बोलते शब्दों में “लिखी हुयी इबारत” VIRENDER VEER MEHTA द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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बोलते शब्दों में “लिखी हुयी इबारत”

साहित्य के क्षेत्र में यदि लघुकथा के संदर्भ में बात की जाए तो हाल ही के कुछ वर्षों में बहुत से नए लेखकों ने अपने लेखन से बेहतर संभावनाएं जगाई हैं। इन्हीं संभावनाओं के बीच आने वाले विभिन्न लघुकथा संग्रह जहां इस बात की ताक़ीद करते हैं कि लघुकथा साहित्य के प्रति नई पीढ़ी का रुझान उत्साहवर्द्धक है, वहीं इस बात के लिए भी चेताते हैं कि लघुकथा साहित्य को समृद्ध करने के लिए, आगे बढ़ती इस नई पौध को एक अच्छे मार्गदर्शन की भी आवश्यकता है। ऐसा ही एक लघुकथा संकलन ‘लिखी हुई इबारत’ इसी वर्ष सितंबर के महीने में, अयन प्रकाशन द्वारा लोकार्पित किया गया।

रचनाकारा ‘ज्योत्स्ना कपिल’ की लेखनी से निकला यह संकलन सहज ही लेखिका के लेखन की निंरतर विकसित होती शैली, विषयों की विविधतता और उन पर उनकी मजबूत पकड़ का अहसास दिलाता है। हालांकि इस संकलन की अधिकांश रचनाएं मेरे द्वारा विभिन्न अवसरों पर पहले ही पढ़ी हुई थी, फिर भी इस संकलन में सभी रचनाओं को एक साथ पढ़ना एक अच्छा अनुभव रहा।

★★★★

संकलन में शामिल अधिकांश लघुकथाओं में एक बात जो सहज ही नजर आती है, वह है लेखिका द्वारा उठाये गये सामाजिक कथ्य। लेखिका एक सामान्य लघुकथाकार की तरह पारिवारिक मुद्दों को या आपसी संबंधों को अपने लेखन का आधार बनाती नजर नहीं आती; बल्कि वह अपने लेखन में सामजिक विसंगतियों से लेकर मानव के आचार-व्यवहार पर मंथन करती नजर आती है। उसकी लघुकथाओं में, मकड़ी के प्रतीकात्मक रूप में; विवशतावश पत्नी के 'जॉब' करने और उसके इससे मुक्त होने का साहस दिखाती ‘कब तक’ जैसी रचना है तो 'आज मेरा हौसला चला गया' जैसे संवाद के जरिये भावनाओं का एक नया कंसेप्ट दिखाती ‘चुनौती’ जैसी रचना भी है। जिसमें, 'प्रतिद्वंदिता केवल हार जीत का पर्याय नहीं होती बल्कि एक सच्चे साधक के लिए यह हौसले की उड़ान भी होती है और विरोधी के चले जाने के बाद हौसला भी टूट जाता है' के भाव को लाज़वाब ढंग से प्रस्तुत करती है। लेखिका जहां एक ओर ‘रोबोट’ जैसी रचना में; बचपन में खेलने को नहीं मिले खिलौने के मिलने पर व्यस्क होते बच्चे के मुख से "अब इसका मैं क्या करूंगा?" जैसे बेबाक़ शब्द कहलवा देती है, वहीँ ‘लिखी हुई इबारत’ जैसी रचना में; जबर्दस्ती की शिकार लड़की को अपने बेटे द्वारा चुनाव किये जाने पर डॉक्टर द्वारा शांत भाव से (भले ही कुछ समय की कशमकश के बाद, जो स्वाभाविक भी लगती है) गहन शब्दों में ये कहते दिखा देती है कि 'तुम मानव हो कोई कागज का टुकड़ा नहीं जिस पर एक बार कोई इबारत लिखी गई तो वह बेदाग़ नहीं रहा'। लेखिका की कलम से ‘प्रेम की बंद गली’ जैसी लघुकथा भी सामने आती है, जिसमें एक वेश्या के अपने प्रति एक किशोर के मोह को नकारने की गाथा है; जहां वेश्या का एक सुंदर चारित्रिक पक्ष और आंतरिक दर्द बहुत शिद्दत से रचना में इन शब्दों से उभारा गया है।... "नहीं लिली, हम जैसों की हैसियत इस समाज में कोढ़ से बढ़कर कुछ नहीं। जिसे दिल से चाहा हो, उसके जीवन में गाली बनकर कैसे जा सकती हूँ?"

