10 - दीवाली
आज सरला मुंह अंध्ंारे ही उठ बैठी थी । उसने पौ फअने तक तो आंगन की झाड़ू लगाकर हैण्डपम्प से पानी भी भर लिया था । पानी भरते-भरते उसका दम फूल गया था । चाहती थी थोड़ा बैठकर सुस्ता ले, मगर कैसे....। अभी तो उसे आंगन में गेरू डालकर लीपना है । चूने की आंगन की किनारों पर पुताई करनी है और आंगन सूख जाने पर सुंदर रंगोली बनानी है । और कुूछ तो है ही नहीं उसके पास सजाने-संवारने को । कलक्टर की तरफ से परिवार नियोजन के लिये अपना ऑपरेषन करवाने पर उसे छत्तीस गज का यह ज़मीन का टुकड़ा मिल गया है जिस पर आस-पास पहाड़ों से बीन-बीनकर पत्थरों को इकट्ठा कर उसने मुंहबोले भई से चारों दीवारें उठवा दीं थीं । बस छत रह गई थी सो काम चलाने के लिये छप्पर बनाकर डाल दिया था । अब कम से कम बच्चे चैन से तो सो पाते हैं। हां! पूरी बरसात ज़रूर परेषान होती है बेचारी । दूध की थैलियां, टूटे-फटे सीमेंट के कट्टों को हाथों से सिल-सिलकर ऊपर छपपर पर डाल देने से कुछ बरसात से राहत मिल जाती है।
उसने कमरे के बाहर खुली जगह में अपनी ज़मीन के चारों ओर बबूल काट-काटकर बाड़ लगा दी है । यही उसका आंगन है । इसी में एक ओर मिट्टी का चूल्हा, जहां वह खाना बनाती है और यहीं उसका पति रामावतार अपना रिक्षा लाकर खड़ा कर देता है । उसने बीचों-बीच खड़े रिक्षे को एक ओर करके कई दिनों बाहर चरने आई गाय-भैंसों के बीने गोबर को आंगन के बीचों-बीच इकट्ठा करके उसे भिगोने के लिये उसमें पानी डाल दिया । अब तक भी कोई नहीं उठा है । उसे रामावतार का ख्याल आ गया । अब तो उठ जाना चाहिये उसे । आज साल भर का त्यौहार है और अभी तक सोया पड़ा है । जल्दी निकल जाये तो चार पैसे ज़्यादा कमा लाये । बच्चों के लिये मिठाई, खील-बताषे, दीपक और लक्ष्मी-गणेष....। सभी तो लाना है । वह ये सोच कमरे की ओर बढ़ गई । हाथ से बनाया टीन का दरवाज़ा खड़का तो रामावतार ने करवट बदली । उसने उसे कंधे से झिंझोड़ा, “अरे उठो भी...। सूरज निकल आया, साल भर का त्यौहार है और बदसुगनी फैेलाकर पड़े हो । जल्दी निकलोगे तो चार पैसे ज़्यादा मिलेंगे । उठो, मैं चाय बना देती हूं ।”
रामावतार अपनी लाल आंखें फाड़कर चिल्लाया, “क्या सुबह-सुबह उधम मचा रख है ...? थोड़ा सोने दे, कैसी मीठी-मीठी नींद आ रही है....।”
“उठो....उठो.....। सोने का वक्त नहीं है । दीवाली है, जल्दी निकल जाओ मैं चाय बना देती हूं ।” कहकर वह कमरे से बाहर निकलकर आंगन में एक ओर बने चूल्हे पर चाय बनाने लगी । रामावतार लम्बी अंगड़ाई लेकर उठ बैठा और बाहर उसके पास आकर चूल्हे से बीड़ी सुलगाकर मुंह से लगा ली । एक ओर पड़े टीन के डिब्बे को पानी से भर कर शौच के लिये बाहर चला गया । सरला उसे जाते हुये देखती रही । कैसा आदमी मिला है उसे, जरा भी घर-गृहस्थी की परवाह नहीं.......। हर काम के लिये धक्का मारना पड़ता है । ज़्यादा कुछ कहो तो गालियां और मार खानी पड़ती है उसे । आज जो कुछ भी उसके पास है वह उसने खुद ने अपनी मेहनत से बनाया है । रामावतार का रिक्षा, यह ज़मीन, यह झौपड़ी......