Aakhar Chaurasi - 39 - Last Part books and stories free download online pdf in Hindi

आखर चौरासी - 39 - Last Part

आखर चौरासी

ऊन्चालिस

हरनाम सिंह ने पत्र खोल कर पढ़ना शुरु किया।

आदरणीय पापा जी, बी’जी

पैरीं पैना !

भला कौन जानता था कि कभी मुझे इस तरह भी आपको पत्र लिखना पड़ेगा ? ...और इस तरह आप लोगों को परेशानियों में छोड़, मुझे यूँ चल देना होगा या यूँ कहें कि आप लोगों की कुछ और परेशानियों की वजह मुझे बनना पड़ेगा।

मगर क्या करुँ ? पिछले दिनों की जिन घटनाओं ने हमें बुरी तरह हिला कर रख दिया है, चाह कर भी मैं उनसे ध्यान हटा नहीं पा रहा हूँ। इन दिनों हर समय ही तनाव में जीते हुए ऐसा लगने लगा था कि मैं पागल हो जाऊँगा। शायद यह जान कर आपको बुरा लगे लेकिन अक्सर मैं अपना जीवन समाप्त करने जैसी मूर्खतापूर्ण बातें तक सोच जाया करता था। हालाँकि मैं अच्छी तरह जानता था कि आत्महत्या करना मेरे लिए मुश्किल तो है, यह गलत भी है !

मुझमें सामाजिक अन्याय के खिलाफ नफरत कमोबेश तो शुरु से ही थी। मगर आस-पास घटने वाली छोटी-छोटी चीजों के खिलाफ न तो मैं कुछ करने की स्थिति में था और न ही वे चीजें इतना ज्यादा बेचैन ही कर रही थीं कि उन्हीं कारणों से मैं अपने पूरे भविष्य को ही तय कर दूँ, अपने जीवन का पूरा रास्ता ही बदल डालूँ। हालाँकि मुझमें आये इस बदलाव का एक पूरा सिलसिला है जो बीच में अचानक तेज हो गया और उसका नतीजा अब आप लोगों को भी भुगतना पड़ रहा है।

नवंबर चौरासी के साथ ही विगत की कई घटनाएं हैं, देश और समाज में तेजी से बदलती हुई स्थितियाँ हैं, जिन्होंने मेरे पूरे व्यक्तित्व, व्यवहार और सोच को भयानक ढंग से उथल-पुथल दिया है। इतना अधिक कि मेरे लिए इस समाज में एक मिनट भी चैन से गुजार पाना असम्भव लगने लगा था। ज़रा-सा ध्यान से देखने पर पता चलता है कि किस तरह मुट्ठी भर बदमाशों ने सत्ता की कुर्सी दबोच कर, आम आदमी का जीवन कठिन कर रखा है। कितनी आसानी से उन्होंने एक हंसते-खेलते राज्य पंजाब को ...देश के सबसे ज्यादा जिन्दादिल राज्य पंजाब को, आग की लपटों में झोंक दिया है। अब देख लीजिये उसके कैसे-कैसे परिणाम निकल रहे हैं। जिन सिक्खों को सबसे ज्यादा बहादुर, देशभक्त और जिन्दादिल जाना जाता था, उन्हें एक पूरी साजिश के तहत गद्दार और आतंकवादी करार दे कर पूरे देश में उनके लिए चैन की सांस लेना भी मुश्किल का दिया गया है।

जरा सोचिये तो उन बदमाशों के अगले कदम क्या होंगे ? आज जिन्होंने सभी सिक्खों को गद्दार और आतंकवादी घोषित कर दिया है, कल वही लोग ईसाई, बौद्ध, पारसी, मणिपुरी, नागा ...आदि के साथ भी ऐसा ही करेंगे। ऐसी साजिशों के परिणाम क्या होते हैं यह किसी से छुपा नहीं है। मरना तो आम आदमी को ही पड़ता है न ! आम आदमी कब तक यूँ ही मरता रहेगा ?

ऐसे ही ढेर सारे सवाल मुझे हर पल मथते रहते थे। क्यों सारे अच्छे लोग सर उठा कर नहीं जी पाते ? क्यों देखते ही देखते हँसते-खेलते घर और बस्तियाँ उजड़ जाते हैं ? क्या आजादी के परवानों ने इसी आजादी और ऐसे ही देश की कल्पना की थी ? क्या यह उसी आजादी की विरासत है, जिसके लिए शहीदों ने हँसते-हँसते फाँसी के फंदों को गले लगाया था ? तब देश गुलाम था मगर आज तो आजाद है। आजादी के जो भी गुण होते हैं, क्या वे सभी हमारे देश में विद्यमान हैं ? क्या सब कुछ ऐसा ही चलता रहेगा ? क्या इन सब का कोई हल नहीं है ?

