सबरीना
(30)
’सच में, वो अभागी औरत थी।’
‘ आपको हैरत होगी, प्रोफेसर तारीकबी मास्को के बाद कभी मेरी मां से नहीं मिले। कमांडर ताशीद करीमोव से मेरी मां की शादी के बाद उन्होंने अपने रिश्ते को समेट लिया था। पर, वे उन्हें हमेशा खत लिखते रहे। उन खतों में उन्होंने खुद को उड़ेल कर रख दिया है।’
‘ आपको इस बारे में कब पता चला, कभी आपकी मां ने नहीं बताया ?’ सुशांत ने पूछा।
‘ अभी कुछ वक्त पहले, मैं प्रोफेसर तारीकबी के घर की सफाई कर रही थी तो ये खत सामने आए। उस दिन पता चला कि वो मेरी मां को कितना प्यार करते थे। मां से पता चलने का सवाल ही नहीं था क्योंकि ये खत कभी पोस्ट ही नहीं किए गए थे। वो लिखते थे और संभालकर रख लेते थे। जिस वक्त ये खत मेरे हाथ में थे, तब प्रोफेसर तारीकबी ने कहा था कि ये मेरी पूंजी हैं।......सच में, ये मेरी पूंजी ही हैं ? पता नहीं, ये कैसी पूंजी हैं!’ सबरीना ने खतों की फाइल सुशांत की ओर बढ़ा दी और फिर बाहर कर ओर देखने लगी। सुशांत ने खामोशी तोड़ने के लिए पूछा, ‘ तुमने पढ़े हैं ये खत ?’
‘ पढ़ने शुरू किए थे, लेकिन मन बहुत बोझिल हो गया। मुझे लगा, मेरी मां कितनी अभागी औरत थी। उसकी जिंदगी में इतना प्यार बरस रहा था और न जाने किन-किन मर्दाें के साथ मिलकर बच्चे पैदा कर रही थीं। पता नहीं, मैं आज भी नहीं समझ पाती ऐसा क्यों हुआ होगा।’
सबरीना जो कुछ कहती और बताती थी, उसकी सांत्वना के लिए हमेशा ही सुशांत के पास शब्दों की कमी पड़ जाती थी। उसका भोगा हुआ सच सुशांत के किसी भी अनुमान से परे और विराट होता था।
‘ पता है प्रोफेसर, एक बार मुझे लगा, और सच में मैंने कामना की, क्या पता मैं प्रोफेसर तारीकबी और अपनी मां के अवैध संबंधों से पैदा हुई हूं। पर, ऐसा नहीं था। प्रोफेसर तारीकबी मास्को में हुई मुलाकातों के बाद कभी मेरी मां से नहीं मिले। उन्होंने उस दिन मेरी मां को देखा जिस दिन उन्हांेने आत्महत्या कर ली थी। हम बहनों को बहुत बाद में पता चला, मेरे पिता ताशकंद आकर उनके कफन-दफन में शामिल नहीं हुए थे। वो सब कुछ प्रोफेसर तारीकबी ने किया। बताओ, कहां मिलेगा ऐसा इंसान ?‘ सबरीना खामोश हो गई और सुशांत प्रोफेसर तारीकबी के कद के बारे में सोचता रहा। सच में, वो पूरे कद का इंसान था। उसकी तुलना भी आसान नहीं है, उसका कोई विकल्प भी मौजूद नहीं है, ना हो सकता है। पता नहीं, अब ऐसे इंसान पैदा होते भी हैं या नहीं!
