कमरा नंबर 103
सुधा ओम ढींगरा
बार्नज़ हस्पताल के कमरा नम्बर 103 में प्रवेश करते ही, नर्सें टैरी और ऐमी पिंजरे से छूटे पक्षियों सी चहचहाने लगती हैं और यह कमरा उन्हें खुले आकाश सा लगता है। जहाँ वे अपनी बातों की ऊँची उड़ान भर सकती हैं। दोनों जानती हैं, बिस्तर पर पड़ी मिसेज़ वर्मा चिरनिद्रा में हैं और वे निस्संकोच हस्पताल की राजनीति, प्रबंधकों की बेईमानी, जो उन्होंने ईमानदारी के आँचल से ढकी हुई है, के किस्से, एक दूसरे के साथ साझा कर सकती हैं। किस रोगी के टेस्ट बार -बार करवा कर, हेल्थ इंशोरेंस का पैसा, हस्पताल को दिलवाया जा रहा है, कौन सा रोगी स्टॉफ़ की लापरवाही का शिकार हो रहा है, किस मरीज़ की ओर अधिक ध्यान दिया जा रहा है...., और फलाँ डॉक्टर के फलाँ नर्स के साथ सम्बन्ध हैं, की बातें करके, अपने मन की भड़ास निकाल कर वे काम का तनाव भी कम कर लेती हैं। उनकी बातें कमान से निकले तीर सी किसी को घायल नहीं करतीं, सीधे कमरे की चारदीवारी से टकरा कर, सुरक्षित उनके पास लौट आती हैं।
मिसेज़ वर्मा बेहोश हो गई थीं। उसके बाद होश में नहीं आईं। उनका हृदय, लीवर, किडनी और निकास मार्ग सब अंग काम कर रहे हैं, पर वे आँखें नहीं खोल पातीं। किसी बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देतीं। हाथ-पाँव शिथिल व निष्क्रिय हो गए हैं। खून और दिमाग़ के सभी टेस्ट हो चुके हैं, निश्चित रूप से डॉक्टर किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच पाए हैं ... मस्तिष्क का वह हिस्सा, जो इन इन्द्रियों को सन्देश देने की क्षमता रखता है, मृतप्राय नहीं है ... देखने सुनने की शक्ति से वंचित वे नहीं हो सकतीं, क्योंकि इन इन्द्रियों से जुड़ा दिमाग़ का हिस्सा भी ठीक है। ऐसा लगता है, किन्हीं कारणों से इन्द्रियों का मस्तिष्क से तालमेल टूट गया है। डॉक्टर किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच पाए हैं ... मस्तिष्क का वह हिस्सा, जो इन इन्द्रियों को उन कारणों को समझने की कोशिश कर रहे हैं ... जो उनकी पकड़ में नहीं आ रहे। इसीलिए वे संभ्रमित हैं। उन्हें ऐसा महसूस होने लगा है कि मिसेज़ वर्मा के भीतर जीने की इच्छा, जीवन संघर्ष व अपनों की ठोकरें चुरा ले गई हैं। वे जीना ही नहीं चाहतीं और वही सन्देश शरीर को मिल रहा है ....
