या खोएगी' ? खोना, उसकी सोच की पकड़ में नहीं आ रहा। बड़ी देर वह अपने साथ तर्क-वितर्क करती रही। फिर अचानक उठी और नीरा को फ़ोन मिला दिया-' भाभी मुझे आपसे बात करनी है, मेरे कमरे में आ जाएँ।'
नीरा मुस्कराती हूँ कमरे में दाखिल हुई। सम्पदा आँखें उठाकर बात शुरू नहीं कर सकी, उसने फ़ोन तो कर दिया था; अब उसे पता नहीं चल रहा कि बात कहाँ से शुरू करे!
नीरा ने उसका चेहरा उठाया-'लाडो, मुझे पता है, तुम्हें क्या परेशान कर रहा है! मेरी ओर देख, मैंने जो किया, उसका मुझे रत्ती भर भी अफ़सोस नहीं। मेरी ज़रूरत और मजबूरी थी।'
'ज़रूरत और मजबूरी में भी गलत क़दम उठाना मुझे गवारा नहीं।' सम्पदा ने अपनी नज़रें उठाईं और नीरा के चेहरे पर टिका दीं।
'जो तुम्हारे लिए गलत है, वह किसी के लिए सही हो सकता है। सबकी सोच और तक़दीर एक जैसी नहीं होती। आज तुम्हें मेरी बात सुननी पड़ेगी। एक औरत को दूसरी औरत का दर्द समझना होगा। फिर जो सोचना चाहो मेरे बारे में सोच लेना....मुझे जब पता चला, देव, तुम्हारे जेठ जी बाप नहीं बन सकते। मैं बहुत दुःखी हुई। बेहतरीन इलाज करवाया गया, सब निष्फल रहा। देव के शुक्राणु बच्चा पैदा करने की क्षमता नहीं रखते। वे मात्रा में भी बहुत कम हैं। कोई दवाई उनकी मात्रा और क्षमता नहीं बढ़ा सकी। मैं बच्चों की शौकीन हूँ, मुझे बच्चे चाहिए। देव से बेहद प्यार करती हूँ, उनसे अलग नहीं हो सकती। अगर मैं बाँझ होती और देव मुझे छोड़ देते, मुझे कितना दुःख होता। छोड़ने की पीड़ा मैं देव को नहीं देना चाहती।' नीरा बहुत भावुक होकर बोल रही थी।
'जब जेठ जी को आपके कारनामें का पता चलेगा, तो उन्हें पीड़ा नहीं पहुँचेगी। भाभी जी, जिस युग में हम साँस ले रहे हैं, इस युग में साइंस इतनी तरक्की कर चुकी है कि बच्चा पैदा करने के कई विकल्प हैं, फिर आपने कमल को ही क्यों चुना?' सम्पदा ने गुस्से में कहा।
नीरा शांति से सुनती रही फिर बोली-'एक विकल्प था बच्चा गोद लेने का, पर मैं स्वयं माँ बनने का सुख लेना चाहती थी। बच्चे के लिए मैंने कई वर्ष इंतज़ार किया। मेरी उम्र बीत रही है, पहले स्वयं माँ बन लूँ, फिर दूसरा बच्चा अडॉप्ट करूँगी।'
'दूसरे विकल्प की ओर आपने ध्यान नहीं दिया। आर्टिफिशियल इन्सेमिनेशन (Artificial Insemination) का। संबंध बनाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती और आप माँ बन जातीं।' सम्पदा का रोष बढ़ता जा रहा था।
'मुझे अपने वंश का अंश चाहिए।'
'फर्टिलिटी क्लीनिक जातीं, वहाँ कई तरीके थे। वंश का अंश मिल जाता आपको। परिवार के किसी भी मर्द से स्पर्म डोनेट करवा लेतीं। पर नहीं, आपको तो संसर्ग से बच्चा चाहिए था। दुःख इस बात का है कि कमल तो मर्द है, उसने अपनी मंगेतर जिज़ेल के बारे में नहीं सोचा। आप तो औरत हैं, आपको तो सोचना चाहिए था। आपने सिर्फ़ अपने सुख के बारे में सोचा’- सम्पदा का चेहरा तमतमा गया।
'जिज़ेल ने मेरा दुःख समझा। उसकी इच्छा से ही सब कुछ हुआ है। उसे अपने प्यार, कमल और अपने-आप पर भरोसा है और सबसे बढ़कर उसे मुझ पर भरोसा है।' गम्भीर भाव से नीरा ने उत्तर दिया।