‘ जिस दिन ये खत मुझे मिले, मैंने प्रोफेसर तारीकबी से पूछा, आप ऐसी औरत से मुहब्बत करते थे, पर क्यों ? वे तड़फ कर रह गए। उन्हें बुरा लगा कि मैंने अपनी मां को ‘ऐसी औरत’ कहा था। उस दिन उन्होंने मुझ से कोई बात नहीं है। अगले दिन बोले, सबरीना, मैं तुम्हारी मां में अपने वजूद की पूर्णता खोजता था। मैं अपनी भावनाओं को लेकर ईमानदार था और हमेशा रहा हूं। तुम्हारी मां के कैरेक्टर का मूल्यांकन करके जजमेंट देना मेरा अधिकार नहीं है। उनके इस जवाब पर मैं चुप हो गई। इसके बाद मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं उनके खतों को पढ़ सकूं या अपनी मां के बारे में उनसे बात कर सकूं। अक्सर मुझे लगता कि प्रोफेसर तारीकबी मुझ से मेरी मां के बारे में बातें करना चाहते हैं, लेकिन मैं टाल जाती। अब अफसोस होता है। आखिर, उनके पास कौन था, जिससे वो मेरी मां के बारे में बातें कर सकें। मैं कभी इस अहसास से नहीं उबर पाई कि मेरी मां सच में अभागी थी।’
‘ इंसानी जज्बातों की कोई सीमा नहीं होती सबरीना। किसी की भावनाआंे का आंकने-नापने का कोई दुनियावी पैमाना नहीं होता। जो कुछ तुम बता रही हो, उस हर बात से प्रोफेसर तारीकबी का कद और ऊंचा हो जाता है। तुम्हारी मां के बारे में पूरा सच हमारे सामने नहीं है और सच को बताने वाले लोग भी अब नहीं हैं, न मां, न पिता और न प्रोफेसर तारीकबी। इसलिए उन्हें दोष देने से क्या फायदा।’ सुशांत ने सारी हिम्मत बटोरकर इस मामले में अपनी राय रखी। सबरीना जैसे अपनी रौ में बह रही थी, मानो उसने सुशंात के जवाब को सुना ही नहीं।
‘ पता है, मैं कल्पना करती हूं कि अगर मेरी मां मेरे पिता के प्रति ईमानदार रही होती और अचानक एक दिन मुझे पता चलता कि प्रोफेसर तारीकबी उनसे मुहब्बत करते हैं, एकदम सच्ची मुहब्बत। यकीन मानिये, मैं अपने पिता से कहती, अब मां के जीवन में उनके प्रेमी को जगह दीजिए। ऐसा प्रेमी जो 30 साल से अपने जज्बात को संभाले हुए है, जिसकी कोई मांग नहीं है, जिसकी निगाह देह पर नहीं है, वो हक रखता है कि उसकी मुहब्बत उसे मिल जाए। सच में, मेरे पिता मान जाते और इस वक्त मेरी मां.........’ सबरीना ने बात अधूरी छोड़ दी।
‘रिश्तों की बुनावट बहुत जटिल होती है सबरीना, किस खांचे और किस परिभाषा से समझोगी, कैसे समझ पाओगी!‘ सुशांत ने सवाल के साथ उत्तर देने की कोशिश की। सुशांत के जवाब से सबरीना के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। उसने खतों की फाइल एक बार फिर सुशांत की ओर बढ़ाई, ‘ आप चाहें तो ले जाइये, क्या पता आप पढ़ पाओ। मैं चाहती हूं कि कोई मुझे रिश्तों की इस गुंझल को समझा दे। आप समझा सको तो शायद मैं अपने द्वंद्वों और विरुद्धों से बाहर आ सकूं। आखिर, कब तक कोई इतने सवालांे साथ भटक सकता है ?’
सुशांत जब भी सबरीना से बात करता है, वक्त अपना परिमाप खो देता है। दोनों ने चैंक कर देखा, गाड़ी समरकंद यूनिवर्सिटी के मुख्य द्वार से अंदर घुस रही थी। गहराते अंधेरे और चारों ओर पसरी धुंध के बीच परिसर बेहद शांत लग रहा था। हवा हल्की सी सरसराहट के साथ रास्ते के दोनों ओर खड़े पेड़ों के बीच से होकर बह रही थी। मुख्य द्वार से करीब एक किमी चलने के बाद गाड़ी बायीं ओर मुड़ी, सामने ही शहरदागी इन्हा यूनिवसिटी का प्रशासनिक भवन था। धुंधलके में बिल्डिंग का रंग साफ नहीं दिख रहा था, लेकिन ऐसा लग रहा था कि सोवियत जमाने का लाल रंग वक्त के साथ अपनी आभा खो बैठा होगा और नए शासकों ने इसे गहरे हरे रंग से पुतवा दिया ताकि नई आजादी की आभा इसमें पैदा हो सके। हालांकि, ऐसा होने की बजाय एक अलग ही रंग उभर आया था, जिसकी पृष्ठभूमि में लाल रंग मौजूद है और उसके उपर चढ़ा हुआ गहरा हरा रंग अपनी मौजूदगी को पूरी सिद्दत से साबित करने में जुटा है।
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