सबरीना - 18 Dr Shushil Upadhyay द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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सबरीना - 18

सबरीना

(18)

चारों तरफ कसता घेरा

बाहर के तापमान की तुलना में गाड़ी काफी गर्म थी। ड्राइवर के सामने का शीशा जरूरत से ज्यादा बड़ा था। ऐसा लगता था जैसे हरेक सवारी को पहियों के सामने मौजूद सड़क को दिखाते रहने का इंतजाम किया गया हो। गाड़ी पुरानी थी, लेकिन उसकी आंतरिक सजावट काफी अच्छी थी। जोशीले युवाओं ने कुछ देर आपस में जोर-जोर से बातें की और फिर अपनी पसंद-नापसंद के हिसाब से सीटों की अदला-बदली कर ली। सुशांत ने एक बार पीछे की सीटों का जायजा लिया तो ज्यादातर सीटें युगल-सीटों में बदल गई थी। दानिश के बराबर में एक मरियल-सा स्टूडेंट ऊंघ रहा था। ऊंघने का संक्रमण जल्द ही पूरी बस में फैल गया और आधे से ज्यादा लोग गाड़ी की रफ्तार के साथ नींद की खुमारी की गिरफ्त में आने लगे। सबरीना बाहर की ओर देख रही थी और ऐसा दिखा रही थी कि वो सुशांत से सटकर नहीं बैठना चाहती थी। सुशंात को लगा कि उसे सबरीना को जवाब देना चाहिए। उसने दानिश के बराबर में बैठे मरियल स्टूडेंट को अपनी सीट पर बुलाया और खुद पीछे जाकर दानिश के साथ बैठ गया। दानिश खुश हो गया और सबरीना ने ऐसे मुंह बिचकाया, जैसे उसे कोई फर्क न पड़ा हो।

‘ दानिश, तुम तो मुझे काफी कुछ बताने वाले थे, अब शुरू हो जाओ।‘ सुशंात ने कहा।

दानिश ने गला साफ किया, जैसे बोलने की तैयारी को अंतिम रूप दे रहा हो।

‘ आपको बताऊं सर, मेरे दादा कमांडर रहीमोमेव और प्रोफेसर तारीकबी एक साथ कम्युनिस्टों के स्कूल मे ंदाखिल हुए थे। बाद में दोनों को मास्को ले जाया गया और वहां उन्हें सख्त ट्रैनिंग दी गई। दोनों का झुकाव अलग चीजों में था। मेरे दादा फौज में गए और कई मोर्चाें पर लड़े। जिस वक्त सोवियत संघ खत्म हुआ, वे उज्बेक सीमाओं के कमांडर थे। उस वक्त प्रोफेसर तारीकबी मास्को में जातीय समुदायों के बीच समन्वय आयोग में जनता के प्रतिनिधि थे। उन्हें पूरा देश गौर से सुनता था। कज्जाकों के साथ आखिरी लड़ाई के बाद जब समझौते की बात आई तो प्रोफेसर तारीकबी को मास्को का प्रतिनिधि बनाया गया। उन पर उज्बेक ही नहीं, तुर्क, कज्जाक, ताजिक, अजरबैजानी और जितने भी जातीय समुदाय थे, वे सभी भरोसा करते थे। आखिरकार कज्जाकों ने सोवियत संघ का हिस्सा बनना स्वीकार किया। तब कमांडर के तौर पर मेरे दादा रहीमोमेव और जन कमिसार के रूप में प्रोफेसर तारीकबी की पूरे इलाके में तूती बोलती थी।’

‘ तुम तो इतिहास का चलता-फिरता और जीवित नमूना हो दानिश। ’ सुशांत ने उसकी तारीफ के अंदाज में कहा। दानिश मुस्कुराया। सुशंात ने एक खास बात पर गौर किया, उसने यहां जितने भी लोगों से बात की, वे तथ्यों की बमबारी कर देते हैं। उनकी बातचीत में कथ्यों की बजाय तथ्यों पर खासा जोर रहता है। कई बार ऐसा लगता है कि कोई वैज्ञानिक फार्मूला प्रस्तुत किया जा रहा है। शायद ये साम्यवाद का बचा-खुचा असर है।

दानिश ने सुशंात का ध्यान खींचा, ‘ वो एक फैक्ट्री देख रहे हंै सर, जिससे सफेद रंग का धुआं निकल रहा है।....एक दम सामने देखिए।’

