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काश! ऐसा होता.....

काश! ऐसा होता.....

सुधा ओम ढींगरा

पति की नौकरी ही ऐसी थी कि देश-देश, शहर-शहर घूमते हुए अंत में, हम भूमण्डल के एक बड़े टुकड़े के छोटे से हिस्से में आ गए और यहीं स्थापित होने का मन बना लिया। बच्चे बड़े हो रहे हैं और इस शहर को अपना अंतिम पड़ाव बनाने का हमारा निवेदन कम्पनी ने स्वीकार कर लिया।

शहर छोटा ज़रूर है, पर बड़े शहरों जैसी हर सुविधा यहाँ उपलब्ध है। बच्चों के पालन-पोषण के लिए यह स्थान उत्तम और सुरक्षित माना जाता है। इस शहर के बारे में वर्षों से अख़बारों और मैगज़ीनों में पढ़ रही थी। यहाँ का मौसम, यहाँ का ऋतु परिवर्तन देश की तरह का है और भारतीय समुदाय तथा स्थानीय लोग यहाँ खूब मिलजुल कर रहते हैं। इसका परिचय मुझे घर में प्रवेश करते ही मिल गया। एक सप्ताह तक पड़ोसियों ने मुझे खाना नहीं बनाने दिया ताकि हम सामान से भरे बॉक्स खोलकर उन्हें सेट कर लें और खाना बनाने से बेफ़िक्र होकर अपने घर में सहज हो जाएँ। सबने तहेदिल से हमारा स्वागत किया।

स्वदेश के जिस क़स्बे में मैं जन्मी और बड़ी हुई; वहाँ का स्नेह, सादगी, अजनबियों को अपना बना लेने का जज़्बा मुझे दुनिया के किसी भी कोने में नहीं मिला। उसे इस शहर में पाकर मुझे सुखद अनुभूति हुई। ऐसा लगा कि मेरे बच्चे भी वैसे ही माहौल में पलकर बड़े होंगे जिस तरह के परिवेश में मेरा बचपन बीता था।

एक माह तक मैं अपने आप को व्यवस्थित करने में लगी रही। घर के निकट कौन से शॉपिंग सेंटर हैं, भारतीय ग्रोसरी स्टोर कहाँ हैं, बच्चों के स्कूल की बस कितने बजे और कहाँ आकर रुकती है, बस यही जानकारियाँ लेने में उलझी रही। पड़ोस में क्या हो रहा है, कुछ जान नहीं पाई और पड़ोस की गतिविधियों में हिस्सा भी नहीं ले पाई। कार में आते-जाते, आस-पास वालों से हाय.… और बाय ज़रूर हुई।

पड़ोस से मैं बच्चों के पहले दिन स्कूल जाने के साथ जुड़ी। स्कूल बस हमारे घर के कोने पर आकर रुकी। सारे अड़ोस-पड़ोस के बच्चे और उनके माँ-बाप पहले से ही आकर वहाँ खड़े हो गए। बच्चों को बस में चढ़ाकर पेशेवर माँ-बाप अपने-अपने काम पर चले गए और घरेलू महिलाएँ वहीं से इकट्ठी होकर सैर को निकल पड़ीं.....

मैंने देखा एक बुज़ुर्ग महिला, ठीक हमारे घर के सामने अपने बरामदे में बैठीं; बच्चों को स्कूल जाते देख रहीं थीं। मैंने एक बात नोटिस की, सारे बच्चों ने अपने माँ-बाप को 'बाय' कहने के बाद, उन्हें भी-''बाय ग्रैंडमाँ, सी यू ऑफ्टर स्कूल'' कहकर हवा में चुम्मन उछाला। वह भी उन्हें फ्लाइंग किस्स देते हुए मुस्करा रहीं थीं।

सुकन्या, हमारे साथ वाले घर की पड़ोसन से मैंने उनके बारे में पूछा तो उसने मुझे बताया -''पारुल, इनका नाम मिसिज़ हाइडी है और हमारे सब-डिविज़न में सबसे पुरानी हैं। पाँच साल पहले मिस्टर हाइडी की डेथ हो गई और मिसिज़ हाइडी अकेली रह गईं।''

