सबरीना
(15)
अब्बा मरहूम की दाढ़ी
ठंड बढ़ गई थी, बर्फ और तेजी से गिर रही थी। गाड़ी को संभाले रखने के लिए ड्राइवर को ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही थी। गाड़ी काफी धीमी गति से आगे बढ़ रही थी। सुशांत भी यही चाह रहा था, गाड़ी धीमी चले। सुशांत नए संदर्भाें के साथ जिंदगी को समझने की कोशिश रहा था। बीते 24 घंटे में उज्बेक धरती पर इतना कुछ देख और सुन लिया था मानो एक पूरी गाथा से होकर गुजरा हो। जीवन के चुनौती भरे और मुश्किल समय में अक्सर सुशांत को अपनी मां की याद आती है। उसके पिता और मां के बीच रिश्ते कभी सामान्य नहीं रहे। उसकी मां देखने में काली और ठिगनी औरत थी, एक औरत के तौर पर शायद उनमें कुछ भी वैसा नहीं था जो उसके पिता को आकर्षित कर सके। एक वक्त के बाद दोनों के बीच दूरी इतनी बढ़ गई थी कि पिता पूरे परिवार को छोड़कर चले गए थे। लेकिन, मां ने न उनका पीछा किया और न उन्हें वापस लाने के लिए कोई कोशिश की। वे जीवट वाली महिला था। उन्होंने लोगों के खेतों में काम किया और अपने बच्चों को इंसान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
सुशांत छुट्टी के दिनों में उनके साथ मजदूरी करने जाता। बारिश से ठीक पहले खेतों में धान रोपते हुए मां की कमर कमान हो जाती, लेकिन वे शिकायत किए बिना लगी रहतीं। जिन दिनों बागों से फल तोड़ने का सीजन आता तो वे सुशांत को अपने साथ लेकर जातीं। सुशांत को याद है कि वो पेड़ों पर नहीं चढ़ पाता था और मां भी ऐसी स्थिति में नहीं थी। पर, मजदूरी के बिना पेट नहीं भर सकता था। दोनों मिलकर एक जान हो जाते और मां अपने कंधे पर बैठाकर सुशांत को पेड़ पर चढ़ा देती, वो फल तोड़ता और नीचे मां उन्हें इकट्ठा करती। दोनों के काम के बदले एक आदमी की मजदूरी मिलती, फिर भी मां कभी शिकायत नहीं करती। सारी पढ़ाई उन्हीं खेतों में मजदूरी करते हुई। सुशांत की हर सफलता को मां छिपाकर रखती। उन्हें लगता कि अभी ये सफलताएं बताने लायक नहीं हैं। फिर एक दिन वो भी आया जब सफलताएं बताने लायक हो गई।
एक दौर था जब गांव और शहर के बीच की दूरी अलंघ्य लगती थी, फिर एक दौर आया जब देश-दुनिया की कोई भी दूरी छोटी हो गई। सुशांत हर मायने में बड़ा होता गया और मां जैसे और छोटी होती गई। सुशांत ने सबरीना की ओर देखा और ये सोचकर कर मुस्कुरा पड़ा कि मां को याद करके सबरीना को देखना कितना बेमेल-सा है। पर, अगले पल उसे लगा वो शरीर को कहां देख रहा है, वो उस कोमल अहसास को देख रहा है जो मां के साथ जुड़ा और जो शायद सबरीना के साथ किसी जुड़ाव के लिए छटपटा रहा है। फिर पिता की याद आई, लेकिन सबरीना के पिता का वजूद सामने आ खड़ा हुआ। काश! सबरीना को मेरी मां जैसी मां मिली होती और काश! मेरे पिता सबरीना के पिता जैसे होते! पर, ‘काश!’ जैसी पहेली को हल करने का कोई सरल सूत्र नहीं होता। काल रूपी अश्व दौड़ा चला जाता है और ‘काश!’ का आकार पहले से और ज्यादा बड़ा हो जाता है। सुशांत के विचारों का सिलसिला सबरीना की आवाज से टूटा-‘मैं, सो गई थी क्या ?’