‘ हां, हां दिख गई।’

‘ मैं कई बार गया हू इस फैक्ट्री में अपने दादा के साथ, यहां मिल्क प्राॅडक्ट बनते हैं। पहले ये इस इलाके जमींदार का घर था। बहुत बड़ा घर था। उसके पास कई सौ घोड़े थे और भेड़ों के रेवड़ थे। ज्यादातर लोग उसकी जमींदारी में काम करते थे। जब मेरे दादा कमांडर होकर आए तो उन्हांेने जमींदार को मार भगाया और उसकी जमीन को सोवियतों को सौंप दिया। फिर ये जमीन सबकी हो गई और जमींदार के घर को फैक्ट्री में बदल दिया गया। उसके रेवड़ों पर भी सभी को मालिकाना हक मिल गया। बाकी सबने भी अपनी भेड़ें सोवियतों को दे दी और लोगों को बताया गया कि वे अब खुद मालिक हैं, कोई जमींदार नहीं हैं, कोई कुलक नहीं है, सब बराबर हैं। अब सुना है, पुराने जमींदार का खानदान सरकार से सांठगांठ कर रहा है। अपनी जमीन वापस लेने के लिए। ऐसा हुआ तो हजारों लोगों का काम छिन जाएगा। लोग फिर जमींदारों के गुलाम हो जाएंगे।’

‘ ओह, ये तो गलत होगा‘ सुशांत ने जवाब दिया।

‘ हां, बहुत कुछ ऐसा हो रहा है अब। पर, कोई विरोध नहीं करता, जिन्हें सोवियतों ने यहां से भगाया था वे ही लोग अब सत्ता में आ गए हैं। सरकार हर चीज को बेच रही है। लोगों को बता रही है कि ऐसा करने से पैसा आएगा और पैसे से देश में तरक्की होगी। पर कुछ होता हुआ नहीं दिखता। यहां अब लोग चर्चा करते हैं कि पूरा मुल्क साढ़े तीन खानदान चलाते हैं। बाकी सब उनके नौकर हैं। पहले जो ताकत कम्युनिस्ट पार्टी को हासिल थी, अब वही इन साढ़े तीन खानदानों के पास है। चिरचिक नदी के पानी को भी बोलतों में बंद करके बेचा जा रहा है। आपको पता होगा कि इसलाम में पानी बेचने को हराम बताया गया है। इंसान को हक नहीं है कि वो हवा और पानी बेचे। पर, जब लोग पानी बेचते हैं तो वे कम्युनिस्ट बन जाते हैं और जब कम्युनिस्टों को गाली देनी हो तो मुसलमान का चोला पहन लेते हैं। वे जरूरत के अनुरूप कभी मुसलमान और कभी कम्युनिस्ट बनकर फायदा उठाने की जुगत में रहते हैं। क्या हिन्दुस्तान में भी ऐसा है ? दानिश ने अचानक बातचीत का प्रवाह बदल दिया! एक पल के लिए सुशंात को लगा कि वो मना कर दे, लेकिन फिर उसने सोचा ये युवा कभी न कभी सच जान ही लेगा, तब उसका भरोसा टूटेगा। सुशांत ने सहमति में सिर हिलाया।

‘ वहां भी हालात ऐसे ही हैं। सोवियत संघ के बिखरने के बाद लगता है दुनिया को एक ही तरह से सोचने के लिए मजबूर किया जा रहा है। हमारे यहां गंगा के पानी को बेचने की कोशिश हुई है, अब भी हो रही है। वहां भी सरकार तरक्की की बात कहकर लोगों से जमीन ले लेती है और फिर कुछ चुनिंदा लोगों को दे देती है। तुम्हारे यहां साढ़े तीन परिवार हैं और हमारे यहां सौ परिवार होंगे जिनके हाथ में पूरा मुल्क है। वे अपनी पूंजी समेट लें तो शायद पूरा देश बिखर जाए।’ सुशांत ने अपनी बात खत्म की और जवाब में दानिश ने लंबी सांस ली। दानिश की उम्र और उसके तजरबे के लिहाज से ये तमाम बातें काफी गंभीर थी, लेकिन वो पूरी बौद्धिकता के साथ अपने तर्क रख रहा था और बातों को समझ रहा था। सुशांत को हाल ही में ग्रेजुएट हुए और रोजगार के लिए टैक्सी चलाने वाले युवा से ऐसे विमर्श की उम्मीद कम ही थी। बातचीत चल ही रही थी कि सबरीना अपनी सीट से पीछे की ओर मुड़ी, उसने आंखें तरेरी, ‘ प्रोफेसर, आप वहां से उठकर अपनी सीट पर आ रहे हैं या फिर मैं आपको वहां से उठाकर लाऊं!‘ सबरीना की बात इतनी ज्यादा आदेशात्मक थी कि सुशांत ने कुछ भी सोचे बिना दोबारा पुरानी सीट पर आने में ही भलाई समझी।