सब उसके मेहनत का फल है । रामावतार ने उसे कुूछ दिया है तो हर साल एक बच्चा.....। शराब पीकर मार....और गालियां....। मगर जबसे उसने अपने अस्तित्व को पहचाना, तब से उसने रामावतार की मार, गालियों और शराब-जुये का डटकर विरोध करना शुरू कर दिया । अब वह किसी तरह भी अपने बच्चों का भविष्य बनाना चाहती है ।
बच्चों का ख्याल आते ही उसने कमरे में जाकर अपने चारों बच्चों को निहारा जो गरम बिस्तरों के अभाव में फटी गूदड़ी में एक-दूसरे से लिपटे बेसुध सो रहे थे । उसने सभी को एक-एक कर उठा दिया, “अरे बेटा उठो, आज तो बहुत काम है...। दीवाली है और तुम अभी तक सोये पड़े हो......?” कभी बचपन में उसे भी उसकी मां इसी प्रकार उठाती थी और वह उठा कर दीवाली के नाम से खुष हो जाती थी सो उसके बच्चे भी दीवाली का नाम सुनते ही उठ बैठे, “मां ! आज दीवाली है ? फिर तो बापू से पटाखेे, मिठाईयां दिलवाओगी न ?” उसकी सबसे बड़ी बारह साल की बेटी ने उससे पूछा । “हां...हां सब दिलवाऊंगी । पहले जल्दी निबटकर तैयार हो जाओ । मैं चाय बना देती हूं, तू जाकर शंकर भगवान वाले आले से अखबार के नीचे से दो रूपये ले जा और जाकर टोस्ट ले आ । आज मुझे बहुत काम है । साब् लोगों के घर भी आज जल्दी जाना है ।” कहकर अपने काम में लग गई ।
दिन भर बच्चे दीवाली मनाने, पटाके जलाने, मिठाईयां खाने और शाम को होने वाली पूजा के बारे में बतियाते रहे । कोई कहता- मैं फुलझड़ी जलाऊंगा, कोई मिठाई खाने की आस लिये आंगन में खेलता रहा और सरला गीले आंगन में फिसलकर गिर जाने की आषंका से उनकी चिंता करती रही । आंगन लीपकर सरला साब् लोगों के काम पर चली गई थी । रामावतार रिक्षा लेकर निकल गया था और बच्चे दूसरे बच्चों को टिकली और पटाखे जलाते देखते रहे थे ।
सरला को दिन भर काम में व्यस्त रहने से पता भी न चला कि कब सूरज पूरब से पष्चिम का लम्बा सफ़र तय कर उसके मकान के पिछवाड़े कुछ ही दूरी पर नींद में अलसाये से सोये पहाड़ के पीछे दुबक गया । आज त्यौहार होने के कारण सभी के घर में ज़्यादा काम था । झाड़ू-पोछा, बरतन और कपड़े करतेे-करते वह शाम तक थक कर चूर हो चुकी थी मगर त्यौहार के कारण हर घर से मिले पकवानों, मिठाईयों और पुराने कपड़ों ने उसकी थकान को जैसे कम कर दिया था । आखिरी घर के काम से निकलते-निकलते तो लोगों के घरों में रौषनी फैेल गई थी ।
