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कवितायें

मेरा गाँव कहीं खो गया

सुंदर ताल, तलैया, बाग,सरोवर, बीच बसा था गाँव मनोहर।

हर जाति के लोग बसे थे, बंटे हुए थे सबके काम।

सब दिन भर मेहनत करते, रात में करते थे आराम,

खेती करता था किसान, सब मिलकर हाथ बंटाते थे,

फसल पकी जब खेत में उसके, सब मिलकर कटवाते थे।

फसल उठाने से पहले देवी का भोग लगाते थे।

फिर सब आपस में बाँट कर, अपना हिस्सा ले जाते थे।

परिवार पालते उसी खेती से, जिसमे सब लग जाते थे,

रोजगार की कमी नहीं थी, सब हाथों को मिलता काम,

बड़ा मनोहर होता था सवेरा, बड़ी सुहावनी होती थी शाम।

तेली नाई बढ़ई कुम्हार, धुनका धुनता जुलाहा बुनता, छिपी रंगता, जेवर घड़ता था सुनार।

घर पर महिलाएं सूत कातती, जिससे जुलाहा कपड़ा बुनता।

छिपी उसमे रंग भरता, दर्जी सिलकर देता था।

वहीं गाँव में रुई उगाते, सब काम वहीं पर चलता था,

बूढ़े पेड़ों की लकड़ी से, बनते खाट खटोले और औज़ार,

छीलन से ईंधन बन जाता, लकड़ी से बनते दर और द्वार।

थोड़ी सी लकड़ी लेकर मैं, बनवाकर लाया एक खिलौना गाड़ी,

सारे बच्चे साथ खेलते और झूलते रोज पकड़कर बड़ की दाड़ी

अब तो वो गाँव कहीं खो गया है, गाँव का कामगार बेरोजगार हो गया है,

ताल तलैया बाग बगीचे जो थे यहीं, अब गाँव में कहीं दिखते नहीं।

मेरे गाँव का शहरीकरण हो गया है, मेरा गाँव कहीं खो गया है।

लक्ष्मी पूजन

दिवाली की रात स्वर्ग से लक्ष्मी जी ने, मृत्युलोक का अवलोकन किया।

पूरी पृथ्वी जगमगा रही थी प्रकाश से, पर देर रात तक जलता रहा एक दिया।

दिया कुछ अलौकिक था, दिव्य था, लक्ष्मी जी का मन को भा गया,

और लक्ष्मी जी का वाहन उल्लू उन्हे वहाँ लेकर आ गया,

द्वार था खुला, धूप थी जली, और एक औरत हाथ जोड़े बैठी थी,

हे लक्ष्मी जी आप मेरे घर कब आओगी, भूखे सोते बच्चों को कब एक कौर खिलाओगी।

साथ में बैठा था पतला दुबला सा एक इंसान, धूप दीप की लौ जला लगा रखा था अपना ध्यान,

लक्ष्मी जी को भी उसके घर से धीमी खुशबू आने लगी, खाली द्वार को देख लक्ष्मी जी वापस जाने लगीं।

तभी बच्चा नींद में कुछ ऐसा बड़बड़ाया, हे लक्ष्मी जी मेरी माँ भी तो लक्ष्मी है, उसने भी कुछ नहीं खाया,

आप जा रहीं हैं बेशक जाओ, यहाँ आपका क्या काम है, आप तो वहीं रुकेंगी जहां सभी तरह के ऐशों आराम हैं।

मैं तो अपनी माँ के साथ उम्र भर भूखा रह लूँगा, अपने बाप के साथ जमाने के जुल्म सह लूँगा।

अपनी मेहनत के बल पर सभी ऐशों आराम जुटाऊँगा,

और फिर अमीरों की तरह आपकी पूजा कर आपको बुलाऊँगा।

तब तो आप अवश्य ही आएंगी, और मुझे अपना वाहन उल्लू बनाएँगी,

मैं भी धनवान उल्लू बनूँगा, क्योंकि आजकल उन्ही का राज है, इंसान तो क्या भगवान भी उसी के मोहताज हैं।

आज ही मैंने देखा, मंदिर में एक सेठ आया था, पुजारीजी ने सेठ के आते ही हम सबको भगाया था,

और क्यों न भगाता उसने लक्ष्मी जी पर सोने का हार चढ़ाया था।

सेठ के बच्चे बड़े खुश थे, हजारों के पटाखे किए उन्होने फुस थे।

वे सब तो लक्ष्मी जी को मनाने में लगे थे खेल कर जुआ, तभी मैंने देखा एक झोंपड़ी से निकल रहा था धुआँ।