अपनों ने जीवित रहने की उनकी चाह को वापिस लाने के लिए कुछ किया भी नहीं। उनके पास आकर नहीं बैठे..... उनका हाथ पकड़ कर बातचीत नहीं की, उन्हें कभी कोई संगीत नहीं सुनाया..... इस तरह के मरीज़ों के लिए यह बहुत लाभदायक और प्रभावकारी होता है।
हस्पताल में उन्हें एडमिट करवाने उनका बेटा और बहू आए थे... उनकी गम्भीर अवस्था को देखते हुए, उन्हें आईसीयू में रखा गया था। बेटे और बहू को एक दो बार आईसीयू के बाहर लॉबी में बैठे देखा गया। ज्योंही उन्हें आईसीयू से कमरा नंबर 103 में स्थानांतर किया गया, उस दिन से आज तक, उनके बेटे और बहू की किसी ने सूरत नहीं देखी ...वे उन्हें घर के फालतू सामान की तरह हस्पताल छोड़ गए और अब डॉक्टर किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच पाए हैं ... मस्तिष्क का वह हिस्सा, जो इन इन्द्रियों को भी उन्हें वहाँ से किसी नर्सिंग होम में भेजने की सोच रहे हैं ..अमेरिका में नर्सिंग होम ऐसे रोगियों की शरणस्थली है, जिन्हें लम्बे उपचार और अपनी दिनचर्या के लिए सहायक की आवश्कता होती है और परिवार के सदस्य जिनकी देख- रेख करना नहीं चाहते या किसी कारणवश कर नहीं सकते। नर्सिंग होम भेजने के लिए बेटे ने बहुत जल्दी स्वीकृति दे दी। हस्पताल जीवन मृत्यु से खेल रहे रोगियों के लिए है....हालाँकि मिसेज़ वर्मा के शारीरिक लक्षण गम्भीर होते हुए भी, उनकी चिरनिद्रा की स्थिति भयावह नहीं है।
प्रतिदिन के वार्तालाप का केद्र बिंदु हस्पताल और नर्सें आज उनकी बातचीत से गौण हो गया है। टैरी और ऐमी के दिमाग़ में आज कमरा नंबर 107 घूम रहा है, थोड़ी देर पहले ही उस कमरे में पड़े रोगी रॉबर्ट की साँसों के तार टूटे हैं।
मिसेज़ वर्मा के पास आकर टैरी उन्हें देखते हुए बोली ''ऐमी इन्हें नर्सिंग होम भेज दिया जाएगा ..।''
''हाँ, डाक्टर भी क्या करें..टेस्ट कुछ कह रहे हैं और शरीर उनके प्रतिकूल प्रतिक्रिया दे रहा है..।''
''पता नहीं ये ऐसे कितने दिन ज़िंदा रह पाती हैं। कमरा नंबर 107 वाला रॉबर्ट तो जल्दी चला गया।''
''वह गहरे कोमा में था, उसके मस्तिष्क का अधिकतर भाग मृतप्राय था। इनके टेस्ट तो कोमा नहीं दिखा रहे, पर शारीरिक लक्षण अर्ध कोमा बता रहे हैं ... ऐसे में मस्तिष्क और इन्द्रियों को उत्तेजित करने की ज़रुरत होती है...।''
''सही कह रही हो, कुछ साल पहले 210 नंबर के कमरे में एक ऐसा ही रोगी था। उसे लिखने का शौक था। उसके परिवार का कोई एक सदस्य, रोज़ कुछ घंटों के लिए, उसके पास बैठ कर पुस्तकें पढ़ा करता था। किताबों की किन बातों ने उसे उद्दीप्त कर दिया। उसके शरीर में संचेतना का संचार होना शुरू हो गया।''
''कमरा नंबर 107 वाले रॉबर्ट का शरीर बहुत भारी था और उसकी सफ़ाई करते समय हमारी काफ़ी ऊर्जा और समय लगता था।'' मिसेज़ वर्मा का स्पंज बाथ करने से पहले की तैयारी करते हुए ऐमी ने कहा।
''हाँ, मिसेज़ वर्मा तो बहुत हल्की हैं, बिल्कुल फूल जैसी...अच्छा तुम ग्लूकोस की शीशी और स्टैंड को थोड़ा परे करो।''
दोनों ने मिल कर उन्हें दाईं तरफ मोड़ा। कमलेश वर्मा के गाऊन को खोलते हुए धीमे स्वर में उनकी बातचीत आरम्भ हो गई।
