सबरीना - 31 Dr Shushil Upadhyay द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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सबरीना - 31

सबरीना

(31)

कोई ईश्वर मदद नहीं करता!

सुशांत को लगा कि शायद यूनिवर्सिटी बिल्डिंग पर लाल रंग के नीचे भी कोई रंग रहा हो। महज सौ बरस में उज्बेक लोगों को अलग-अलग रंगों में रंगने की कोशिश की गई, लेकिन उन्हें देखकर लगता नहीं कि कोई भी रंग पर उन पर ज्यादा गहरा चढ़ पाया है। यूनिवर्सिटी में कोई रिसीव करने नहीं आया था। यहां सारी भागदौड़ डाॅ. मिर्जाएव और जारीना ने ही की। आखिरकार गेस्ट हाउस में सुशांत के लिए एक कमरा मिल गया और लड़कियों के रहने का इंतजाम हाॅस्टल में किया गया। सबरीना और जारीना भी लड़कियों के साथ ही रूकीं। पिछले दिन की थकान के कारण सुशांत का अगला दिन थोड़ी देर से शुरू हुआ। उसने एक बात पर गौर किया कि अब वो सबरीना के कदमों की आहट पहचान लेता है। सुशांत खुद को जिन लोगों के निकट महसूस करता है, उसके लिए उन लोगों के कदमों की आहट ही उनकी पहचान बन जाती है। उसे बचपन से ही ये आदत है। सबसे पहले उसने अपनी मां के पैरों की आहट को पहचानना शुरू किया था। वो दसियों महिलाओं के एक साथ चलते वक्त भी ये पता कर लेता था कि इनमें उसकी मां शामिल है या नहीं। हालांकि, बीते बरसों में मां की मौत के कुछ वक्त बाद तक उसे भ्रम रहता था कि जैसे मां के पैरों की आहट सुनाई दे रही है।

उसके कमरे की ओर आती सबरीना को भी उसने पहचान लिया। उसके नाॅक किए बिना ही सुशांत ने दरवाजा खोल दिया और वो मुस्कुराती हुई ताजी हावी के झौंके की तरह पूरे कमरे में फैल गई। सुशांत को तैयार होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। कुछ ही देर में वे यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी से सटे हुए सभाकक्ष में पहुंचे गए, वहीं पर सुशांत का व्याख्यान होना था। बहुत दिनों बाद सुशांत अपने भीतर वो ऊर्जा महसूस नहीं कर पा रहा था, जो उसे कोई भी व्याख्यान देने से ठीक पहले महसूस होती थी। बीते दिनों के उसके अनुभवों ने उसके भीतर निरर्थकताबोध को गहरा कर दिया था। उसे अपने भाषणों, उपदेशों और बड़ी-बड़ी सैद्धांतिक बातों से चिढ़-सी हो रही थी। कला-संस्कृति, धर्म-दर्शन, समाज-राष्ट्र, नैतिकता और मूल्य जैसे शब्द कुछ दिनों के भीतर ही अपनी अर्थवत्ता खोते दिखने लगे थे। सुशांत को लगा कि शायद प्रोफेसर तारीकबी की मौत की वजह से ऐसा हुआ है। लेकिन, वो ठीक-ठीक तय नहीं कर पाया कि ऐसा क्यों हो रहा है। लेक्चर से पहले डाॅ. मिर्जाएव ने उसका परिचय कराया। दक्षिण एशियाई अध्ययन विभाग की ओर से सुशांत का सम्मान किया गया। काफी संख्या में स्टूडैंट्स सुशांत को सुनने आए थे।

सुशांत ने भाषण देने की बजाय प्रश्नोत्तर में अपनी बात करने का निर्णय लिया, आयोजक भी इस पर सहमत हो गए। लगभग दो घंटे प्रश्नों का सिलसिला चला। शायद, पहली सुशांत ने किसी सार्वजनिक मंच पर इस बात को स्वीकार किया कि अक्सर वो अपने व्याख्यानों में जिन समस्याओं और प्रश्नों के समाधान बताने की कोशिश करता है, निजी जिंदगी में वो उन्हें ठीक वैसे ही महसूस कर रहा होता है, जैसे कि बाकी लोग करते हैं। यानि, उसकी निजी जिंदगी में भी उन समस्याओं का समाधान नहीं है। सुशांत ने कहा, ’ सैद्धांतिक व्याख्यान और जिंदगी का कठोर व्यावहारिक धरातल, भिन्न चीजें हैं। कोई व्यक्ति दूसरे के अनुभवों को सुन सकता है, सीखने के लिए उसे खुद ही उन अनुभवों से गुजरना होगा। कोई किताब, कोई ईश्वर और ईश्वर का प्रतिनिधि कोई मदद नहीं करता। ये भ्रम है, जितनी जल्दी संभव हो, इस भ्रम से बाहर आना चाहिए। संघर्ष हमेशा एकाकी होते हैं, उनका सामना करना चाहिए। जब किसी भी संघर्ष को सार्वजनिन बनाकर प्रस्तुत किया जाता है तब भी वह किसी एक ही व्यक्ति का विचार होता है और बाकी लोग प्रेरणा या भय से उसका अनुगमन करते हैं।’ सबरीना लगातार सुशांत की ओर देख रही थी। सुशांत के विचार और उनके विचारों का प्रवाह आज एकदम अलग था। उसने दार्शनिक सिद्धांतों की बजाय कठोर धरातल को सामने रखा था। उसकी बातों न कोई बड़ी उक्तियां थी, न काल्पनिक महानताओं का बखान था और न ही संस्कृतियों की विराटता का कोरा ज्ञान था। वो ठीक-ठीक वैसा ही बता रहा था, जैसा कि जिंदगी का सच है, जो हर परिस्थिति में कठोर ही है। हालांकि, उसकी बातों में उपदेशात्मकता की हल्की-सी झलक बनी हुई थी।