''क्या इनके बच्चे नहीं?'' मैंने पूछा।

''हैं… दो बेटे। पर नाम के। मिस्टर हाइडी की डेथ पर आए थे। उसके बाद आज तक उन्होंने कभी मिसिज़ हाइडी से पूछा नहीं- ''माँ तुम कैसी हो?'' मिसिज़ हाइडी ही पोते-पोतियों, बेटे-बहुओं को उपहार भेजती रहती हैं। उनकी तरफ़ से तो कभी यह भी उत्तर नहीं आया कि माँ उपहार मिल गए या माँ तुम इतना खर्च क्यों करती हो।

''ओह ! मिसिज़ हाइडी की आँखों का ख़ालीपन मैंने पहले दिन ही देखा था।'' मेरे मुँह से अचानक निकल गया।

''हम सब इनका बहुत ख़याल रखते हैं। सुबह की कॉफ़ी हाइडी आंटी के साथ इसीलिए पी जाती है कि उनकी सुबह रौनक से शुरू हो। और फिर जो भी कोई स्पेशल डिश कुक करता है, वह आंटी को ज़रूर दी जाती है।'' सुकन्या ने बताया।

शाम को बच्चे स्कूल से लौटकर आए तो बस से निकलते ही ''ग्रैंडमाँ'' कहते हुए हाइडी आंटी की तरफ भागे। उन्होंने सबको अपने हाथों से बनाए बिस्कुट खाने को दिए। बिस्कुट थामे बच्चे उछलते-कूदते अपने माँ-बाप के साथ घरों को चले गए। जब तक बच्चे आँखों से ओझिल नहीं हो गए; हाइडी आंटी की आँखों और होंठों पर मुस्कराहट उदासी की चादर ओढ़े रही। उसके बाद जिस तरह उठकर वे घर के अंदर गईं, लगा अकेलेपन का बोझा उनसे ढोया नहीं जा रहा।

अपनी रसोई की खिड़की से मैं उन्हें देख सकती हूँ। बिस्कुट खाते हुए मेरे बच्चे चहके -''आसम बिस्कुट! मॉम, शी लुक्स लाइक अवर नानी।''

बच्चों ने सही कहा, मेरी माँ तो हाइडी आंटी से भी अधिक अकेली हैं। मैं पाँच वर्ष की थी और मँझला भाई दस का तथा बड़ा भाई पन्द्रह का; जब बाबू जी हमें छोड़ कर चले गए। बैठे-बैठे ही लुढ़क गए थे और माँ वर्षों इस सच को स्वीकार नहीं कर पाईं थीं। माँ अपने माँ-बाप की इकलौती संतान थीं। बाबूजी के बाद नाना-नानी हमें अपने घर ले आए। मेरी शादी के कुछ वर्षों बाद तक माँ को नाना-नानी का सुख मिलता रहा। उनके जाने के बाद माँ ने अपने जीवन में आए शून्य को कभी बड़े भाई के बच्चे पालने में और कभी छोटे भाई के बच्चों की देख-भाल से भर लिया। उन वर्षों में मैं जब भी माँ से मिलने गई, निराश लौटी। माँ के पास मेरे लिए समय ही नहीं होता था। पर सकून था -माँ व्यस्त है.....वर्षों माँ को अपने जीवन के ख़ालीपन का एहसास नहीं हुआ। और अगर हुआ भी तो उसे भरने के कई विकल्प माँ के पास थे।

गत कई वर्षों से मैंने माँ में एक परिवर्तन देखा है। माँ की चमकती आँखें और मुस्कराते होंठ बुझ से गए हैं। माँ का दोमंज़िला पैतृक घर है; जिसके निचले हिस्से में मेरा बड़ा भाई और ऊपरी मंज़िल पर छोटा भाई रहता है। माँ छह महीने बड़े भाई और छह महीने छोटे भाई के पास रहती है। भाई-भाभियाँ सुबह अपने-अपने काम पर चले जाते हैं और बच्चे स्कूल-कॉलेज। माँ अकेली रह जाती हैं।