हिन्दू-सिक्ख के बीच तो नफरत कभी अंग्रेज भी नहीं फैला सके थे। ये दोनों कौमें एक ही पेड़ की दो शाखाएं हैं। फिर आज इनके बीच नफरत किसने फैलाई और किस उद्देश्य से ? केवल कुर्सी के लिए ही न !

यह सच है कि समाज के जीवन में कई बुरे पल ऐसे होते हैं जो बार-बार नहीं घटते। लेकिन यह भी सच है कि भले ही वे एक बार घटे होते हैं, लेकिन हमारी स्मृतियों में वे पल नासूर बन के हमेशा रिसते रहते हैं। उनके दाग तो न चाहने पर भी हमेशा टीस पैदा करते रहते हैं। दरअसल दो सम्प्रदायों के झगड़े, चाहे वे लंबे समय से बीच-बीच में होते रहे हों और आज स्थायी बन चुके हों, या सिर्फ एक बार घटित हो कर रह गये हों, मनुष्यता ऐसे पलों से सदा ही आहत होती है। ....ऐसे अवांक्षित पलों से समाज के सामने हमेशा ही रुकावटें पैदा होती हैं। सन् सैंतालिस के बाद से अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए कई लोगों ने हिन्दू-मुस्लिम दंगों का लाभ उठाया है और उठा रहे हैं। कल को कोई नवम्बर चौरासी के दंगों का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए नहीं करेगा क्या ?

दो सम्प्रदायों के बीच के झगड़े एक बार घटित हुए हों या स्थायी रुप से होते रहे हों, पूरे समाज और देश के लिए घृणित लम्हे हैं। समाज और देश को ऐसे लम्हों से पूर्ण मुक्ति की जरुरत है। मनुष्यता को दरअसल ऐसे किसी भी लम्हे की दरकार नहीं है, क्योंकि वे हम पर थोपे हुए लम्हे हैं।

क्या कभी शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरु, खुदीराम बोस और उन अनेक शहीदों में से किसी ने भी सोचा था कि वे ऐसे भावी देश के लिए फाँसी के फँदे को चूम रहे हैं ?

मुझे लगता है समाज, देश और काल से कट कर कोई भी शान्ति और समानता से जीवन व्यतीत नहीं कर सकता है।

सामान्यतः आम आदमी दूसरों के संकट के समय निष्क्रिय ही रहना चाहता है। मगर वैसा करने से बुराई तो कम नहीं होती, वह तो बढ़ती ही चली जाती है। बाद में बढ़ते हुए जब उस बुराई की आँच हमारे अपने दामन तक आ पहुँचती है, तब हमें पता चलता है कि उस संकट से वास्ता न रखने का यह अर्थ कत्तई नहीं है कि उसके दुष्प्रभावों से हम बच जाएँगे।

....और तब हम उन दुष्प्रभावों से बचने की कामना में चाहते हैं कि भगत सिंह फिर से पैदा हो। परन्तु हमारी वैसी चाहत भी किस काम की ? क्योंकि उस चाहत के साथ ही हम यह प्रार्थना भी करते हैं कि भगत सिंह हमारे अपने घर में नहीं किसी और के घर में पैदा हो। अपना घर बचाये रखने की वह तीव्र लालसा तब भी हमारे भीतर छटपटाती रहती है।

मैं यह नहीं कह रहा कि भगत सिंह बनने जा रहा हूँ। शहीदे आजम भगत सिंह तो दूर, उनकी छाया का भी स्पर्श करना मेरे जैसों के लिए असम्भव है। हाँ यह बात और है कि मेरे केशों को लेकर आज की तारीख में उनसे एक साम्य अपने आप ही हो गया है । लेकिन उसमें भी मेरा कोई योगदान नहीं है।

कई बार मन को यह प्रश्न बुरी तरह मथता है कि इस प्रजातांत्रिक देश में प्रजा की, आम आदमी की क्यों नहीं चल रही है ? आम आदमी अर्थात् देश का बहुमत तो इन बुराइयों से बच कर रहना चाहता हैं फिर ये सब उसकी इच्छा के विरुद्ध क्यों हो जाता है ? थोड़े से ताकतवर लोग कैसे आम आदमी को अपनी उंगलियों पर नचाते रहते हैं ?