उसने जैसे ही घर में कदम रखा सारे बच्चे मां....मां...करके उससे लिपट गये । उसने सभी को एक बार प्यार भरी दृष्टि से देखा फिर सिर पर हाथ फेरती हुई अन्दर ले गई । जो कुछ खने-पीने का सामान लाई थी वह उन्हें देने लगी । तभी सबसे छोटे बच्चे ने उसका पल्लू खींचते हुये तोतली ज़ुबान से कहा, “मां, बापू क्यों नहीं आये ? देखो सबके बापू आ गये ...। सब फटाके भी छुला रहे हैं । मां ! बापू हमारे लिये फटाके लायेंगे न......?” सरला बच्चे का भोला मुंह देखती रह गई । एक बार तो उसकी आत्मा अन्दर ही अन्दर उससे कह उठी- क्या पता, तेरे बाप का क्या भरोसा कहीं दीन-दुनिया छोड़ पीने बैठ गया तो....। मगर फिर संयत होकर उसके सिर पर हाथ फेरकर बोली, “ज़रूर लायेंगे, बस आते ही होंगे....।”
उधर रामावतार दिन भर लोगों का बोझ ढोता रहा । आज दीवाली है उसके बच्चे उसका इन्तज़ार कर रहे होंगे, हर पल यही सोच वह रिक्षे के पैडल पर पूरी ताकत लगा देता । आज उसने अच्छा खासा कमाया था । पूरे दिन जी-तोड़ मेहनत करने के बाद उसकी जेब में एक सौ का नोट आ चुका था । त्यौहार के कारण आज सवारियां भी भरपूर मिल गई थीं । लोग अपने-अपने परिवार के साथ बाज़ार-हाट करने जो निकले थे । मगर शायद ग़रीब को इस सृष्टि के समाप्त होने तक हमेषा ही अमीरों का बोझ ढोना है, सो ढोता रहा था रामावतार...।
उसने आखिरी सवारी छोड़कर चारों ओर नज़रें दौड़ाई । अब बाज़ार खाली-सा होने लगा था । लोग बाज़ार-हाट कर अपने-अपने घरों को लौटकर शायद पूजा की तैयारी में लग गये थे । सो वह भी मिठाई और पूजा का सामान लेने की सोच मिठाई लेने रूका ही था कि उसे किसी ने पीछे से पुकारा, “ओ राम....।” उसने पलटकर देखा । पीछे ही घीसू, रमेष और कालू खड़े थे । वह हल्का-सा मुस्कराया तभी घीसू ने उसका हाथ पकड़कर खींच लिया, “क्या यार, दीवाली के दिन और तू मिठाई की दुकान पर....? अरे आज तो एैष करने का दिन है । खूब कमाई की है । खूब पसीना बहाया है । आ जा, थोड़ी-थोड़ी हो जाये, सारी थकान उतर जायेगी ।” रातावतार समझ गया कि घीसू ने खूब पी रखी है । उसके मुंह से देषी शराब की बदबू आ रही थी । रामावतार ने घीसू की बात सुनकर भी अनसुनी करते हुये सौ का नोट हलवाई की ओर बढ़ा दिया और एक किलो अच्छी मिठाई तुलवा कर हाथ में थाम ली । मुड़कर घीसू से बोला “भाई मैं आज के दिन बिल्कुल नहीं पिऊंगा ।” कहते हुये अपने रिक्षे में मिठाई का डिब्ब्बा रखने लगा । तभी रमेष रिक्षे वाला उसके कंधे पर हाथ रखते हुये बोला, “भैये तुझसे पीनी नहीं है । आज तो हमारी तरफ से ......।” मगर रामावतार ने कोई जवाब नहीं दिया । आज उसने शराब ना पीने का दृढ़ निष्चय जो कर लिया था । हालांकि उनके मुंह से आती शराब की गंध ने उसे अंदर तक बेचैन कर दिया था । उसके हलक में शराब पीने के लिये कांटे से चुभने लगे थे । एक बार तो उसे ऐसा लगा कि उनके साथ बैठकर छक कर शराब पिये मगर तभी उसकी आंखों में उसके सबसे छोटे बेटे का चेहरा छलछला आया था जिसने उसे धंधे पर जाते वक्त अपनी तोतली ज़ुबान में कहा था, “बापू पक्का वादा कल के जाओ.....। इस बार तो जलूल मिथाई औल पटाखे लाओगे ना......?” फिर मानो उसके अन्दर किसी अज्ञात शक्ति ने जन्म ले लिया था और वह दृढ़ विष्वास के साथ उनसे बोल पड़ा, “यार मुझे नहीं पीनी दारू-वारू..। मुझे माफ़ करो ।” और वे तीनों उसे ताना मारने लगे, “अरे वाह ! नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली ।”