'बकवास बंद कीजिए भाभी, कोई महिला अपनी मर्ज़ी से इस की इजाज़त नहीं दे सकती, चाहे वह कॉकेशिअन क्यों न हो! नैतिक-अनैतिक हर युग की, हर देश की महिला जानती है।' सम्पदा की आवाज़ ऊँची हो गई।
'सम्पदा ऊँची आवाज़ से तुम सच को झुठला नहीं सकती। तुम्हारे उसूल अपने हैं; क्या सही और क्या गलत, क्या नैतिक और क्या अनैतिक, हर इंसान की निजी सोच पर निर्भर करता है। हर इंसान इस पर मंथन करता है और यह मंथन उस इंसान की संपत्ति होता है। तुम्हारी विचारधारा, तुम्हारा मंथन तुम्हारी अपनी संपत्ति है। उसे दूसरों पर थोपना जायज़ नहीं। तुमने एक तरह से मुझे झूठा कहा है। फ़ोन तुम्हारे पास पड़ा है। जिज़ेल को फ़ोन करके पूछ लो।' नीरा उसी तरह शांत और गम्भीर बोलती गई- 'फर्टिलिटी क्लीनिक भी गई थी; जिन तरीकों की तुम बात करती हो, उन्हें आज़माने। शिव और कमल ने स्पर्म डोनेट किए थे। तक़दीर को कुछ और मंज़ूर था। दोनों के स्पर्म शरीर छोड़ते ही कमज़ोर पड़ जाते हैं। हाँ डॉक्टरी जाँच से इतना पता चला कि कमल के स्पर्म महिला संसर्ग से बच सकते हैं। तभी यह तरीका अपनाया गया। यह संबंध सिर्फ प्रजनन के लिए था। भावनात्मक कुछ भी नहीं।'
'भाभी मैंने बहुत ऊटपटाँग सुन लिया। अब एक शब्द और नहीं। जानवर भी प्रजनन प्रक्रिया में एक -दूसरे से जुड़ जाते हैं और आप कह रही हैं..... ' सम्पदा ने बात अधूरी छोड़ दी।
'धृतराष्ट्र और पाण्डु का जन्म कैसे हुआ था? कुंती के बेटे कहाँ से आए थे? क्या पौराणिक कथाओं तक सब जायज़ है? बाकी सबके लिए ग़लत।'' यह कह कर नीरा का चेहरा तमतमा गया....
'लाडो, आकाश में उड़ने वाला परिन्दा जब धरती के ठोस धरातल पर पैर रखता है तब उसे एहसास होता है कि यथार्थ की कठोरता क्या है! उसके मधुर गीत वृक्षों की डालियों पर आकाश की फिज़ाओं में ही गूँजते हैं, ज़मीन पर पाँव रख कर वह गीत नहीं गाता। कल्पना लोक में विचरण कर तुम जीवन की कटुता को नहीं समझ सकती। आकर्षण, प्रेम, लस्ट और सच्चे प्रेम के अन्तर को जिस दिन तुम समझ जाओगी, उस दिन तुम मेरे सच को भी जान पाओगी। देव से मैं सच्चा प्यार करती हूँ और कमल के साथ अपने रिश्ते की गरिमा की रक्षा करना भी मैं जानती हूँ। मेरे पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं था।' यह सुन कर सम्पदा का चेहरा कई भाव बदलने लगा.......
नीरा कुछ पल विराम लेकर दृढ़ता से बोली--'सुनो सम्पदा, अब मुझे तुम्हें वह बताना पड़ेगा, जो मैं तुम्हें बताना नहीं चाहती थी। उस सच की आँच को तुम सह भी पाओगी या नहीं, अभी कह नहीं सकती, पर तुम्हारे बढ़ते रोष की आग को ठंडा करना भी उतना ही ज़रूरी है, जितना सच को छुपाना। शिव की भी वही समस्या है, जो देव की है। दोनों को यह पारिवारिक जींस की देन है, जेनेटिक प्रॉब्लम। डॉक्टरों ने परिवार की हिस्ट्री को जानकार यह पाया कि परिवार के कई बुज़ुर्ग भी इससे पीड़ित थे। बाऊजी जी के ताया जी और चाचा जी के कोई बच्चा नहीं था और बाऊजी बहुत इलाजों के बाद हुए थे। लाडो! क्या करोगी जब माँ नहीं बन पाओगी!' कहकर नीरा चुप हो गई। उसके मुँह से निकले शब्दों की ध्वनियों से कमरे में स्तब्धता का कोहरा फैल कर सम्पदा के अस्तित्व पर छाने लगा.……
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