‘मरजावां’ - फिल्म रिव्यू - हाय, मैं मर जावां…     Mayur Patel द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

‘मरजावां’ - फिल्म रिव्यू - हाय, मैं मर जावां…    

भारत में फिल्म शुरु होने से पहेले सिनेमा होल में ‘मुकेश’ के दर्शन अवश्य होते है. वो मुकेश जो सिगरेट पी पी कर केन्सर से मर गया था. उस एड में बताया जाता है की ‘बीडी, सिगरेट, तंबाकु स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.’ मैं चाहता हूं की भारत सरकार उस वैधानिक चेतावनी को बदलकर जनता को अब एसा संदेश दे की, ‘बीडी, सिगरेट, तंबाकु और मरजावां स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.’

शक तो मुजे पहेले से ही था, ट्रेलर देखकर ही लग रहा था की फिल्म बकवास होगी, लेकिन इतनी घटिया होगी, ये अंदाजा नहीं था. फिल्म की घीसीपीटी कहानी कुछ यूं है की…

अन्ना (नासर) मुंबई में एक टैंकर माफिया किंग है जो इसके अलावा भी कई सारे गलत धंधे करता है. सडक पर पडे मिले अनाथ रघु (सिद्धार्थ मल्होत्रा) को अन्ना पाल-पोस कर अपने बेटे की तरहा बडा करता है. बडा होकर रघु अन्ना का राइट हेन्ड बन जाता है. अन्ना का सगा बेटा है विष्णु (रितेश देशमुख) जो बौना होता है और रघु से नफरत करता है. गांववाले, सोरी बस्तीवाले रघु को चाहते है क्योंकी अपना हीरो अमीरों को लूंटकर गरीबों में बांटता रहता है. बार डांसर आरजू (रकुल प्रीत सिंह) को रघु से प्यार है लेकिन रघु को प्यार होता है एक गूंगी लड़की जोया (तारा सुतारिया) से. प्यार बनके आई जोया, रघु की बरबादी का कारण बन जाती है और फिर…

कहानी में और कहानी के फिल्मांकन में कुछ भी एसा नहीं है जो आपने पहेले न देखा हो. हर एक सीन, हर एक सिच्युएशन, हर एक एक्शन मूव, हर एक केमेरा एन्गल हम सब हजारों बार देख चुके है. 70-80 के दशक में जैसी फिल्में बनती थीं वैसी ‘लार्जर धेन लाइफ’ फिल्म बनाने की कोशिश की गई है, लेकिन निर्देशक मिलाप जवेरी एक मनोरंजक फिल्म बनाने में पूरी तरह से नाकामियाब साबित हुए है. इससे पहेले ‘मस्तीजादे’ जैसी थर्ड क्लास और ‘सत्यमेव जयते’ जैसी एवरेज फिल्में बनानेवाले मिलाप ने ही ईस महान ‘मरजावां’ की कहानी भी लिखी है, जिसमें कोई दम नहीं है. न सिर्फ कहानी और निर्देशन बलकी फिल्म का एडिटिंग, डायलोग्स, अभिनय, एक्शन सभी कुछ घटिया है. निर्देशक ने ‘फिल्म डिरेक्शन’ नाम की कला को घटियापन की अलग ही उंचाई दी है ‘मरजावां’ में.