संकलन में एक रचना ‘बुजदिल’ जैसी भी है जिसमें एक नारी द्वारा अपने पुरुष मित्र को, उसके अपनी पत्नि के निसंतान होने की स्थिति में उसका साथ न देकर घर वालों के दवाब में दूसरा विवाह की बात सोचने पर बड़े ही बेबाक़ और तीखे शब्दों से समझाया गया है। लघुकथा के संवाद 'श्रवण' (नारी का पुरुष-मित्र) के साथ-साथ पाठक को भी सहज ही उद्वेलित कर देते हैं।

. . . . "तो माँ और दादी से कहते क्यों नहीं, कि औरत भी एक इंसान है, कोई बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं।"

या फिर बच्चा गोद लेने की बात पर श्रवण के अपने खून का न होने के प्रश्न पर।

. . . ."क्यों, तुम्हारे खून में ऐसी कौन सी बात है, जिसका चलना इतना जरूरी है?"

या फिर।

. . . ."अरे आई वी एफ तकनीक है और भी कई रास्ते हैं!"

या फिर।

. . . ."श्रवण, प्लीज बी ए मैन।"

सारांश यह है कि लेखिका अपनी रचनाओं के कथ्यों पर पकड़ के साथ अपने पात्रों और उनके विचारों पर भी नियन्त्रण रखने का पूरा प्रयास करती हैं।

★★★★

यूँ तो नारी विमर्श पर वर्तमान में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। लेकिन अधिकांशतया यह विमर्श घर की दहलीज़ में ही सिमट कर रह जाता है। लेकिन ऐसा लगता है कि इस संकलन में लेखिका का ये प्रयास विशेष तौर पर रहा है कि वह नारी के गृहणी पक्ष से आगे बढ़कर कुछ और विचार करे। शायद इसीलिए संकलन की कई लघुकथाओं में नारी चरित्र को मजबूती देने का प्रयास हुआ है।

लघुकथा ‘कब तक’ में पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूर्ण करने के लिए पत्नी का 'जॉब' करना और बाहरी लोगों के गंदे दृष्टिकोण के चलते उसकी; इससे मुक्त होने की चाह, लेकिन पति का उसे जिम्मेदारियों का अहसास दिलाना और अंत में पत्नी का नौकरी को त्यागने का निर्णय नारी के सशक्त भाव को सुंदरता से दर्शाता है। कथा के शीर्षक के साथ रचना के अंत में जाले में फसी मकड़ी का प्रतीक और पत्नी का झाडू से जाले को साफ़ करते हुए बुदबुदाना 'नहीं' इस लघुकथा का बेहतरीन संप्रेषण है जो रचना को अद्वितीय बना देता है।

‘एक और द्रौपदी’ लघुकथा महाभारत-कालीन सभ्यता के विपरीत नारी के उस रूप का चित्रण करती नजर आती है, जहां वह जुए में लगे दांव पर ख़ामोश नहीं रहती बल्कि अपनी रक्षा के लिए एक चंडी बन जाती है।