शाम को घर आते ही सब अपने में व्यस्त हो जाते हैं। माँ के भीतर और बाहर शून्य बढ़ने लगा है। घर के कामों में माँ सहायता करना चाहती हैं, तो वह भाभियों को अपनी गृहस्थी में दखल लगता है।

मैं कई बार माँ को समझा चुकी हूँ -''माँ यह शायद आपका भ्रम है; जब भाभियों के बच्चे आप पाल रहे थे और पूरा घर आपके हवाले था; तब दखल नहीं था।'' माँ बस रो देती हैं और कहती हैं -''तुम नहीं समझोगी। इतनी बेवकूफ़ लगती हूँ ,जो भ्रम और सच का अंतर न जान सकूँ।''

बेवजह और फ़िज़ूल की बातों पर जब दोनों भाइयों के परिवार झगड़ते हैं तो माँ के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता।

हाइडी आंटी के सिर पर कम से कम छत तो अपनी है, माँ के पास तो वह भी नहीं।

माँ टूट गई है। बिखर गई है। अकेलेपन का दर्द और उदासी अब उनके चेहरे और बदन से झलकने लगी है। कैसे बताऊँ माँ को कि मैं एक औरत की तरह उन्हें महसूस करने लगी हूँ। भीतरी भावों को समझती हूँ। माँ बाबूजी को जिस तरह याद करती हैं, महसूस किया जा सकता है कि माँ अपनी वेदना बाबूजी के साथ बाँटना चाहती है। माँ को कोई साथी चाहिए। बुढ़ापे का सहारा चाहिए। माँ सिर्फ माँ नहीं, औरत है, इंसान है। उसे भी जीने का हक़ है।

माँ की जगह अगर बाबू जी होते तो सबसे पहले उनकी शादी कर दी जाती और फिर परिवार तथा समाज के लोग बड़ी सफ़ाई से कहते - ''क्या करे बेचारा पुरुष! कैसे बच्चे पाले? जाने वाली चली गई अब पहाड़ जैसी ज़िन्दगी यह अकेले कैसे काटे? जीवन जीने के लिए साथी तो चाहिए।'' और.… औरत की ज़िन्दगी पहाड़ जैसी नहीं होती, उसे किसी का साथ नहीं चाहिए?

परिवार और समाज की इस दोहरी मानसिकता से मैं चिढ़ती हूँ। रोष से भर जाती हूँ। लपक-लपक कर बाहर आने वाले भावों को अंदर ही गटक जाती हूँ। ज़ुबान खुल गई तो अनर्थ हो जाएगा। मुझे तो कोई कुछ कह नहीं पाएगा, यह कह कर नकार देंगे; विदेश से आई है, इसलिए ऐसी बातें करती है, पर माँ का वहाँ रहना दूभर हो जाएगा।

विदेश प्रवास ने सोचने और समझने के नज़रिए को बहुत व्यापक कर दिया है। स्त्री है या पुरुष सबके भीतर एक सी चेतना है और सभी पहले इंसान हैं उसके बाद कुछ और.... मानव जीवन की यहाँ बहुत क़द्र की जाती है। विदेश के परिवेश ने मानवी भावनाओं को समझने और जानने के दृष्टिकोण में ही बहुत परिवर्तन ला दिया है। देश में लोग जिन बातों को अपनी सुविधानुसार नज़रअंदाज़ कर देते हैं, विशेषतः स्त्रियों के लिए। वे दुःख पहुँचाती हैं। स्त्री सिर्फ बेटी, बहन, पत्नी और माँ ही नहीं, मानवी जज़्बात भी रखती है। बस उसके संवेगों को ही दबाया जाता है, ताकि पितृसत्ता अपना वर्चस्व रख सके। अफ़सोस पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर नारी ही नारी का शोषण करती है। वह अपनी जात का साथ नहीं देती।

माँ की घुटन मुझे दिखाई देती है, माँ की पीड़ा मेरे बदन में होती है। भीतर का खालीपन अब उनकी आँखों में उतरने लगा है.....

