दिल की ज़मीन पर ठुकी कीलें - 1 Pranava Bharti द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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दिल की ज़मीन पर ठुकी कीलें - 1

दिल की ज़मीन पर ठुकी कीलें

(लघु कथा-संग्रह )

1-दिल की ज़मीन पर

ऋचा पैंसठ की हो चुकी, बच्चों के शादी-ब्याह --सब संपन्न ! तीसरी पीढ़ी भी बड़ी होने लगी | पूरे -पूरे दिन लगी रहती | सबकी फ़रमाइशें पूरी करने में | बहुत आनंद मिलता उसे फिर बहुत सी बातें भी सुनती ---

"ट्यूब लाईट हैं आप, कोई बात ही समझ नहीं आती ---" उच्च-शिक्षित प्रोफ़ेसर ऋचा तब भी कुछ न समझती अथवा वह कुछ समझना नहीं चाहती थी |

"दरसल ! ये ज़माना हम लोगों के रहने लायक रह ही नहीं गया ---"प्रोफ़ेसर तेज परिवार के बहुत अच्छे मित्र थे, भुक्त-भोगी भी थे | अक़्सर दूसरे की पीड़ाएँ भी अपने साथ जुड़ जाती हैं |

सही हो सकता है, वह सोचती किन्तु ज़िंदगी है तो ज़िंदा रहना भी है, क्या किया जाए ?बाहर से आने वाले बच्चे का स्वभाव बदलना तो मुमकिन नहीं !

"निकाल बाहर करो सालों को, जो तुमसे इस तरह की बातें कर सकते हैं ! जब तक महेश थे तब तक वो काफ़ी थे सबको देखने के लिए, अब देख लेना तुम्हारा जीना दूभर न हो जाए तो ----"

चुभने लगी ऋचा को इस प्रकार की बातें | एक-बार, दो-बार ---बार-बार, कितनी बार ! यानि वह अकेली बेवकूफ़ घर भर में | जब तक पति थे तब तक बातें छटे-छमाहे मज़ाक में उड़तीं, किसी का साहस नहीं था, बाद में खुल के कहा जाने लगा | उसे समझ नहीं आतीं थीं, कुछ बातें --इस दुनियादारी की ! समझ न पाती इतना सीधा होना उसका कसूर था, या ज़माने की चालाकी का ?

"पता नहीं, मैंने क्या गलत काम किए ?" एक दिन रसोईघर में दुखी होकर उसके मुख से निकल गया |

उसके दिल की ज़मीन पर जैसे कोई नुकीले नाखूनों से खुरचता रहता जिनमें से हर समय रक्त रिसने लगा था |

" ज़रूरी नहीं आपने कुछ ऐसे बुरे काम किए हों पर ज़रुरत से ज़्यादा मुहब्बतऔर अधिक अच्छे होने की कीमत भी चुकानी तो पड़ती ही है |"उसकी घर की सेविका ने इधर-उधर देखते हुए हौले से कहा | शिक्षित ऋचा के चेहरे पर जैसे एक झन्नाटेदार तमाचा पड़ा | यह अनपढ़ सेविका उससे कहीं अधिक समझदार थी |

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