लघुकथा ‘आईना’ में सहेली को देखने आए युवक के अपमानित करते प्रश्नों के उत्तर में दिए कटाक्ष भरे उत्तर नारी के ऐसे रूप को सामने रखते हैं जहां वह अपने अस्तित्व को पहचानने की समझ रखती है। हाँ यह अलग बात है कि घटनाक्रम अच्छा होते हुए भी प्रस्तुति अधिक प्रभावी नहीं बनी।

लघुकथा ‘कशमकश’ में भले ही कथा के अंत में पति का जेल जाना कुछ अधिक प्रभावी नहीं है, लेकिन नारी की निर्णायक क्षमता का एक उदाहरण जरूर है। कथ्य सहज और पाठक की सोच के अनुरूप बना है।

आधुनिकता के वशिभूत, साधारण पत्नि को नवजात पुत्री सहित त्यागने वाले पति का जब उसी पत्नि से एक आधुनिक रूप में सामना होता है तो वह स्तब्धता की स्थिति में रह जाता है। लघुकथा ‘इंसाफ’ में अंत में दिखाई स्थिति और पत्नि के संवाद नारी के उस आत्मविश्वास को दर्शाते हैं जहां पुरुष के बिना भी वह एक सफल जीवन बिता सकती है।

‘मुक्त गगन में’ रचना है एक ऐसी नारी की जो परिवारिक बन्धनों में अपनी संगीत साधना को छोड़ देती है लेकिन जीवन चौथे पड़ाव में जब वह अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होती है तो सहज ही वह अपने प्रेम संगीत को लौट आती है। यह रचना स्त्री के अपने प्रति दिलचस्पी रखने और रुचियों को जीवंत करने का एक सुंदर सन्देश देती है।

लघुकथा ‘टूटते कगार’ भरे-पूरे परिवार में उन्मुक्त होते बच्चे के प्रति एक माँ के टोकने पर भी उसका विरोध किया जाता है। भले ही रचना में माँ के रूप में स्त्री का अवेहलना पक्ष अधिक प्रभावी है लेकिन रचना के अंत में माँ का मुखर विरोध उसकी दृढ़ता को ही दर्शाता है।

लघुकथा ‘स्वाभिमान' का कथ्य, प्रस्तुति,विषय सभी कुछ बढ़िया बना है जिसमें पुरुष मानसिकता और स्त्री के रंग भेद पर एक प्रेमिका का स्वाभिमान भारी पड़ता है।

लघुकथा ‘प्रतिकार’ में विद्यार्थी जीवन में सखी के किये अपमान के बदले सखी द्वारा अवसर आने पर निष्पक्ष होकर अपनत्व का व्यवहार दर्शाना, रचना में एक सकारत्मक और मानवता का सन्देश देने के साथ स्त्री के दो अलग रूप भी सामने रखता है।

★★★★

चिर परिचित विषयों पर लिखने वाले रचनाकार नए विषय के संदर्भ में अक्सर दुविधा में रहते हैं। यह संकलन उनके लिए एक नजरिया हो सकता है कि विषय भले ही नए न हो लेकिन उनका ट्रीटमेंट नया अवश्य किया जा सकता है। इस संकलन में बहुत सी रचनाएँ केवल अपने प्रस्तुतिकरण के चलते ही प्रभावित कर जाती हैं, भले ही उनका कथ्य चिर परिचित और सामान्य रहा हो।

लघुकथा ‘काश मैं रुक जाता’ दुर्घटना को देखकर नजर अंदाज करते हुए निकल जाने की सामान्य प्रवृति पर एक विचारशील रचना बनी है। भले ही प्रथम भाव में लिखी यह रचना एक आत्म संस्मरण अधिक लगती है लेकिन प्रस्तुति का नजरिया अलग है।

लघुकथा ‘खाली हाथ’ भी सामान्य कथ्य में बेहतर संदेश देना चाह रही है। अपने शीर्षक को साकार करती यह रचना उन लोगों के लिए एक अच्छा संदेश है, जो प्रसिद्धि और चमक-दमक की दुनियाँ में नाम कमाने के लिए अपने घर-परिवार की जिम्मेदारियों से मुख मोड़ लेते है और अंत में सब कुछ पाकर भी खाली हाथ रह जाते हैं।

