दिल की ज़मीन पर ठुकी कीलें - 4 Pranava Bharti द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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दिल की ज़मीन पर ठुकी कीलें - 4

दिल की ज़मीन पर ठुकी कीलें

(लघु कथा-संग्रह )

4-बड़ा साहित्यकार

कोई बांध देता है दिल को मुट्ठी में जैसे रिसने लगता है दिल उसमें से कुछ ऐसा स्त्राव जिसका रंग उसकी समझ में कभी नहीं आया | क्या कलर ब्लाइंड है? पता नहीं लेकिन कुछ तो है जो ब्लाइंड ही है |अब, वह ब्लाइंड है या और लोग, पता नहीं |

वह प्रसिद्ध पत्रिका उसके हाथ में थी, बहुत बेचैनी से उस पत्रिका की प्रतीक्षा रहती थी उसे | समय पर आ भी जाती थी | आज जैसे ही कुरियर-ब्वाय उसे पत्रिका पकड़ाकर गया | उसने अंदर जाने की भी ज़ेहमत नहीं उठाई | बाहर झूले पर बैठकर ही उसने पत्रिका का आवरण पृष्ठ खोल लिया | आवरण पृष्ठ की तस्वीर देखते ही वह चौंक गई | एक बड़े साहित्यकार के न रहने का समाचार छपा था, तस्वीर के साथ | आगे के पृष्ठ खोले, लगभग पूरी पत्रिका उन साहित्यकार की तस्वीरों से, उनके कार्य-कलापों से, यशोगान से भरी हुई थी |

पृष्ठ पलटते हुए न जाने उसका मन कहाँ पहुँच गया, न जाने कितनी ही स्मृतियाँ कौंध गईं ! बरसों पूर्व का उन साहित्यकार से मिलना और उनके व्यवहार का प्रभाव उसे चींटियों की तरह काटने लगा | एक खूबसूरत पत्नी, तीन बच्चों से घिरे साहित्यकार ने जब उससे कहा था ;

" अरे ! मैं आपको साहित्य का दमकता सितारा बना दूँगा , देखिए मैं कैसे हवाई-यात्राएँ करता हूँ, ऊपर से पैसा भी खूब देते हैं लोग मुझे ---आप नहीं चाहतीं, उन बुलंदियों पर पहुँचना ?"

समय कुछ ऐसा था कि उसे उन महोदय के घर जाना और भोजन भी करना पड़ा था | इतनी सुशील, खूबसूरत पत्नी के इधर-उधर होते ही उसने झट से अपना हाथ उसके कंधे पर रखकर दबा दिया और एक अजीब सी दृष्टि से उसके बदन को नाप लिया था | उसकी आँखों में बेबसी उभर आई और वह सोचने के लिए बाध्य हो गई कि ऎसी स्थिति में उसे कैसा व्यवहार करना चाहिए ? पत्नी बार-बार आवाजाही कर रही थी, उनके सामने कुछ कहना उनकी पत्नी को लज्जित करना था, न कि उसे जो ये सब हरकतें कर रहा था |

ऑफ़िस के काम से उसे साहित्कार महोदय के साथ कैनॉट प्लेस जाना पड़ा | कॉफ़ी हाऊस में मीटिंग थी | सब लोगों के जाने के बाद वे दोनों अब उठने ही वाले थे कि साहित्यकार महोदय ने उसकी कमर पर हाथ फिराते हुए पूछा ;

"तो क्या सोचा आपने ?"

उसके मुख पर पसीना चुहचुआ आया था, कमर के इर्द-गिर्द जैसे साँप की लपेट महसूस रही थी वह !

"जी, नहीं ---मैं जो हूँ, उससे संतुष्ट हूँ ---" बामुश्किल वह वहाँ से उठ खड़ी हुई |

" बाद में पछताना मत -----" जैसे वे उसे कोई चुनौती दे रहे थे |

पत्रिका में साहित्यकार की प्रशंसा, उनकी खूबसूरत पत्नी व परिवार की तस्वीरें देखकर उसके मन को जैसे किसी ने मुट्ठी में जकड़कर पीस दिया था | मन ने सोचा, बड़ा साहित्यकार होना अधिक महत्वपूर्ण हैअथवा चरित्रवान, पारदर्शी व्यक्ति !

***