सबरीना - 17 Dr Shushil Upadhyay द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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सबरीना - 17

सबरीना

(17)

जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा.....

बर्फ अभी पड़ रही थी। सुशांत को लगा कि सवेरा बहुत जल्दी हो गया। प्रोफेसर तारीकबी मेज पर झुके कुछ पढ़ रहे थे। सबरीना अंदर के कमरे में मौजूद पलंग पर सो रही थी। सुशांत को याद आया कि रात में उन्होंने मेज से बर्तन भी नहीं उठाए थे, सुबह प्रोफेसर तारीकबी ने ही बर्तनों को साफ किया था। सुशांत के उठने की आवाज सुनकर प्रोफेसर तारीकबी फिर चहकने लगे।

‘ कल आपने अब्बा मरहूम की याद दिलाई तो अभी तक उनके बारे में सोच रहा हूं। वे मुझे अक्सर खत लिखा करते थे, उन्हें पक्का यकीन हो गया था कि उनके बेटे यानि मुझे रूसियों ने बहका लिया है। वो अक्सर कहते थे कि जमाना बदल गया है, हर चीज बुरी हो गई है और इसकी वजह रूसियों की मौजूदगी है। वे रूसियों को नफरत की हद तक नापसंद करते थे। उन्हें पूरा भरोसा कि एक दिन उनका बेटा अल्लाह की राह पर लौट आएगा। पर, ऐसा हो नहीं पाया। और अब तो क्या होगा!’ प्रोफेसर तारीकबी ने कुछ पल का विराम लिया और इसी विराम में सुशांत ने पूछ लिया, ‘ आपको अपने अब्बा की बात न मानने और उनकी उम्मीद पर खरा न उतरने का अफसोस है ?

‘ नहीं, कतई नहीं। मेरे अब्बा ने अपने ढंग से जिंदगी जी, वे मरते दम तक रुसियों का विरोध करते रहे। जब साम्यवादी सरकार ने तमाम मसजिदों को बंद करा दिया तो वे इमाम को घर ले आए और जब तक वो मर नहीं गया, उसे घर पर ही रखा। हद तो तब हो गई जो उस इमाम की जगह नए इमाम को नियुक्त कर दिया और घर को छिपे तौर पर मसजिद में तब्दील करने की कोशिश करते रहे। रूसी भी बड़े जानकार और माहिर लोग थे। उन्होंने अब्बा को उनके हाल पर छोड़ दिया और हम जैसे तमाम बच्चों की परवरिश का जिम्मा खुद ले लिया। अपने घर के बाहर की दुनिया में, जिसे मेरे अब्बा शैतान कम्युनिस्टों की दुनिया कहते थे, उसमें सब कुछ मिला। तब स्टालिन हमारे नायक थे, न हमारा अल्लाह से वास्ता था और न उनके पैगंबर से।’

सुशांत देर तक उन्हें सुनता रहा। उसे लगता है, उम्र बढ़ने के बाद हर व्यक्ति खुद का मूल्यांकन करने के लिए शापित होता है। प्रोफेसर तारीकबी भी अक्सर खुद का मूल्यांकन करते हैं। शायद कभी उन्हें लगता होगा कि उनका फैसला गलत था और उनके अब्बा सही थे। भले ही अपने अब्बा से उनके ख्याल जुदा थे, लेकिन वे उस रिश्ते को अब भी महसूस करते थे। वे एक कबिलाई समाज मैं पैदा हुए और उनकी परिवरिश आधुनिक दुनिया में, वो भी कम्युनिस्टों के साये में हुई, ये विरोधाभास उन्हें कभी-कभी तो सालता ही होगा।

‘ और आपको क्या बताऊं, उन्होंने स्टालिन के मरने पर सार्वजनिक खुशी जाहिर की थी। बाद में जब ख्रुश्चेव ने कुछ मामलों में छूट दी तो मेरे अब्बा को लगा उन्होंने स्टालिन के मरने पर जो दुआ की थी ये बदलाव उसी के कारण हुआ। जब, मैं छोटा था प्रोफेसर, शायद 10-12 साल का, उसी दौर में दूसरा विश्वयुद्ध खत्म हुआ था। पूरी दुनिया में स्टालिन का डंका बज रहा था। तब ताशकंद से समरकंद के बीच रेलगाड़ी चलने लगी थी। मैंने, बहुत कोशिश की, एक बार अपने अब्बा को ट्रेन का सफर करा दूं, लेकिन वे कम्युनिस्टों द्वारा बनाई गई रेलगाड़ी में बैठने को तैयार नहीं हुए। जब पहली बार मैं इस ट्रैन से समरकंद गया तो अब्बा दुनिया से रुखसत हो चुके थे। मैं खिड़की के पास बैठ गया। शायद, पहली बार मैंने उनकी निगाह से धरती को देखा था। मैं, आज भी उस नजारे को बयां नहीं कर पाता। जहां तब निगाह जाती थी, खेत फैले हुए थे। उनके उपर बर्फ की हल्की चादर बिछी हुई थी। जो धरती कभी मरुस्थल थी, उस पर बागान विकसित हो गए थे। पेड़ फलों से लदे हुए थे। अब्बा इन्हें शैतान के बाग कहते थे, पर इनके फल भी खूब चाव से खाते थे।’