लघुकथा ‘दंश’ बेटी के लिए उसकी इच्छा के विपरीत चुने गए वर के रूप में हुए गलत चुनाव पर पिता द्वारा उस निर्णय को बदलने की इच्छा शक्ति दिखाना, इस रचना के जरिये विषय को एक नई दिशा देने का प्रयास है।

लघुकथा ‘सौदेबाजी’ एक लघुकथा के फ़्लेवर से थोड़ा हटकर एक छोटी सी कथा तो लगती है जिसमें निरंतर दृश्य परिवर्तन (घटनाक्रम समय परिवर्तन) है, लेकिन कथ्य अच्छा बना है। अंत में 'यू ब्लडी. . .' शब्द तीक्ष्ण होते हुए भी भले ही बहुत अधिक प्रभावी नहीं है, लेकिन उसके बाद "साला जहां देखो, वहां सौदेबाजी" कहा गया वाक्य पत्नी को दोष देने की अपेक्षा पति की हताशा को दिखाता है और यही नज़रिया रचना को आम लघुकथा से अलग कर देता है।

लघुकथा ‘खाप पंचायत’ हालांकि प्रस्तुति के लिहाज से किसी घटना का वर्णन मात्र लगती है लेकिन प्रभावी कथ्य समाज की त्रासदी पर सोचने के लिये विवश अवश्य करता है।

लघुकथा ‘बांझ’ का कथ्य पुराना लेकिन अच्छा है, ये रचना है एक माँ के, अपने बच्चे के प्रति एक निसंतान स्त्री के मोह को शक की दृष्टि से देखने वाली भावना की। जिसे एक नाटकीय ढंग से जलने से बचाते हुए बच्चें में नारी के वात्साल्य प्रेम की झलक नजर आती है।

आज के असुरक्षित माहोल में किसी पीछा करने वाले व्याक्ति को कैसे गलत समझ लिया जाता है, इसी का सुंदर सार है एक रचना ‘भेड़िया’ शीर्षक से आकर्षित करती रचना भले ही बहुत अधिक प्रभावित नहीं करती फिर भी अनचाहे ही ‘अलर्ट’ (सावधान) रहने का सुंदर संदेश देती नजर आती है।

मनुष्य में कब पुरुषत्व के रूप में पशु पैदा हो जाए इसका कोई निश्चित नहीं है. बाल उत्पीडन पर प्रस्तुत कथ्य ‘पुरुषत्व’ लघुकथा के रूप में बहुत अधिक प्रभावी नहीं है, बेशक विषय ज्वलंत कहा जा सकता है।

‘मुफ्त शिविर’ लघुकथा में मुफ्त शिविर के नाम पर ऑपरेशन की आड़ में किडनी निकाल लेने का यह विषय सिहरन तो पैदा करता है लेकिन रचना का सपाट प्रस्तुतिकरण प्रभाव नहीं छोड़ता। आंचलिक भाषा के प्रयोग की कोशिश अवश्य अच्छी हुई है।

लघुकथा ‘किस और’ सहज ही बच्चों के उस कारणों पर ध्यानाकर्षित करती है जहां से बच्चा शिक्षा/पाठशाला के मार्ग को छोड़ गलत रास्ते को चुनता है।