‘ नहीं, तुम तो उछल-कूद कर रही थी।’ सुशांत ने हल्के ढंग से जवाब दिया। सबरीना ने शीशा साफ करके जगह का अनुमान लगाया। फिर ड्राइवर से पूछा और आश्वस्त हो गई कि कुछ ही देर में पहुंचने वाले हैं। उसने ड्राइवर को कहा, आगे से पहले मोड पर मैक्सिम गोर्की मार्ग पर तीसरी बिल्डिंग के सामने रुकना है।
ढलती हुई रात के साये में बिल्डिंग खामोश खड़ी थी। उसके प्रवेश द्वार पर न कोई गार्ड था और न ही कोई बैरियर। बिल्डिंग खंडहर होने की ओर बढ़ती दिख रही थी। लगता है, बरसों से उसका रखरखाव नहीं किया गया। कई जगह काई जमी हुई थी और दीवारों पर यहां-वहां मुरझाये पौधे झांक रहे थे। गाड़ी सीधे अंदर आ गई। सीढ़ियों के ठीक बगल में दो बड़ी जगह खाली थी, लग रहा था, जैस दीवार पर उकेरी गई कोई तस्वीर खुरचकर हटाई गई हो। सुशंात उस जगह को देख रहा था। सबरीना ने जवाब दिया, ‘ यहां पहले लेनिन और स्टालिन जमे हुए थे, अब उन्हें हटा दिया गया है। अब यहां उज्बेक नेताओं की तस्वीरें लगेंगी। ’ इस तरह के बदलावों के बारे में सुशांत को अब तक जितनी सूचनाएं मिल चुकी थीं, उन्हें सुनने के बाद इस नई सूचना पर उसे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वे दोनों प्रोफेसर तारीकबी के फ्लैट के सामने थे, दरवाजा खटखटाने की जरूरत महसूस नहीं हुई, अंदर से प्रोफेसर तारीकबी की आवाज आई, ‘ आओ, आओ मेरे मेहमानों आओ, सारी रात हो गई इंतजार करते हुए।’
घर के अंदर का हिस्सा सामान्य से भी कम सजा-संवरा था। बाहरी कमरे की दीवार पर लेनिन और स्तालिन जमे थे। उनकी बराबर में माक्र्स और एंगेल्स भी मौजूद थे। पूरी दीवार उनके पोर्टेट से भरी हुई थी। एक छोटा-सा चित्र खु्रश्चेव का भी था। सुशांत ने चुटकी ली, ‘ प्रोफेसर तारीकबी यहां ब्रेझनेव, आंदे्रपोव, पापेंद्रो, कोलेनिन, सिलायेव के फोटो भी लगाने चाहिए थे। इससे पूरे सोवियत इतिहास की झलक मिल जाती।’
प्रोफेसर तारीकबी ठहाका लगाकर हंसे। ‘ मैं समझ गया, समझ गया प्रोफेसर, आप भी गहरे मजाक करते हैं। आप जानते हैं, ये सब इतिहास हैै। मैं बूढ़ा आदमी हूं, मुझे इतिहास से मुहब्बत है। 50 साल साम्यवादी रूस में कम्युनिस्ट पार्टी के साथ गुजारे हैं। इतनी जल्दी सब कुछ नहीं भूल सकता। अब तो नहीं भूल सकता।‘ उन्होंने काफी जोर देकर अपनी बात कही और फिर दाढ़ी पर हाथ फेरने लगे। सुशांत ने फिर मजाक किया, ‘ आप बार-बार दाढ़ी पर हाथ फेरते हैं, खुद को मुसलमान होने का अहसास कराते हैं क्या !‘
प्रोफेसर तारीकबी ने फिर ठहाका लगाया, ‘ आपने खूब याद दिलाया। मेरा अब्बा मरहूम पुराने दौर के आदमी थे। उन्हें पूरा यकीन था कि दाढ़ी पर फरिश्ते झूलते हैं। हमेशा अपनी दाढ़ी को सजा-संवारकर रखते थे ताकि फरिश्तों को झूलने में तकलीफ न हो। किसी की मजाल कोई उनकी दाढ़ी छू ले। वे खुद भी जब अपनी दाढ़ी को छूते को बार-बार खुदा को याद करते कि कहीं फरिश्तों को कहीं कोई तकलीफ न हुई हो। मैंने जवानी के जोश में उन्हें चिढ़ाने के लिए लंबी दाढ़ी रखी थी और बार-बार हाथ फेरता था। अब अब्बा तो खुदा के पास चले गए, लेकिन मेरी आदत यहीं छूट गई।‘ प्रोफेसर तारीकबी अपनी बात पूरी करके एक बार फिर हंसे।
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