Aakhar Chaurasi - 38 books and stories free download online pdf in Hindi

आखर चौरासी - 38

आखर चौरासी

अड़तीस

इम्तिहान भले ही किसी भी स्तर का हो, उसका असर विद्यार्थियों पर किसी भूत सा ही होता है। यह भी सच है कि उसका असर वहाँ भी एका-एक नहीं धीरे-धीरे पूरे कैम्पस पर उतरता था। सबसे पहले कॉलेज कैंटीन में ऊंची आवाजों वाले जमावड़े मधुमक्खियों की भिनभिनाहट वाले झुंडों में कायांतरित हो जाते हैं, जिनमे कुछ ऐसे वाक्य सुनायी देते हैं –

“तुम्हारे पास नोट्स हैं ?”

“कुछ हैं सब नहीं ! मुझे भी मुश्किल होगी!”

“चलो फिर भी तुम्हारी कुछ तैयारी तो है ! मेरा तो बुरा हाल है ...”

“कहीं से पक्का गेस पेपर मिल जाये तो बात बने.....

“अब तो गेस पेपर का ही सहारा है ....

“हे ईश्वर अब तुम्‍हीं बचाना ....”

ऐसे मजेदार वाक्य केवल वहीं सुनने को मिलते हैं जिनकी तैयारी न हुई हो। अच्छी तैयारी वाले विद्यार्थियों की बात-चीत तो परीक्षा जल्द शुरु हो जाए और सभी प्रश्नों के उत्तर चार घंटों के भीतर लिखने की गति बनाये रखने, इसी पर केंद्रित होती है।

उसके बाद कॉलेज के आस-पास की वे सड़कें जो देर रात गए तक विद्यार्थियों की चहल-पहल से जगमगाती रहती थीं, शामों को जल्द सूनी होने लगती हैं। अगले चरण में विद्यार्थियों के बेवजह ही आपस में ज़ोर-ज़ोर से बहसें करते, हँसते-खिलखिलाते चेहरे एक दम से गंभीर दिखने लगते हैं। रात देर तक हॉस्टल के टी.वी. से चिपके रहने वाले वे विद्यार्थी भी, जिनका अपनी पढ़ाई से साल भर कोई ख़ास रिश्ता न रहा हो, अब स्टडी पीरियड खत्म होने के बाद भी अपने ही कमरे में किताबों में सर गड़ाये नजर आने लगते हैं। हर बीतते हुए दिन के साथ इम्तिहान की तारीख पास खिसकती आ रही थी। और फिर वह दिन भी आ पहुँचा, जिस दिन सभी विद्यार्थियों की परीक्षा का पहला पेपर था।

जाड़ों की ख़ुशनुमा धूप वाली उस दोपहर को कविता की नजरें बेसब्री से एग्ज़ाम के लिए गुड-लक विश करने को गुरनाम को ढूंढ रहीं थीं । पेपर शुरु होने तक वह घूम-घूम कर हर तरफ देख चुकी थी। कहाँ तो उसने सोचा था कि गुरनाम ही उसे ढूँढ कर एग्ज़ाम के लिए गुड-लक विश करेगा और यहाँ बाबू साहेब खुद ही गायब हैं। गुरनाम को वहां न पा कर कविता काफी हैरान थी। क्या गुरनाम की तैयारी ठीक से नहीं हुई है ? ....क्या वह इस साल ड्रॉप करेगा ? ऐसे तो उसका एक साल मारा जाएगा ! ...लेकिन गुरनाम ने तो उससे पहले कभी एग्जाम ड्रॉप करने का बारे में कभी नहीं कहा था। उसके मन में अजीब-अजीब से ख्याल आ रहे थे। मगर गुरनाम को न कहीं नजर आना था, न ही उसे वह कहीं नजर ही आया। थक-हार कर वह अपनी सीट पर जा बैठी। कहीं ऐसा तो नहीं की गुरनाम की सीट कहीं दूसरे हॉल में पड़ी हो ? ऐसा सोच कर वह कई बार दूसरे हॉलों का भी चक्कर लगा आई थी। लेकिन उसे वहाँ भी निराशा ही हाथ लगी थी।