लघुकथा ‘श्वान चरित्र’ में अपनी वफादारी के लिए पहचानी जाने वाली प्रजाति का एक कुत्ता जब अपने मालिक से ही धोखा करता है तो कुत्तों की पंचायत उसे टोमी की जगह आदमी कहने की सजा देती है। आदमी के वजूद पर गहरी चोट करती यह रचना प्रभावी जरूर बनी है। लेकिन एक दो बिंदु इस रचना के इसे आकर्षण को कम करते हैं। रचना का शीर्षक लुभावना होते हुए भी कथा के संपूर्ण कथ्य को परिभाषित करता नजर आता है। रचना का प्रारंभिक कुछ हद तक कथा का पूरा खाका खींच देता है। जिस तरह से एक फ़िल्म में व्याक्ति अंत तक फ़िल्म इस लिए देखता है जो घटनक्रम हो रहा है या उसने सोचा है वह अंत में कैसा होगा, ठीक इसी तरह इस कथा को पाठक इसे अंत तक पढ़ना चाहता है। यह लघुकथा की सफलता भी कही जा सकती है।

‘विडंबना’ लघुकथा के शीर्षक और कथ्य दोनों ही बढ़िया है। बच्चों के समुचित कल्याण के बारे में सोचे बिना बाल कल्याण के लिए की जाने वाले इस तरह की योजनाएं निरर्थक ही है, इस बात को दर्शा रही है लघुकथा। हालांकि पात्र संयोजन में बेहतर होता कि दो मित्रों के स्थान पर एक पात्र से भी काम चलाया जा सकता था, बरहाल कथा के अंत में पात्र को विचारणीय बिंदु पर विचारमग्न छोड़ना अच्छा बना है।

लघुकथा ‘कुपात्र’ कुछ अलग कलेवर की है, आकर्षित करती है, लेकिन अंत का संदेश सही आकार नहीं ले रहा।

‘खिसियानी बिल्ली...’ अंगूर खट्टे हैं; की तर्ज पर बुनी गई यह रचना योग्यताओं और अयोग्यताओं के बीच, व्यक्ति के अवसरवादी पक्ष को उजागर करती नजर आती है।

लघुकथा ‘ममता’ शहर और गांव में रहने वाले दो भाइयों के बीच की अलग-अलग भावनाओं के दो रंग दिखाती है, जिसमें अंत में छोटे भाई का हृदय परिवर्तन एक सकारत्मक सन्देश देता है।

माता-पिता की सेवा करना मात्र औपचारिकता पूरी करने का नाम नहीं है, उनकी भावनाओं और उनके मन को समझ पाना ही एक सच्ची सेवा कही जा सकती है। इसी से जुड़ा एक कथ्य प्रभावी ढंग से अपनी प्रस्तुति दे रहा है लघुकथा ‘मिठाई’ में। अक्सर लोग संतान की देखरेख को जरूरतों से अधिक आर्थिक दृष्टि से देखते हैं, इस कथ्य को प्रस्तुत करने की अच्छी कोशीश है लघुकथा ‘चेतना शून्य’।

‘बुनियाद’ की प्रस्तुति भी बेहतर है और अंत में दिया सन्देश भी प्रभावी है।

संग्रह की अंतिम लघुकथा ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ भी एक अच्छा प्रयास है। रचना का पात्र जीवन की मुश्किलों से हारकर आत्महत्या के रास्ते की ओर चल देता है, लेकिन ठीक उसी समय एक बच्चे को दुर्घटना का शिकार होते देख उसे बचाता है। कुछ लोगों द्वारा ये कहने पर कि 'बच्चे का नया जीवन हुआ है' वह बडबडाता है कि बच्चे का या मेरा!" यह पंक्तियाँ सहज ही एक सामान्य कथ्य को एक प्रभावी उंचाई देने के साथ शीर्षक को भी सार्थक करती हुई नजर आती है।

★★★★

वस्तुतः इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी लेखक का हर लेखन श्रेष्ठ नहीं हो सकता। इस संकलन की लेखिका भी इसका अपवाद नहीं है। इस संकलन में भी सभी रचनायें उत्कृष्ट नजर आती हों, ऐसा नहीं है। कई रचनाएँ ऐसी भी हैं जिन्हें लेखिका यदि कुछ समय और देती तो बेहतर होता। लेकिन इन रचनाओं को भी यदि प्रस्तुतिकरण से अलग हटकर देखा जाए तो मुझे लगता है कि वह अपने विषयों और संदेश के रूप में फिर भी पाठक को निराश नहीं करती।