माँ को अपने साथ यहाँ लाने की मैंने बहुत ज़िद की थी पर माँ नहीं मानी। अपने संस्कारों में बँधी उनकी सोच, वे बेटी के घर में कैसे आकर रहें ? माँ के दर्द को मैं दूर बैठी भी महसूस कर रही हूँ पर कुछ कर नहीं सकती। हाइडी आंटी से रोज़ मिल लेती हूँ, ऐसा लगता है माँ से मिल ली।

शाम को रसोई में बर्तन साफ़ करते हुए खिड़की से बाहर नज़र पड़ी, हाइडी आंटी के घर के आगे एक कार आकर रुकी और एक बुज़ुर्ग फूलों का गुच्छा हाथ में लिये कार से निकले और उनके घर की डोर बेल बजाने लगे। मैं वहीं खड़ी देखती रही। आंटी ने मुस्कराते हुए दरवाज़ा खोला। आंटी खूब सजी-धजी थीं। मैंने सोचा कोई पहचान वाला होगा और अपने कामों में लग गई।

तक़रीबन रोज़ ही वह कार मैं आंटी के घर के आगे देखने लगी। आंटी के शरीर की स्फूर्ति स्पष्ट दिखाई देने लगी और चेहरे पर आई चमक दमकने लगी। हममें से किसी ने इस बारे कोई बात नहीं की। आंटी के साथ वही दिनचर्या रही।

रोज़ की तरह बच्चों को स्कूल बस में चढ़ा कर, हम सब पड़ोसने सैर को जाने लगीं तो हमारे ही घर के दाईं तरफ में रहने वाली गैब्रियल ने हमें आंटी और जॉर्ज की शादी का निमंत्रण दिया। तब मुझे सारी कहानी का पता चला।

हाइडी आंटी और जॉर्ज चर्च में मिले थे। जार्ज भी विधुर हैं और उनका कोई बच्चा नहीं। दोनों के हमसफ़र इस उम्र में उनका साथ छोड़ गए। अकेले, भीतर शून्य से भरे, दर्द ही दोनों का साँझा है। चर्च के सब मित्रों ने उन्हें सलाह दी कि बाकी बची ज़िन्दगी एक दूसरे का सहारा बन कर, एक दूसरे का दुःख-सुख बाँटते हुए बिता लें। आंटी और जॉर्ज को भी महसूस हुआ कि इस उम्र में कोई बातें सुनने -सुनाने वाला, साथ हँसने- रोने वाला मित्र चाहिए। ढलती उम्र में शिथिल होती इन्द्रियाँ और पल-पल परिवर्तित होती मनःस्थिति में सखा भाव परोक्ष और अपरोक्ष रूप से सम्बन्धों में छाया रहता है। इसी सखा भाव के लिए उन्होंने शादी का फैसला कर लिया। हमारे बच्चों को विशेष रूप से बुलाया गया। सैर करते हुए सुकन्या दूसरी पड़ोसन ने एक रहस्योद्घाटन किया, जॉर्ज और हाइडी आंटी ने अपनी विल भी कर दी है कि उनकी मृत्यु के बाद उनके घरों पर हाइडी के बच्चों का कोई अधिकार नहीं होगा और उनके घर चर्च को दिए जाएँ। घरों से मिलने वाले पैसे से ग़रीब बच्चों को पढ़ाया जाए।

चर्च के उनके दोस्तों और हम सब पड़ोसियों ने मिल-जुल कर उनकी सादा सी शादी कर दी। आंटी के बच्चे उनकी शादी में नहीं आए। हमारे बच्चे उन्हें घेरे खड़े रहे और हाइडी ग्रैंडमाँ और जॉर्ज ग्रैंडपा ने बच्चों को साथ लेकर शादी करवाई। मैं वहाँ खड़ी नहीं रह सकी। बाहर लॉन में आ गई.....

हाइडी आंटी की जगह मुझे माँ नज़र आ रही थी.……

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