पेपर पूरा करने के दौरान भी वह बीच-बीच में नजरें उठा कर खिड़की से बाहर कॉरीडोर में दूर तक, जहाँ तक उसकी नजर जाती बेवजह ही गुरनाम को ढूंढती रही। आखिरकार दोपहर बाद एक बजे से शुरू हुआ पेपर शाम पाँच बजे समाप्त हो गया। गुरनाम गायब ही रहा, वह कहीं ना था।

पेपर के बाद बाहर निकल कर कॉलेज के मेन गेट तक आने के बाद उसने फिर से गुरनाम को ढूंढने की कोशिश की और फिर से नाकाम हुई। उसने रुक कर सारे परीक्षार्थियों के बाहर निकलने तक प्रतीक्षा की लेकिन फिर भी गुरनाम को ढूँढ लेने की उसकी इच्छा पूरी न हुई। जब उसकी छटपटाहट अपने चरम पर पहुँच गई। तब वह हॉस्टल जा कर गुरनाम को देखना चाहती थी। लेकिन उधर जाड़े की जल्द उतर आने वाली शाम गहराने लगी थी।

...ख़ैर अगला पेपर तीन दिन बाद होने वाला है। वह कल सुबह ही गुरनाम से मिलने हॉस्टल जाएगी, ऐसा सोचते हुए थक-हार कर उसे घर लौटना पड़ा।

परन्तु उसे गुरनाम की खबर के लिए कल तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। अभी वह फ्रेश हो कर घर घर में बैठी ही थी कि उसकी छोटी बहन ने उसे एक पत्र थमा दिया। वह पत्र गुरनाम का ही था। गुरनाम का पत्र वह भी इस तरह छोटी बहन के हाथों, पत्र लेकर तेजी से अपने कमरे में घुसते हुए, उसने दरवाजा बंद कर लिया। जल्दी-जल्दी में लिखा गया, परन्तु गुरनाम की सुन्दर आड़ी-तिरछी लिखावट वाला वह पत्र बड़ा ही संक्षिप्त था-

मेरी कविता,

यादें-उस हर लम्हे की जिसमें हमने एक-दूसरे की खुशियाँ और ग़म साझा किये हैं।

मुझे लग रहा है, शायद मैं जाने से पहले तुमसे न मिल सकूँगा। इसलिए यह खत लिख रहा हूँ। तुम्हें बताये बिना जाना तो और भी कठिन होता।

दरअसल पिछले कुछ सप्ताह मैंने बहुत तनाव में बिताए हैं। शायद उन्हीं दिनों मैंने स्वयं में, मानसिक धरातल पर एक कायांतरण महसूस किया है। मैं नहीं जानता कि मेरे जीवन में आये इन बदलावों को तुम किस तरह देखोगी ? मगर अब भी जब मुझे उन दिनों की याद आती है, जब मेरे साथ वे परिवर्तन हो रहे थे, तब मैं खुद नहीं समझ पाता कि कैसे इतनी सारी चीजें एक के बाद एक, लगातार घटित होती चली गईं। ...डराने वाली, दहलाने वाली, बेचैन करने वाली, अत्महत्या के लिए उकसाने वाली, लड़ने की ताकत देने वाली.....। बिल्कुल किसी सपने जैसा लगता है। इसे यूँ कहना चाहूँगा कि इन्हीं दिनों मैंने उस सच से साक्षात्कार किया है, पहले जिसके अस्तित्व की भी मुझे खबर न थी। अब तो सोच कर भी डर लगता है कि अगर वे कुछ सप्ताह मेरे जीवन में न आये होते तो क्या होता ? मुझे समझने की कोशिश करना। ऐसा नहीं है कि मैं किसी विचित्र चीज का दावा करने जा रहा हूँ। मगर हाँ, जीवन के प्रति मेरी दृष्टि जरुर बदल गई है।

