दिल की ज़मीन पर ठुकी कीलें
(लघु कथा-संग्रह )
7-दाल-चावल
शुभा को किसी काम से बेटी के साथ कलकत्ता जाना पड़ा | बेटी तो अपनी कॉलेज-लाइफ़ में भी कलकत्ता गई थी लेकिन उस समय वह एन. सी. सी के ग्रुप के साथ रेलगाड़ी में गई थी | शरारतें करते, शोर मचाते सब युवा लगभग ढाई दिनों में कलकत्ता पहुंचे थे |इस बार माँ के साथ वह हवाई-यात्रा कर रही थी |
टिकिट के साथ लंच इंक्लूड नहीं था | भूख लगी थी | कुछ तो खाना ही था | वैसे ही हवाईजहाज़ का खाना दोनों माँ-बेटी में से किसीको पसंद न था |खाना तो हुआ करता था रेलगाड़ी का, हर स्टेशन पर दिल्ली जाते हुए शुभा के पति कभी गर्मागर्म समोसे ले आते तो कभी दहीबड़े, फलों की चाट ! असली खाने का मज़ा आता था पर अब जबसे ये हवाई-यात्राएँ शुरू हो गईं हैं वो मज़ा दरकिनार हो गया है |
आदत थी शुभा की, सदा अपने साथ बिस्किट के पैकेट्स या सैंडविच रखती | उस दिन भी थे, कॉफ़ी के साथ खाए जा सकते थे किन्तु बेटी का मन कुछ गर्मागर्म खाने का था |
ट्रॉली के समीप आते ही बिटिया ने कुछ गर्म खाने के बारे में पूछा |
"मैम ! कटलेट्स और दाल-चावल हैं ---" एयर होस्टस ने बताया |
" अरे ! दाल-चावल ---! " शुभा ने संदेह व्यक्त किया |
"मैम ! बॉयलिंग हॉट मिलेंगे ---" एयर होस्टस ने मुस्कुराकर बताया |
दाल-चावल एक सफ़ेद प्लास्टिक के बंद डिब्बे में थे | जैसे ही बिटिया डिब्बे को खोलने लगी, एयर होस्टस ने कहा ---
" नो मैम, नॉट नाऊ ----"
"तो --?"
"आफ़्टर एट मिनिट्स ---"
निक्की बड़ी उत्सुकता से उस डिब्बे को हाथ में पकड़े बैठी थी कि जैसे ही वह डिब्बा खोलेगी उसमें से कुछ खुल जा सिम सिम जैसा कुछ होगा | वह बार-बार अपनी रिस्टवॉच एक छोटे बच्चे की भाँति देखती जा रही थी | आख़िर आठ मिनिट्स हुए और निक्की ने हाथ में पकड़े डिब्बे को जो खोला, शुद्ध घी की महक पूरे वातावरण में पसर गई |
होंगे मुट्ठी भर दाल-चावल, तीन सौ रूपये के थे | शुभा को लग रहा था, भला क्या होगा उस छोटे से डिब्बे में लेकिन उसकी सुगंध ने मन भर दिया | शुद्ध घी की सुगंध और उबलते हुए गरमागरम दाल चावल खाकर माँ-बेटी की धारणा बदल गई थी कि हवाईजहाज़ में कुछ भी अच्छा नहीं मिलता |बेशक वह कोई चांस की बात क्यों न हो |
उन थोड़े से दाल-चावल ने जाने कैसे दोनों माँ-बेटी का पेट भर दिया था और तृप्ति की एक संतुष्टि से दोनों सराबोर हो चुकी थीं |
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