‘ देखा आपने, मैंने आवरण के पीछे मौजूद सुशंात को उद्घाटित कर दिया ना! हटा दिया ना आपका आवरण। वैसे, आप हद दरजे के डरपोक हंै।’ सबरीना ने ‘डरपोक‘ शब्द को ऐसे इस्तेमाल किया जैसे सुशंात उसके सामने बच्चा हो और उसने बच्चे का मन रखने के लिए दोनों के बीच के तनाव को खत्म कर दिया है।

सुशांत बाहर की ओर देखने लगा। सड़क के दोनों ओर फैले खेत अपने भीतर अपूर्व विस्तार समेटे हुए थे। खेतों का विस्तार क्षितिज तक दिखता था। धुंधियाये हुए मौसम के बीच से सूरज बाहर आने की कोशिश कर रहा था, लेकिन अभी उसके प्रयास ऐसे नहीं थे कि वो बर्फ पर भारी पड़ सके। हालांकि, अब बर्फ पड़नी बंद हो गई थी और धंुध ने खेतों को अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया था। सुशांत ने सबरीना से पूछा, ‘ अभी कितनी देर में पहुंचेंगे! ‘

‘ क्यों, बहुत जल्दी है प्रोफेसर ?‘ फिर उसका मूड वैसे ही बदल गया, जैसे धुंध और बादलांे ने सूरज को चमकने का मौका दे दिया हो। ‘ प्रोफेसर, मैंने बहुत दिनों बाद किसी को इतना कुछ बताया है। पर, अब भी बहुत कुछ ऐसा है जिसे बताए बिना शायद बोझिल महसूस करती रहूंगी। भीतर ही भीतर कुछ मथता रहता है। कई बार सही-गलत का फैसला मुश्किल हो जाता है। कई बार लगता है, मुझे मर जाना चाहिए। मां मर गई, पिता मर गए, बहनें नहीं रहीं, अब मैं ही क्यों हूं ? फिर लगता है, अपने पिता को साइबेरिया से आजाद किए बिना कैसे मर जाऊं! आप मेरी बात समझ रहे हैं ना, मैं क्या कह रही हूं! अक्सर लगता है, खुद को धोख दे रही हैं, खुद से भाग रही हैं, पता नहीं कहां, क्यों और किसलिए भाग रही हूं! जब रुक जाती हूं तो डर लगने लगता है, जैसे कोई चारों ओर घेरा कस रहा हो। फिर दौड़ना शुरू करती हूं और दौड़ती जाती हूं!

‘ सबरीना, जो कुछ तुम जी कर आई और जिन हालात का तुमने सामना किया है, उनमें से कोई भी घटना और अनुभव आम बात नहीं है। जब इतना सोचती हो तो खुद से ये जरूर पूछो कि क्या तुम किसी घटना की वजह हो? जो कुछ तुमने बताया, उससे तो नहीं लगता कि तुम्हारे कारण कुछ गलत हुआ है। चाहे मां की आत्महत्या हो, पिता की मौत हो, स्तालिनोवा की दुर्गति हो या दिलराबिया की बीमारी हो! तुम जो कर सकती थी, वो कर रही हो। एक बात समझो कि बाहर की कोई दिलासा तुम्हारी मदद नहीं कर सकती, तुम्हें अपने बूते पर ही संभलना होगा।’ बोलते-बोलते सुशांत चुप हो गया और सबरीना की ओर देखने लगा। सबरीना बहुत गंभीर दिख रही थी, जैसे अपनी जिंदगी के किसी छूटे हुए सूत्र को पकड़ने की कोशिश कर रही थी। काफी देर तक दोनों चुप बैठे रहे।

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