....मेरी इन बातों से तुम ये न समझना कि हम दोनों ने साथ-साथ जो सपने देखे थे, वे सब बेमानी थे। वे सब अब भी मेरे लिए उतने ही सजीव हैं और वही अर्थ रखते हैं ! लेकिन केवल उन्हीं सपनों में बन्द हो जाना तो अत्मकेंद्रित हो जाना हो जाएगा न ! ...एक स्वार्थी जीवन-सा, जबकि हमारे अपने जीवन से इतर कई चीजें हैं, जो हमें पुकारती रहती हैं। जरा-सा दृष्टि फैलाएँ तो पता चलता है कि उन्हें हमसे ज्यादा हमारी जरुरत है। अभी कह नहीं सकता कि क्या करुँगा या क्या कर पाऊँगा ....? मगर कुछ नहीं कर पाऊँगा, इस विचार मात्र से चुप हो कर बैठा भी तो नहीं जा सकता !

सच कहूँ तो अभी मुझे एक रास्ता नजर आ रहा है और दूर कहीं उसके छोर पर एक झीना-सा प्रकाश। बस, उसी प्रकाश की तलाश में निकल रहा हूँ।

...शायद मैं तुम्हें भविष्य में कभी खत न लिख सकूँ। मगर तुम्हारी स्मृति मुझे सदैव अपने पथ पर आगे बढ़ने को प्रेरित करती रहेगी...।

अब इजाजत दो, आज मैं तुम्हें अलविदा कहता हूँ। जानता हूँ, ये अलविदा मेरी तरह तुम्हारे लिए भी काफी पीड़ादायक है। लेकिन जिनकी लड़ाई लड़ने जा रहा हूँ, उनकी पीड़ाओं के सामने हमारी पीड़ा बिल्कुल गौण है ...पर्वत के सामने राई सी गौण।

मुझे विश्वास है, हमारे प्यार की शक्ति मुझे मंजिल तक जरुर पहुँचाएगी।

हमेशा हमेशा के लिए सिर्फ तुम्हारा,

गुरनाम !

पत्र का एक-एक अक्षर, एक-एक वाक्य पिघलता लावा बन कर कविता की आँखों के रास्ते उसके मस्तिष्क में प्रवेश कर जोरों से बहने लगा। आँखों से निरंतर बहते आँसुओं ने उसकी दृष्टि धुंधली कर दी थी। उस धुंधलके में पत्र का हर अक्षर अपना आकार खोता जा रहा था।

‘‘...हमेशा की तरह काश, तुमने अपने इस निर्णय में भी मुझे साझा बना लिया होता !’’ वह भरे गले से बुदबुदाई और एक झटके से बिस्तर पर गिर कर फूट-फूट कर रो पड़ी।

***

कविता को मिले उस पत्र के कुछ दिनों बाद डाकिया एक पत्र ले कर हरनाम सिंह के पास पहुँचा था। वे उस समय पत्नी के साथ बैठे धूप सेंक रहे थे। उन्होंने डाकिये से पत्र ले कर खोलना शुरु किया। सुरजीत कौर के उत्सुक नजरों की उत्सुकता वे ‘‘गुरनाम की चिट्ठी है’’ बोल कर पहले ही शान्त कर चुके थे।

डाकिये के आने से कुछ देर पहले वे दोनों गुरनाम की ही बातें कर रहे थे कि उसकी परीक्षा शुरु हो चुकी होगी, वह ठीक से खा-पी तो रहा होगा ...आदि ...आदि।

सुरजीत कौर ने कुर्सी पर जरा आगे को झुकते हुए पूछा, ‘‘क्या लिखा है बेटे ने ?’’

***

कमल

Kamal8tata@gmail.com

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