70-80 के दशक की फिल्मों के चोंचलों से ‘मरजावां’ भरी पडी है. फिल्म के डायलोग्स में बेतूकी शायरीओं की भरमार है. एसे डायलोग्स पर पुराने जमाने में सीटीयां-तालीयां पडती थीं, इस फिल्म के डायलोग्स सुनकर बाल नोंचने का मन करता है. कई संवाद तो इतने पकाउ और चीप है की, पूछो मत. फिल्म को हिट बनाने के चक्कर में कई सारे हथकंडे साउथ की फिल्मों में से भी उठाए गए है, जैसे की एक्शन सीन्स. वही एक जैसी मारधाड, वही बेकार की बंदूकबाजी. फिल्म में इमोशन का बधार करने की कोशिश भी की गई है, पर जब हीरो-हीरोइन के बीच कोई केमेस्ट्री ही नहीं है तो भला उनका प्यार दर्शकों के दिल को कैसे छु पाएगा..? न किसी की मौत दर्शक के दिल को दुखाती है, न किसी का पारिवारिक दुःख. और मजहबी-मेलोड्रामा का जो अत्याचार दर्शक पे किया गया है उसके तो क्या कहेने..! हिन्दु-मुस्लिम भाईचारे का ओवरडोज इतना ज्यादा है की दर्शक पक पक के पिलपिला हो जाए. लंबे समय के बाद एक एसी फिल्म आई है जिसके पोस्टर फाडने का दिल किया. कई बाद इस फालतू फोर्म्युला फिल्म के बीच थियेटर छोड के भाग जाने का मन हुआ. सारा क्रेडिट जाता है निर्देशक-द-ग्रेट मिलाप जी को.

सिद्धार्थ मलहोत्रा एक एसा हीरो है (अब अभिनेता या कलाकार तो उस कतई नहीं कह सकते ना..!) जिसे अभिनय की बारीकीओं से कोई लेनादेना नहीं है. दो एक्स्प्रेशन— वो भी मुश्किल से— देकर वो अपना गुजारा कर लेता है. ‘मरजावां’ में भी उसने जितनी हो सके उतनी एवरेज एक्टिंग की है. तारा सुतरिया अपनी पहेली फिल्म ‘स्टुडन्ट ऑफ द यर’ में लगीं थीं उतनी ही खूबसूरत लगीं, लेकिन अगर उनके अभिनय की बात करें तो वो भी सिद्धार्थ को बराबर की टक्कर देतीं है. ये तय करना मुश्किल है की दोनों में से किसने ज्यादा घटिया काम किया है. रकुल प्रित सिंह इस फिल्म में क्या कर रहीं थीं ये मुजे अभी तक समज में नहीं आया. ‘दे दे प्यार दे’ देखने के बाद उनसे काफी उम्मीदें थीं, लेकिन अफसोस… बार गर्ल की भूमिका में वो कोई भी जोहर नहीं दिखा पाईं. रितेश देशमुख जैसे अच्छे कलाकार ने भी बिलकुल ही फ्लॅट एक्टिंग की है. वो जब भी स्क्रिन पर आते है, बेकग्राउन्ड म्युजिक एसा बजता है जैसे कोई हैवान को दिखा रहे हो. अच्छे गेटअप के बावजूद रितेश का पात्र कोई खौफ पैदा नहीं कर पाता. अब तीन फीट के बौने से कौन डरेगा, भाई..? ‘प्यार दो…’ गाने में नोरा फतेही का डान्स बहेतरिन लगा. माफिआ किंग के रोल में नासर ठीक लगे. पुलिस अफसर बने रवि किशन से भी वही सवाल पूछने का मन किया जो रकुल से पूछना था— ‘आप इस फिल्म में कर क्या रहे हो?’

क्या हिन्दी फिल्मों में संगीत की दशा इतनी खराब हो चुकी है की फिल्म में एक नहीं तीन-तीन गानें रिमिक्स-रिमेक करना पडे..? ‘मरजावां’ में तीन पुराने गानों (‘जांबाज’ से ‘प्यार दो, प्यार लो…’; ‘दयावान’ से ‘हैया हो हैया…’ और नुसरत फतेह अली सा’ब का गाना ‘कितना सोणा तुजे…’) को अच्छे से रिमास्टर किया गया है. फिल्म का ओरिजनल गाना ‘थोडी जगह…’ ठीकठाक बन पडा है.

घटियापन की सारी हदें पार करती ईस ‘मरजावां’ को मैं दूंगा 5 में से केवल 1 स्टार. ‘मर’-जाना हो तो ही इस ‘मरजावां’ को देखने जाना. मैं तो मरते मरते बचा हूं; क्रिपिया आप रिस्क ना लें.