दिल की ज़मीन पर ठुकी कीलें
(लघु कथा-संग्रह )
12-प्रेम-पत्र
नंदिता ने ऐसे घर में जन्म लिया था जहाँ हर बात पर, हर काम पर कंट्रोल का ताला लगा रहता | आज के ज़माने में भी इतना कंट्रोल ! न कहीं आना, न जाना ---बस --पापा का राज !
ठीक है, ज़माने को देखते हुए ज़रूरी भी है पर युवास्था में किसी न किसीकी ओर आकर्षण हो ही जाता है | स्वाभाविक भी है, आकर्षण न हो तो अस्वभाविक !
नंदिता भी अपने सहपाठी स्वराज की ओर आकर्षित हो गई | आकर्षण ऐसा बढ़ा कि प्रेम-पत्रों का आदान-प्रदान होने लगा | नंदिता को वह कुमुद के नाम से पत्र लिखता, शायद किसीके हाथ में आ भी जाएँ तो कोई मुसीबत पैदा न हो |
ग्रेजुएट होने के बाद नंदिता के पिता ने उसके हाथ पीले करने की ठान ली | नंदिता आगे पढ़ना चाहती थी किन्तु पिता ने ठान लिया तो ठान लिया | नंदिता रोती-बिलखती रही किन्तु पिता के सामने किसकी चलती थी | न लड़के को दिखाया गया, न लड़की को | बताओ भला, आज के ज़माने में ऐसा कहीं होता है !
पढ़ने की बात पर नंदिता के पिता ने कहा ;
" वो लोग आगे पढ़ाने की बात कर रहे हैं तो क्या प्रॉब्लम है ? पढ़ लेगी अपनी ससुराल जाकर --"
घर भर ने जैसे चुप्पी ओढ़ रखी थी | कोई नंदिता की बात समझने, सुनने को तैयार ही नहीं |
लीजिए, हो गया विवाह भी ! विदाई के समय पापा पास आए, हाथों में एक पैकेट पकड़े थे |
" लो, अपनी अमानत ---" पापा ने नंदिता के हाथ में पैकेट पकड़ाया |
उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था | वह इतने डिप्रेसिव मूड में थी कि अभी तक उसने अपने वर का चेहरा भी नहीं देखा था | पूरी शादी में घूँघट चेहरे पर था, उसने कोशिश ही नहीं की कुछ भी जानने, समझने की |
" लो, अपनी कुमुद के पत्र लेती जाओ | हमारे यहाँ इनका क्या होगा ?"
अब नंदिता का दिल धड़क उठा, पापा के हाथ में वो लिफ़ाफ़ा था जिसे वह पिछले कई दिनों से ढूंढ रही थी | दूसरी ओर चेहरा घुमाया तो स्वराज के साथ सभी मुस्कुरा रहे थे | पापा ने नंदिता और स्वराज को अपने सीने से लगाकर आशीर्वाद देते हुए कहा ;
" बेटा ! मैं तुम्हारा पिता हूँ -----"
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