''साऊथ एशियंस अपने बज़ुर्गों को बुढ़ापे में अपने देश क्यों नहीं भेज देते.. यह देश उन्हें अपना नहीं लग सकता..।''
''लगेगा कैसे ? वे यहाँ पैदा नहीं हुए। पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी यहाँ कोई पहचान नहीं। जड़ें उनकी अपने देश में हैं। अधेड़ उम्र में वे बच्चों के पास रहने आते हैं..धड़ यहाँ रहता है और आत्मा वहीं उनके अपने देश में...।''
''टैरी, यहाँ आने से पहले मैं एक नर्सिंग होम में काम करती थी। वहाँ एक वृद्ध भारतीय महिला मिसिज़ भसीन थीं। उनका ऑस्टियोप्रोसिस काफ़ी बिगड़ गया था। चलने- फिरने, उठने बैठने की समस्या थी। उनका बेटा समृद्ध था, घर में एक नर्स का इंतज़ाम कर सकता था, पर वह उन्हें वहाँ छोड़ गया। मिसिज़ भसीन को भाषा की समस्या थी। थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी वे समझती थीं। शुद्ध शाकाहारी थीं और गिना- चुना भोजन ही वे पचा पाती थीं। अपने गाड की पूजा करना चाहती थीं...नर्सिंग होम में वे कर नहीं सकती थीं.... धूप और जोत जलाना वहाँ मना था, बस हर समय रोती रहती थीं कि गॉड उन्हें उठा ले ।''
''पुअर लेडी, गाड ब्लेस हर....."
''मैंने उसके बेटे से कहा था, अगर अपनी माँ का भला चाहता है, तो उन्हें भारत भेज दो।''
''क्या कहा उसने ..?'' टैरी ने मिसिज़ वर्मा की पीठ और टाँगों पर छोटे से तौलिये पर साबुन लगा कर घुमाते हुए कहा।
कहने लगा ''मैडम, मेरे अलावा मेरी माँ की देख-भाल करने वाला कोई नहीं है...किसके पास छोडूँ वहाँ..?'' मुँह बनाते हुए और उसकी नकल उतारते उसने कहा।
''उस समय दिल करता था, उसे कहूँ कि, यहाँ कौन सा तुम अपनी माँ का ध्यान रख रहे हो, अपनी माँ को हमारे हवाले ही तो किया हुआ है।''
''ऐसे लोगों को कहना चाहिए। भारत में किसी भी वृद्ध आश्रम में छोड़ देता, अपने लोगों में रहतीं, अपनी भाषा बोलतीं, अपनी पसंद का भोजन खातीं। सहायता तो भारत में बहुत मिल जाती है, सबसे बढ़ कर अपने गॉड की पूजा कर पातीं।''
''नहीं कह पाई टैरी, मुझे उस समय नौकरी की बहुत ज़रुरत थी। डर गई, अगर चीफ को रिपोर्ट कर देता, तो नौकरी चली जाती। पर मैंने उसकी माँ का ध्यान बहुत रखा।''
''कैसीं है अब वे ...?''
''पागल हो गई हैं, यहाँ आने के बाद मैंने पता किया।''
''ऐमी, मुझे इस उम्र में अगर किसी अजनबी देश, अनजान लोगों में, जहाँ भाषा, रहन -सहन, खान -पान मेरे स्वभाव और इच्छानुसार ना हो, रहना पड़े तो मैं भी पागल हो जाऊँ।''
ऐमी और टैरी की बातें मिसेज़ वर्मा को कहीं दूर से आती और गूँजती सुनाई दे रही हैं, जैसे कोई कुएँ से बोल रहा है ...। पागल शब्द कानों के पर्दों के साथ ज़ोर से टकराया और मिसेज़ वर्मा का अवचेतन सचेत हुआ।
''मैं पागल ही हो गई थी।'' भीतर भावों का ज्वार -भाटा उठा और अभिव्यक्ति के लिए, निष्क्रिय हो गए शरीर के तट से टकरा कर लौट गया।
मिसेज़ वर्मा को बाईं तरफ़ मोड़ा गया और ऐमी ने गुनगुने पानी में नर्म -नर्म तौलिया भिगो कर उनके बदन को साफ करना शुरू किया।
''टैरी, कई भारतीय अपने माँ -बाप को बच्चों की देख- रेख के लिए यहाँ बुलाते हैं...डे केयर और बेबी सिटर का पैसा बचाते हैं।''
''तुम्हें कैसे पता...?''
