फिल्म इन्डस्ट्री में कहा जाता है की ‘कोमेडी इज अ सिरियस बिजनेस…’ ये बात सुनने में तो अच्छी लगती है, लेकिन है बिलकुल ही गलत. क्योंकी अगर कोमेडी फिल्म बनाना एक सिरियस काम होता तो ‘पागलपंती’ जैसा हथौडा दर्शकों के सर पर नहीं पडता. इस हफ्ते रिलिज हुई इस बाहियात फिल्म की वाहियात कहानी कुछ यूं है की…
राज किशोर (जॉन अब्राहम) एक बहोत ही बडी पनौती है. जहां भी जाता है नुकशान ही करवाता है. जंकी (अर्शद वारसी) और चंदु (पुलकित सम्राट) उसके दोस्त है और पैसा कमाने के चक्कर में तीनो दोस्त दो दुश्मन डॉन गैंग से भीड जाते है. फिर क्या होता है..? कबाडा और कचरा होता है, और क्या होगा..?
स्क्रिप्ट के नाम पर फिल्म में कुछ भी नहीं है. अगर किसी पागलखाने के पागल भी स्क्रिप्ट लिखते तो इस फिल्म में जो कुडाकचरा लिखा गया है उससे बहेतर लिखते. यार, कौन है ये लोग जो ऐसी फिल्में लिखते है..? कहां से आते है उनको इतने बेतूके आइडिया..? ये सब कचरा लिखने के लिए उन्हें पैसे भी मिलते है..? रियली..? ना तो किसी सीन की सिच्युएशन फन पेदा करती है और ना ही कोई डायलोग दर्शकों को गुदगुदाता है. बेवकूफी का जो सिलसिला पहेले सीन से शुरु होता है, वो आखरी सीन तक खतम नहीं होता. कलाकार कभी यहां तो कभी वहां, जहां मन चाहे वहां पहुंच जाते है. वो हिन्दी में बातें करते है और उसे गोरे-काले सभी अंग्रेज बडी ही आसानी से समज जाते है. वाह..! अपनी हिन्दी तो अंतरराष्ट्रीय लेंग्वेज बन गई, और किसीने मुजे बताया तक नहीं..! फिल्म में मारधाड भी है और म्युजिक भी, लेकिन मजाल है की एक भी चीज दशकों का मनोरंजन करें..! पूरी फिल्म में कलाकारों से कोमेडी नहीं हुई तो क्लायमेक्स में दो शेर को लाया गया. अफसोस के शेर ने भी कोई कोमेडी नहीं की. एक जगह देशभक्ति का डॉज भी दिया गया है जो इतना जबरदस्ती ठूंसा गया है की बिलकुल ही पकाउ लगता है. तीन हीरो के बीच दो हिरोइन हो तो मामला जमेगा कैसे? बस यही सोच कर तीसरी हिरोइन को इस पागलखाने में ठूंसा गया है. और उसके लिए बेवजह ही भूत का ट्रेक थोपा गया है, जिसमें भी न तो कोई को-मे-डी है, न कोई लोजिक. माना के कमर्शियल हिन्दी फिल्मों में लोजिक ढूंढने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, लेकिन इस ‘पागलपंती’ ने तो दर्शकों को बेवकूफ बनाने की सारी हदें पार कर दी है. ‘दीवानगी’ और ‘सिंघ इज किंग’ जैसी अच्छी फिल्में बनानेवाले निर्देशक अनीस बजमी का ‘पागलपंती’ का निर्देशन बहोत ही खराब है. इतना खराब की उनकी अगली फिल्म देखने से डर लगे.
कहेने को तो ‘पागलपंती’ एक मल्टिस्टारर फिल्म है, लेकिन सही मायने में देखे तो इस फिल्म के सभी कलाकारों में एक कोम्पिटिशन सी लगी दिखती है. कोम्पिटिशन इस बात की की कौन सबसे घटिया एक्टिंग करेगा..? फिल्म में क्रिती खरबंदा के पात्र को बेवकूफ दिखाया गया है, लेकिन उनके अलावा जो बेवकूफ नहीं है उन पात्रों ने भी जमकर बेवकूफी की है, और सिर्फ बेवकूफी ही की है. एक्टिंग में सबसे मुश्किल होता है कोमेडी करना. और ये बात भला जॉन अब्राहम से ज्यादा अच्छी तरह से कौन जानता होगा..! सिरियस रोल में जॉन थोडी-बहोत अच्छी एक्टिंग कर लेते है, लेकिन कोमेडी..? ना, बाबा ना… ये आपका काम नहीं है, जॉनबाबू. ‘पागलपंती’ में जितनी खराब उनकी एक्टिंग है, उतनी ही खराब उनकी डान्सिंग भी है. पुलकित सम्राट बस ठीकठाक ही लगे. तीनों हिरोइनों ने खूबसूरत दिखने के अलावा और कुछ खास नहीं किया. औरों को तो छोडो, अनिल कपूर और सौरभ शुक्ला जैसे मंजे हुए कलाकार भी यहां दर्शकों का खूब खून पीते है. एकमात्र अर्शद वारसी ही है जो कहीं कहीं हंसाने में कामियाब हुए है. वो भी अच्छे डायलोग की वजह से नहीं, बलकी उनकी कोमिक टाइमिंग की वजह से.
फिल्म का संगीत बहोत ही फालतू है. ‘प्यार किया तो डरना क्या’ फिल्म के गाने ‘तुम पर हम है अटके…’ को यहां रिमिक्स किया गया है. बिना किसी कारीगरी के. ‘चालबाज’ के गाने ‘तेरा बिमार मेरा दिल…’ की दो-चार लाइनें उठाकर एक गाने में पिरोया गया है. बहोत ही गंदे तरीके से. फिल्म के बाकी के गानों की बात ना ही करें तो बहेतर है. बकवास लिखावट, बेकार कम्पोजिशन.
अगर दिवाली पे रिलिज हुई ‘हाउसफूल 4’ घटिया मूवी थीं और पीछले हफ्ते आई ‘मरजावां’ महाघटिया थीं तो ‘पागलपंती’ उन दोनों की बाप है. उन दोनों फिल्मों ने मनोरंजन के नाम पर घटियापन की जो कसर बाकी छोडी थीं उसे ‘पागलपंती’ ने पूरा कर दिया है. पगला गए हो तो ही इस ‘पागलपंती’ को देखने जाना. इस असहनीय फिल्म को मैं दूंगा 5 में से... अमा छोडों यार. इस कचरे को अपनी जिंदगी के ढाई घंटे दिए उतना काफी नहीं है जो अब स्टार भी दूं..!