लघुकथा 'मासूम कौन', 'आशा की किरण', 'फितरत शिकारी', 'संकल्प', ‘कमजर्फ’, ‘हालत’ और ‘भयक्रांत’ जैसी रचनाओं में विषय दिलचस्प होते हुये भी इनकी प्रस्तुति और उदेश्य बहुत अधिक प्रभावी नहीं बन पड़े हैं। लघुकथा 'लालकिला' को भले ही पत्थरों के जरिये कहने का प्रयास अच्छा किया गया है लेकिन एक अच्छा कथ्य प्रभावहीन ही रहा है। 'चार दिन की...', 'रंग' 'नया आसमान' और 'भगवान् या भूख' जैसी लघुकथाएं अच्छे कथ्य के होते हुए भी अपने प्रस्तुतिकरण के कारण सामान्य ही लगती है। 'हरे कांच की चूड़ियां' और 'अहसास' जैसी लघुकथाएं, बतौर शीर्षक और कथ्य तो अच्छी लग रही हैं लेकिन इनमें प्रस्तुति के लिहाज से कसाव की जरूरत लग रही है। 'बेबसी' का कथ्य बहुत अधिक मन को आंदोलित करने वाला है, कथ्य को और अधिक विस्तार दिया जा सकता था। 'झुमकी' वाले प्रकरण की जगह गरीबी को ही पूर्ण रूप से आधार बना कर यदि कथ्य को और अधिक विस्तार दिया जाता तो बेहतर होता। लघुकथा 'बारूद से जन्नत तक' में, रेलवे ट्रैक पर बम्ब रखने के बाद पता लगना कि उसी ट्रेन में कोई अपना भी है' और फिर शुरू होती है दुर्घटना रोकने की जद्दोजहद। यही है रचना का कथ्य। ऐसी रचनाओं का मंतव्य और खाका पहली दो चार पंक्तियों में ही समझ आ जाता है और इनकी सार्थकता भी सीमित समय की ही होती है। लघुकथा 'स्टिंग ऑपरेशन' का कथ्य अच्छा होते हुये भी प्रस्तुति एक विवरणात्मक होने के के कारण अधिक प्रभावित नहीं करती। लघुकथा 'बदलते चेहरे' कथ्य के तौर पर बहुत अच्छी है, लेकिन इसमें संवादों की कमी के चलते जीवंतता का अभाव है। लघुकथा ‘रक्षा बंधन’ त्योहार की व्यापारीकरण भावना को दर्शाती रचना अच्छी बनी है लेकिन वर्तमान में ऐसे कथ्य चिरपरिचित से लगने लगे हैं। रचना के अंत को भी पात्र के शब्दों में लिखना बेहतर होता। 'कृष्ण चरित्र' अपने शीर्षक के परिपेक्ष्य में आज के मित्रता संबंधों में आई शीतलता का चित्रण करती है। ‘नजरिया’ लेखन को बेकार की चीज माने जाने और उस पर समय व्यर्थ न करने की बात करनेवाले पति द्वारा पत्नि के लेखन को जब महत्व दिया जाता है जब वह आर्थिक स्तर पर कुछ प्राप्ति का जरिया बनती दिखाई देती है।

बरहाल यदि कुछ अपवादों को छोड़ संक्षिप्त में देखा जाए तो संकलन 'लिखी हुई इबारत' या इसकी लघुकथाएं पाठकीय तौर पर संतुष्ट करने के साथ नई पीढ़ी के लेखकों के रूप में भी आशा जगाती नजर आती हैं, और निस्संदेह यह लेखिका के लेखकीय कौशल की सफलता ही कही जा सकती है।

विरेंदर ‘वीर’ मेहता