एक पटाखा आसमान से होकर झोंपड़ी पर जा गिरा था, उसमे सो रहा बूढ़ा उसी में जल मरा था,

हे लक्ष्मी जी ऐसे तो करोड़ो घर हैं, जो तुम्हारे इंतज़ार में अपना जीवन गुजारते हैं,

अपने ही जीवन के संघर्ष में रोज मरते हैं रोज हारते हैं।

अगर तुम उनके साथ कुछ समय जी सकोगी, उनके दुखों के आँसू स्वयं पी सकोगी,

तो तुम भी लक्ष्मी नहीं, स्वयं लक्ष्मी जी हो जाओगी।

लक्ष्मी जी ठिठकी और रुकने लगी, पर वहाँ उल्लू भी सभी बातें सुन रहा था

और बोला आप एक बार मेरी पीठ पर आओ आपका दम घुट जाएगा, थोड़ी बाहर की हवा खाओ।

मैं हूँ आपका वाहन मुझे सब उल्लू कहते हैं,

ये तो सरस्वती जी के वाहन हैं और कविता पढ़कर ही खुश रहते हैं।

हम निकलते हैं यहाँ से सरस्वतीजी यहाँ आएंगी, हंस हैं ये लोग इन्हे अपनी वीणा सुनायेंगी।

खुश हो जाएंगे ये सुनकर और थक कर सो जाएंगे, हम क्यों सोचे कि ये लोग कैसे रहेंगे और क्या खाएँगे।

लक्ष्मी जी चल पड़ी तब उल्लू के पास, महिला वहीं बैठी रह गयी इस साल फिर उदास।

और कहने लगी हे लक्ष्मी जी कभी कवि को भी अपना वाहन बना लो,

अपने गैराज से उल्लू को निकाल कर हंस को सजा लो।

लक्ष्मी जी कहने लगीं सुन गृह लक्ष्मी की बात, तुमने भी अगर हंस को वर रूप में ना पाया होता,

किसी धनवान उल्लू को अपना वाहन बनाया होता, तो तुम स्वयं ही लक्ष्मी हो जाती,

आज एक कवि के साथ रहकर यूं ना पछताती।

मेरी मानो तो इस कवि को एक दुकान खुलवा दो,

अगले साल देखना हम दोनों बहनें साथ साथ दिवाली मनाएंगी।

बच्चे पटाखे चलाएँगे और हम मिठाई खाएँगी।

आजादी की शुभकामना

आजादी के तीन अक्षर, सबको खुश कर जाते हैं,

प्रफुल्लित मन हो जाता है, जब खुद को आजाद पाते हैं।

जानवर को खूँटे से, पंछी को पिंजरे से,

जब मिलती है आज़ादी, वो खुशी तो सब जानते हैं।

वही खुशी मिली थी भारत को, उस रात जिसे आजादी की रात जानते हैं,

जागा था भारत सोई थी गुलामी, सभी ने दी थी तिरंगे को सलामी,

एक वृद्ध मेरे पड़ोस में रहते हैं, आज़ादी के बारे में कुछ ऐसे कहते हैं,

मैं उस समय जवान था और आजादी पैदा हुई थी,

आज मैं बूढ़ा हूँ पर आजादी जवान है।

मैं और मेरे साथी आजादी के लिए लड़े थे, तिरंगे को सीधा उठाकर एक साथ आगे बढ़े थे।

लठियों के वार, घोड़ो की टाप, और बंदूक की गोलियां,

रोक न सकी थी हम आज़ादी के दीवानों की टोलियाँ।

एक एक कर हम गिरते गए, कई तो रास्ते में ही साथ छोड़ गए,

और कुछ ज्यादा तेज चले, वो हमसे आगे दौड़ गए।

हमें तो बस खुद पर गर्व है, क्योंकि आज फिर आज़ादी का पर्व है,

मैं इस पर्व को अलग ढंग से मनाता हूँ, शहीदों के नाम पर हर वर्ष एक पेड़ लगाता हूँ,

और इस छोटी सी बगिया में सभी साथियों को अपने पास पाता हूँ,

इस वर्ष ये पूरे बहत्तर हो जाएंगे, महकाया है देश को मेरी बगिया भी महकाएंगे,

महकता रहे ये चमन, महकती रहे ये बगिया हमारी,

आजादी और भी जवान हो यह शुभ कामना है हमारी।

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