प्रश्नोत्तर के बहाने सुशांत ने अपने भीतर के उद्वेलन को उडे़लकर थोड़ी राहत महसूस की। डाॅ. मिर्जाएव ने पिछले दो दिनों के घटनाक्रम को बहुत भावुकता के साथ प्रस्तुत किया। काफी देर तक खामोशी छाई रही और जारीना बार-बार घड़ी की ओर इशारा करती रही। बाकी लोग भले ही अभी समरकंद में रुक सकते थे, लेकिन सुशांत का ताशकंद के लिए निकलना जरूरी था। ताशकंद से उसे वापस हिन्दुस्तान जाना था। सुशांत ने देखा कि बीती रात यूनिवर्सिटी में जितना फीका स्वागत हुआ था, अब यहां से निकलते वक्त उतना ही अधिक सत्कार का भाव दिख रहा था। बड़ी संख्या में स्टूडैंट्स उन्हें रेलवे स्टेशन छोड़ने आए थे। ट्रेन को देर रात छूटना था। ट्रैन के निकलने तक स्टूडैंट्स लगातार सुशांत से बात करते रहे, उनके मन में हिन्दुस्तान को लेकर ढेर सारी जिज्ञासाएं थीं और एक छिपी हुई मुहब्बत थी। वे और नजदीक से चीजों को महसूस करना चाहते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे कि सुशांत उज्बेकिस्तान को महसूस करने की कोशिश कर रहा था।

ट्रेन धीरे-धीरे आगे बढ़ती है और हाथ हिलाते स्टूडैंट्स पीछे छूट जाते हैं। समरकंद की धरती को पीछे छूटते देखना सुशांत को एक अजीब से अहसास से भर देता है, घर की याद आने लगती है, उस घर की जहां उसके सिवा अब कोई नहीं रहता। वो खुद वामन बनकर ढाई पग में पूरी पृथ्वी को नाप लेना चाहता है, लेकिन हर बार कुछ न कुछ अधूरा छूट जाता है। गाड़ी की गति तेज होती गई और सुशांत के मन में विचारों का प्रवाह और घना होता गया। नींद आई या नहीं आई, पता ही नहीं चला। जारीना की आवाज से उनींदापन टूटा, ‘ सो गए सर, कल तो आप लौट जाएंगे!’

सुशांत ने मुस्कुराकर जवाब दिया, ‘ हां, लौट जाऊंगा।’

जारीना ने लंबी सांस ली और कहा, ‘ पता नहीं, अब कब मिलना होगा, कहां मिलेंगे, मिलेंगे भी या नहीं!’ फिर वो चुप हो गई। उसके चेहरे पर थकान और उदासी, दोनों ही मौजूद थीं-‘ ऐसा क्यों होता है सर, जब हम बहुत कुछ कहना चाहते हैं, तब हमारे पास शब्दों की कमी पड़ जाती है।’

सुशांत उसके सवाल को समझ नहीं पाया। उसे लगा, शायद कुछ बातें हैं, जो वो कहना चाह रही है, ‘ हां, ये होता है जारीना। सबसे जरूरी बातों के लिए सही शब्द ही नहीं मिलते! जो शब्द मिलते हैं, उनसे आधा-अधूरा संप्रेषण होता है।‘ सुशांत कुछ पल के लिए रुका और फिर सीधा सवाल पूछ लिया, ‘ तुम अपने मौजूदा काम से खुश हो ना! अतीत अब भी परेशान करता है ?

‘ नहीं, कुछ भी परेशान नहीं करता। अब मैं दुनिया को समझने लगी हूं। पहले, नाइट क्लबों की जिंदगी जीती थी तो कई बार लगता था कि कोई सच में प्रेम करने वाला मिल जाए। लेकिन, तब सेक्स और वाइन पार्टीज के निमंत्रण ही मिलते थे। दलाली का गिरोह इतना मजबूत होता था कि हर किसी को अपने सपनों पर संदेह होने लगता था। एक वक्त के बाद मुझे भी सारे सपने झूठे लगने लगे थे। आपको पता है, यहां इस मुल्क में एक बड़ी लाॅबी है जो देह व्यापार को अपराध की श्रेणी से बाहर निकालने की कोशिश कर रहे हैं। वे इसे लीगल करना चाहते हैं! ताकि औरतें हमेशा खरीद-फरोख्त की वस्तु बनी रहें। कैसे भयानक सोच है ना!’

सुशांत खामोशी से जारीना को सुनता रहा, न उसे आश्चर्य हुआ और न ही उसने ऐसे गतिविधियों की निंदा के लिए कुछ कहा। उसे पता है, मजबूत से मजबूत कानून भी अंततः विफल साबित होता है, जब कोई समाज या देश औरत को वस्तु में तब्दील कर देता है और उन्हें सौदे करने का आधार बना लेता है। टुकड़ों-टुकड़ों में बातें होती रहीं और बीच-बीच में दोनों निर्वात में खुद को ढूंढते रहे। अपनी सीट पर जाने के लिए जारीना उठ खड़ी हुई, ‘ फिर मिलेंगे जरूर सर।‘ सुशांत उसकी आंखों में देखता रहा।

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