''गुरप्रीत, मोना, ज़ेबा, दामिनी सब नर्सें खुश हो कर बताती हैं...?''
''क्या...?''
''यही कि उन्होंने अपने माँ -बाप को बुलाया है। उनके आने से डे केयर और बेबी सिटर का पैसा बचता है और घर का सारा काम भी वे करते हैं। एक पंथ दो काज हो जाते हैं। माँ -बाप बच्चों से मिल लेते हैं, उनकी सहायता कर देते हैं और अमेरिका भी घूम लेते हैं।''
''अच्छा है, अपने पोते -पोतियों से खेल लेते हैं और दादा- दादी बच्चों में जो संस्कार डाल सकते हैं, वह काम कोई और नहीं कर सकता।''
''माँ -बाप को बुलाने के लिए उनकी यह सोच होती, तो मेरी बातचीत का विषय कुछ और होता।''
''तुमने उनकी बातों से क्या महसूस किया..?''
''स्वार्थ और कमीनापन...।''
''कैसे ?''
मिसिज़ वर्मा शायद वर्षों से बहुत कुछ कहना चाहती थीं। किसी को कुछ कह नहीं पाईं और अपने संवेगों को अपने में ही छुपाती रहीं, अंदर ही अंदर घुटती रहीं। स्वार्थ और कमीनापन शब्दों ने उन्हें फिर तरंगित कर दिया। विचारों और सोचों का रेला आया और उथल -पुथल मचाने लगा। वर्षों से रोका हुआ आवेश लावा बन फूटने की स्थिति में आ गया, शिराओं में रक्त संचार बढ़ा पर शरीर की शिथिलता ने उसे भीतर ही पिघला दिया...
''मुझे मेरे बेटे का स्वार्थ और बहू का कमीनापन बहुत दिनों बाद पता चला..'' उनके स्नायुओं में हलचल हुई....
उन्हें सीधे बेड पर लिटाते हुए टैरी बोली ''इनके शरीर में कम्पन सा होता महसूस हुआ।''
''हाँ, मुझे भी..लगा।''
''नहीं...नहीं यह हम लोगों का भ्रम है..पतले -दुबले हड्डियों के ढांचे को कपड़े बदलते हुए शायद हमें ऐसा लगा है।''
अवचेतना की सचेतता से प्रेरित सुप्त चेतना में संचेतन हुआ, '' अरे ! मैं ऐसी नहीं थी...।''
मिसिज़ वर्मा का आन्तरिक चिन्तन और संवेग उनकी चेतना से उलझ रहे थे.. मनन शुरू हो गया... ''मैं स्कूल में पढ़ाने वाली अध्यापिका थी। अच्छे खुले बदन की थी। यहाँ आकर हड्डियों का ढांचा हो गई। पति कॉलेज में प्राध्यापक थे। अंकुर, हमारे बेटे को, हमने बड़े प्यार और दुलार से पढ़ाया था। आईआईटी में प्रथम आया था। जब उसने अमेरिका आने का फैसला किया तो हमने ख़ुशी -ख़ुशी उसे भेजा। यहाँ की एक भारतीय मूल की लड़की से उसे प्यार हो गया। उसके प्रेम को हमने स्वीकार किया। दो बार हम पति -पत्नी अमेरिका आए, पर बहू का स्वभाव कभी समझ नहीं पाए।''
''उसके लिए हम अंकुर के माँ -बाप हैं। हमारे प्रति वह अपना कोई उत्तरदायित्व नहीं समझती। हमारा ख़याल रखना अंकुर की ज़िम्मेदारी है। वह अमेरिकन कल्चर में जन्मी- पली अमेरिकंज़ से भी चार कदम आगे की सोच रखने वाली लड़की है। घर की किश्त, रसोई भंडार की सामग्री, घर का छोटा -मोटा सामान, बिजली -पानी का बिल, सब का भुगतान दोनों आधा-आधा पैसा डाल कर करते हैं। वह अपने माँ -बाप की बहुत केयर करती है पर हमारा बेटा अपना फ़र्ज़ नहीं निभा पाया।''
'' बेटे के प्यार में अंधी थी..... यही सोचती रही बेटा बहुत समझदार है, सब ठीक कर लेगा। आठ साल तक दोनों के बच्चा नहीं हुआ। अंकुर के पिता जी पोते -पोती की इच्छा लिए इस संसार से चले गए। नमोनिया हुआ था उन्हें, बिगड़ गया और वे संसार के झंझटों से मुक्त हो गए। उनकी अंत्येष्टि पर बस अंकुर आया था, बहू नहीं।''
वे अतीत के तल से धीरे -धीरे गहरे उतर रही हैं ......मस्तिष्क में हलचल हो रही है ........