वह पुनः रिक्षा लेकर सुन्दर लक्ष्मी-गणेष, खील बताषों के लिये चल दिया । उसकी आंखों में पिछली दीवाली का एक-एक दृष्य घूमने लगा था । पिछली दीवाली को इन्हीं तीनों साथियों के कारण वह जुआ खेलते पुलिस के हाथों पकड़कर थाने में बन्द कर दिया गया था और बच्चे सारी रात उसके इन्तज़ार में बैठे-बैठे रोने लगे थे । जब वह बहुत रात तक घर नहीं पहुंचा था तो उसकी खोज में निकली उसकी पत्नी सरला उसे ढूंढते-ढंूढते थाने पहुंची थी और अपनी मेहनत से बनाई चांदी की पायज़ेब बेचकर उसने उसे जमानत पर छुड़ाया था । कितनी मनहूस थी वह रात....। वह थाने से छूटकर सरला और बच्चों से नज़र भी नहीं मिला पाया था । उसके रिक्षेे में स्कूल जाने वाले बच्चों को भी इस बात का पता पड़ जाने पर वह उनसे भी नज़र नहीं मिला पाया था । यहां तक कि वह अपनी ही नज़रों में गिर गया था । दीवाली की रात जिस पति को अपनी पत्नी के लिये कोई तोहफ़ा देना चाहिये था उसी पत्नी की मेहनत की कमाई को शराब और जुए की बदौलत पानी में बहा दिया था उसने....।
पुराना वाकया याद करते-करते वह एक बार कांप-सा गया । सुन्दर से लक्ष्मी-गणेष लेकर बाकी सामान भी लिया और बिना रूके पैडल मारने लगा । अब जल्दी से जल्दी वह घर पहुंचकर अपने बच्चों और बीवी को यह विष्वास दिलाना चाहता था कि आज उसने ना तो शराब पी है, और ना ही जुआ खेला है । और जब वह घर की गली में पहुंचा तो लोग अपने-अपने घरों के बाहर आतिषबाज़ी कर रहे थे । बच्चे हाथों में
फुलझड़ियां लिये खेल रहे थे । उसका सीना भी आज गर्व और स्वाभिमान से फूला हुआ था । आज वह बहुत खुष था । जाकर बच्चों को मिठाई और पटाखे देगा उनके साथ बैठकर पूजा भी करेगा, सो घर पहुंचते ही उसने देखा न केवल सरला बल्कि सभी बच्चे उसकी राह में गेट पर ही खड़े थे । उसके जाते ही बच्चे उससे लिपट गये और रिक्षे में रखे थैलों को टटोलने लगे । वह मुस्कराया । उसके मुस्कराते ही शायद सरला की जान में जान आई । उसने महसूस किया कि रामावतार ने आज पी नहीं है, सो खुष होकर उसके हाथ से थैला लेकर बड़े प्यार से बोली, “आज तुमने शराब नहीं पी, मैं बहुत खुष हूं । देखो बच्चे भी कैसे खुष हैं । आज मेरी असली दीवाली है......।” कहते हुये उसने रामावतार के कंधे पर बड़े प्यार से सिर टिका दिया और उसकी आंखेां से खुषी के मारे अविरल आंसू निकल कर रामावतार की कमीज़ में समा गये ।
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