सुशांत काफी उत्सुकता से प्रोफेसर तारीकबी को सुन रहा था। वे किसी भी बात को खूबसूरत किस्से में ढालकर प्रस्तुत करने में माहिर थे। इस बातचीत के दौरान ही सबरीना जग गई। सीधे किचन में गई और तीन प्याले काली चाय ले आई। चाय लेते वक्त सुशांत को अपना वो संस्कार याद आया कि सुबह नहा-धोकर ही कुछ खाना-पीना चाहिए। पर, यहां ऐसा कोई नियम नहीं था। जब तक तैयार होने की नौबत आती डाॅ. साकिब मिर्जाएव स्टूडेंट्स को लेकर आ गए थे। सभी एक बड़ी गाड़ी में सवार थे, उसी में आगे की ओर चार सीटें खाली रखी गई थी। स्टूडेंट्स को जारीना नाम की लड़की लीड़ कर रही थी, लड़कों की संख्या कम थी, पर सब के सब काफी जोश में थे। इन सभी से बीते दिन यूनिवर्सिटी में सुशांत की मुलाकात हो चुकी थी। सुशांत हर किसी से निजी तौर पर परिचित होना चाह रहा था, लेकिन अपने देश और दायरे के बाहर ये सब कितना मुश्किल होता है ! नए नाम, अपरिचित समुदाय, नए नृवंश, सोचने का अलग ढंग और जिंदगी को समझने का नया नजरिया....ऐसे में किसी को समझना और खुद के बारे में बता पाना बिल्कुल आसान नहीं होता।

डाॅ. साकिब अपने थुलथुल शरीर के साथ जैसे-तैसे सीढ़ियां चढ़कर ऊपर आए। पहले वे प्रोफेसर तारीकबी और फिर सुशांत से ऐसे गले मिले कि उनके ऊपर गिरने से बाल-बाल बचे। गले मिलने के साथ वे गाल मिलाकर मिलना भी नहीं भूलते। जब वे अपनी गाल सुशांत की गालों के पास लाए तो सुशांत ने साफ महसूस किया कि सुबह नहाना तो दूर उन्होंने ठीक से मुंह भी साफ नहीं किया। एक अजीब से गंध उनके मुंह और गर्म लबादे के भीतर से उफनकर बाहर आ रही थी। फिर अचानक उसे ये सोचकर हंसी आ गई कि बीती रात जब गाड़ी में सबरीना का सिर उसके कंधे पर था, तब उसे किसी गंध की परवाह नहीं थी, लेकिन डाॅ. मिर्जाएव के मामले में गंध ही एकमात्र अनुभूति थी।

प्रोफेसर तारीकबी और सबरीना ने तैयार होने में देर नहीं लगाई, अब चलने में देरी की अकेली वजह सुशांत ही था। सुशांत ने भी अपने मेजबानों के स्टाइल में ही तैयार होना ठीक समझा। कुछ ही देर में पूरा समूह बस में सवार हो गया। सबसे पहले डाॅ. मिर्जाएव गाड़ी में चढ़े, नीचे खड़े दो स्टूडेंट्स ने उनकी कमर को सहारा देकर उन्हें अंदर की ओर ठेला। फिर प्रोफेसर तारीकबी, सबरीना, सुशांत और जारीना सवार हुए। सुशांत ने देखा कि तीसरे नंबर की सीट पर खिड़की के बराबर में दानिश मौजूद है, वो सुशांत को देखकर उठ खड़ा हुआ और दोनों एक-दूसरे से मिलकर खुश हुए। सुशांत ने दानिश के साथ की सीट पर बैठने के बारे में सोचा, लेकिन प्रोफेसर तारीकबी ने उसे सबरीना के साथ बैठा दिया। हालांकि, रात में खाना खाते वक्त की सबरीना की टिप्पणी से सुशांत थोड़ा खिंचा हुआ महसूस कर रहा था। जारीना ने एक-एक करके सबका परिचय कराया। अपनी सीट पर बैठे-बैठे ही डाॅ. मिर्जाएव ने ऐलान किया कि मेहमान के सम्मान में जारीना एक हिन्दी गीत पेश करेंगी। सुशांत को लगा कि एक बार फिर ‘ मेरा जूता है जापानी सुनने को मिलेगा, लेकिन जारीना ने बहुत डूबकर गाया-‘ जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां.........’ सुशांत को ये गीत बहुत पसंद है, जारीना के अंदाज ने इसे और खूबसूरत बना दिया। सारे स्टूडेंट्स ने इस गीत में उसका साथ दिया। गाड़ी अलितेत की पहाड़ियों की ओर बढ़ चली, 200 किलोमीटर का ये सफर करीब चार घंटे में खत्म होना था।

जारी....

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