''टैरी तुम इन्हें सँभालो.... मैं बिस्तर की चादर पहले दाईं तरफ की बदलती हूँ, फिर बाईं तरफ की।''
''ऐमी तुमने बताया नहीं, तुम्हें कुछ साऊथ एशियंस के स्वार्थ और कमीनगी का कैसे आभास हुआ।''
''तुम्हें शायद मैंने कभी बताया नहीं, कुछ वर्ष मैंने सिटी हस्पताल में काम किया था। वहीं जान पाई थी, कई भारतीय और पाकिस्तानी अपने माँ -बाप को यहाँ बुला लेते हैं, पर हैल्थ इंशोयरेंस नहीं लेते। सब अच्छा कमाते हैं, पर दाँतों से पैसा बचाते हैं। माँ -बाप में से अगर कोई बीमार पड़ जाता है, तो उन्हें सिटी हस्पताल में बाहर से ही छोड़ जाते हैं, दवा - दारू का बिल, उनके नाम पर न पड़ जाए, इसके डर से वे उन्हें हस्पताल के अंदर छोड़ने नहीं आते। उन्हें इस बात का पूरा ज्ञान है कि, सिटी हस्पताल में जो रोगी प्रवेश कर गया, उसका उपचार करने से कोई डॉक्टर इंकार नहीं कर सकता। माँ-बाप की चिकित्सा मुफ्त में करवाना चाहते हैं .. ..और बीमार माँ-बाप, भाषा और खाने -पीने की परेशानी सहते पड़े रहते हैं वहाँ। बेचारे, किन कष्टों और पीड़ा से गुज़रते हैं, किसी को बता भी नहीं सकते। इन लोगों के घर देखो तो कितने बड़े -बड़े हैं और दिल इतने छोटे।'' वह भावुक हो गई।
''माँ-बाप इतना शोषण सहते क्यों हैं ?''
''यह भी तो हो सकता है, वे उसे शोषण नहीं, बच्चों के प्रति अपना कर्त्तव्य समझते हों, साऊथ एशियंस का कल्चर और सोच हम लोगों से भिन्न है।''
''ऐसा व्यवहार तो अमानवीय है, कोई कल्चर इसे प्रोत्साहित नहीं करता।''
इस वार्तालाप से मिसेज़ वर्मा बीते पलों के समंदर से भावनाओं के सैलाब के साथ उभरीं।
''टैरी- ऐमी, माँ -बाप ममता में लुट- पिट जाते हैं। मैं भी तो बेटे के प्यार में बिस्तर पर आ गई। पति की मौत के बाद मैं भारत में अकेली ज़रूर हो गई थी पर अपनों में थी। तुम ठीक कहती हो यह देश बड़े बूढ़ों के लिए है ही नहीं। बहू गर्भवती हो गई तो बेटा मुझे लेने आ गया। उसने भावुक कर दिया। पोते -पोती का चेहरा देखने की अभिलाषा में मस्तिष्क से सोचना बन्द कर दिया और मैं दिल से सोचने लगी। बेटे के घर की स्थितियाँ भूल गई और उसके मोह पाश में बंधी उसकी हर बात स्वीकारती गई। उसने यह कह कर घर बिकवा दिया कि अब आप मेरे पास रहेंगी, इसका सारा पैसा आप के नाम करवा दूँगा। वहाँ आप किसी की मोहताज नहीं होंगी। पोते -पोती के साथ ख़ुशी से रहिए, सपना आपकी बहू भी आपको कुछ कह नहीं पाएगी। बैंक में जमा पूँजी की चैक बुक ले कर मैं बेटे के साथ अमेरिका आ गई। ''
''इनके बाल भी बना दें।'' टैरी ने उनके बालों में कंघी फेरते कहा ...