पापा जी, बहुत सम्भव है कल को कोई और पार्टी इन हिन्दू-सिक्ख दंगों का जिक्र अपनी स्वार्थपूर्ति में करे, किन्तु वह भी देश और समाज के लिए एक गलत लम्हा होगा। चाहे सन् सैंतालिस हो या नवंबर चौरासी में सिक्ख समुदाय की पीड़ा अन्ततः वह समूची मनुष्यता की पीड़ा है। इसलिए जरुरी है कि सिक्ख समुदाय की पीड़ा को मनुष्यता के सवालों से ही जोड़ कर जाना-पहचाना जाए।

सम्भवतः अपनी समस्याओं के हल के लिए हर बार हमने बाहर की ओर देखा है, इसीलिए निराश हुए हैं। जबकि मेरा यह दृढ़ विश्वास है, किसी भी तरह के खतरे का प्रतिरोध स्वयं उसी से उपजता है। इस प्रकार मेरा मानना है कि हमारी वर्तमान कठिनाइयों का हल भी इन्हीं कठिनाइयों में ही नीहित है।

क्या हमने कभी इस बात पर विचार किया है कि अपने देश, समाज और काल से हम कितना परिचित हैं ? आज इन सब से अनजान होने की विडंबना मुझे बुरी तरह कचोट रही है...। सर्वप्रथम मैं इन सबसे परिचित होना चाहता हूँ। पंजाब के बाहर सिक्खों के साथ क्या-क्या हुआ, वह सब तो देख सुन लिया। यहाँ जो दर्द मिला उसे पंजाब के गैर-सिक्खों के दर्द के साथ जोड़ कर देखना चाहता हूँ। घूम-घूम कर पूरा पंजाब देखना चाहता हूँ। वहां के शहर, गाँव, कस्बे हर जगह जहाँ गैर-सिक्ख रह रहे हैं। उन सबके साथ वहाँ कैसा बर्ताव हो रहा है ? सारा कुछ विस्तार से जानना, समझना चाहता हूँ।

फिर वहाँ से निकल कर पूरा देश देखूँगा। हमारे लिए अपने देश, अपने समाज, अपने काल की पहचान आज सबसे बड़ी जरुरत है क्योंकि आम आदमी के प्रतिरोध की शक्ति यहीं कहीं हमारे अपने ही पास है। बाहर से आयातित शक्तियाँ यहाँ हमेशा ही परास्त होती रहेंगी। अन्तिम विजय तो अपनी जड़ों और अपने तरीकों से उत्पन्न हमारी अपनी शक्ति की ही होगी...।

पापाजी, आप यह न समझें कि सब को यूँ ही छोड़ कर मैं कायरों की तरह पलायन कर रहा हूँ। दरअसल यह उस शेर की तरह दो कदम पीछे हटना है, जो अपने शिकार पर अंतिम छलाँग लगाने से पहले हटता है। आपसे ही कई बार सुनी वो पंक्तियाँ हरदम मेरे भीतर गूँजती रहती हैं-

‘सूरा सो पहिचानिये, जो लड़े दीन के हेत !

पुर्जा-पुर्जा कट मरे, कबहूँ न छाडे खेत !!’

जब आप मेरा यह पत्र पढ़ रहे होंगे, मैं अपने हॉस्टल से सैंकड़ों मील दूर जा चुका होऊँगा। अब मुझे आज्ञा दीजिए।

आप दोनों को पैरीं पैना !

आपका पुत्र,

- गुरनाम

पत्र समाप्त होने तक हरनाम सिंह की आवाज़ भर्रा गई और सुरजीत कौर की आँखों से निरंतर आँसू बहने लग गए थे।

***

...और उधर उनसे बहुत दूर, गुरनाम अपनी नई राह पर बढ़ा जा रहा था। उस राह पर जहाँ जीवन की सच्ची पाठशाला उसे बुला रही थी ...। जिधर उसके साथी भी थे। उधर जाते हुये कुछ पुराने साथी छूट रहे थे तो कुछ नये साथी उसके साथ जुड़ते भी जा रहे थे।

समाप्त

-कमल,

Kamal8tata@gmail.com

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