कमलेश वर्मा अपने आन्तरिक संसार में सोचों के कई पहाड़ छलांघती गईं -- ''कुछ ही दिनों में सच्चाई सामने आ गई। बहू का गर्भ गिर गया और मैं उन पर बोझ बन गई, मैं बच्चे की देख -रेख के लिए लाई गई थी, मेरा अब वहाँ क्या काम था.... पर मैं कहाँ जाती ? घर बेच आई थी, और उस पैसे से बेटे ने अपने घर की किश्तें चुका दी थीं। स्वाभिमान मार कर बैठी रही। अचानक एक दिन बेटे को नौकरी से जवाब मिल गया। अब मैं उस घर में दीवार पर लगा मकड़ी का जाला थी, जिसे वे उतार कर फेंकना चाहते थे। मैं भारत लौटना चाहती थी, पर बेटे की सूरत रोक लेती। ''
एक दिन बेटे ने कहा- ''माँ मेरी नौकरी नहीं है। घर की सफ़ाई करने वाली हटा दी है, कुछ खर्चा बच जाएगा। आप घर में ख़ाली बैठे तंग आ जाते हैं , घर के काम-काज क्यों नहीं सँभाल लेते।
''मैं झाडू -पोंछा करने लगी, कपड़े धोती, उन्हें प्रेस करती, खाना बनाती फिर भी पति -पत्नी में झगड़ा होता रहता, उनका झगड़ा क्यों होता, कारण नहीं जान पाई। मेरे सिर में दर्द रहने लगा। रक्तचाप बढ़ गया था, चेक करने के लिए बेटे को नहीं कह पाई ? ''
''ऐमी, इनके बाल लम्बे और रेशमी हैं , चल जूड़ा बना कर समेट देते हैं।''
''मैं उस दिन जूड़ा ही बना रही थी, जब बेटे ने चैक बुक सामने पटकी और बोला --माँ सपना ने यह ढूँढ़ी है। आप ने हमसे इसे छुपाया हुआ था। मैं पैसे -पैसे के लिए यहाँ मोहताज हूँ और भारत के बैंक में आप के नाम लाखों रुपये पड़े हैं। इस पर हस्ताक्षर कर दीजिए, आप के बाद यह पैसा मुझे ही मिलना है तो अब क्यों नहीं ...!''
''सिर दुःख रहा था, रक्तचाप पहले से ही अधिक था.... बेटे का स्वार्थ हृदय को बींध गया। घबराहट हुई और मैं बेहोश हो गई....थैंक्स टैरी ..थैंक्स ऐमी ..मैं अब और शोषण नहीं सहूँगी ..लौट जाऊँगी अपनों में ...।''
दोनों अपना काम समाप्त कर बाहर जाने को तैयार थीं।
''टैरी एक बार देख लें, सब कुछ ठीक है..पाऊडर डाला है या नहीं ....''
''हाँ देख लो, कई बार हम भूल जाती हैं......
ऐमी मिसेज़ वर्मा को देखते ही एकदम बोली -''टैरी जल्दी से डाक्टर को बुलाओ, जल्दी.. .. इनकी आँखें खुली हैं ..... कोरों से पानी बह रहा है.......
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