3 - पत्थर के लोग
उसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह भावुक, संवेदनषील और कवि हृदय व्यक्ति है । कोई भी घटना उसके अन्तर्मन को झकझोर देती है । रात-रात भर वह उसके पीछे जागता है । खोया खोया-सा मनन करता है, अन्दर ही अन्दर घुटता है । पत्नी-बच्चे उसकी इस आदत से वाकिफ़ हैं । वह काव्य गोष्ठियों में भी भावुक रचनाएं व राष्ट्रीय विचार की रचनाएं ही पढ़ता है । युवा होने के बावजूद श्रृंगार से उसका दूर-दूर तक का कोई लेना-देना नहीं, बल्कि बूढ़े-बूढ़े कवियों को श्रृंगार-रस गाते सुन उसको आष्चर्य होता है कि उससे ऐसी रचनाएं क्यों नहीं लिखीं जातीं । दो बच्चों का पिता बनने के बावजूद वह पत्नी से कभी उतना रोमांटिक नहीं हुआ जितना बूढ़े कवियों की कविताओं से प्रेम टपकता है ।
दूर ऊंचाई पर बादलों की बनती-बिगड़ती आकृतियों में खोया रहने वाला आज रात की बेचैनी से भी अधिक बेचैन हो उठा था । एक पल को भी उसका मन कहीं नहीं लग रहा था । सागर के तूफ़ान-सा मंथन उसके मन-मस्तिष्क में उथल-पुथल मचा रहा था । वह उसी बेचैनी से ऑफिस से घर पहुंचकर छत पर टहलने लगा ।
उसकी तिमंज़िला छत से पूरा शहर मकानों के मकड़जाल-सा दिखाई पड़ता है । हज़ारों मकान.....लाखों लोग......। उसने नज़र अपने दायीं ओर ऊंचे प्राचीन तारागढ़ पहाड़ पर घुमाई । एक नज़र पहाड़ पर बने पृथ्वीराज स्मारक पर लगे पृथ्वीराज के स्टेचू पर पड़ी । फिर उसने निगाह उठाकर तारागढ़ के ऊपर बनी मीरा साहब की मज़ार की ओर ताका । सब कुछ वैसा का वैसा ही जड़वत....। मगर आज उसका मन इतना व्याकुल, इतना बेचैन हो उठा है कि वह सोचने लगा-इतने बड़े शहर के लोग, इतना वैभवपूर्ण इतिहास....इतना धार्मिक, पवित्र शहर....। मगर साले सब के सब पत्थर......। यहां इस शहर में ही क्या, सारी दुनिया के लोग ना जाने क्यूं पत्थर के हो गये हैं । कोई किसी का नहीं.....। झूठा वैभव, झूठी षिक्षा, झूठी शान....। संवेदनहीन लाषों के समान....।
अचानक ही वह पत्नी के पुकारने से चौंक पड़ा । पत्नी हाथ में चाय लिए उसके पीछे खड़ी थी, “आज सीधे ही छत पर चले आये ? ना बात की, ना कुछ मांगा... । क्या बात है ? तबियत तो ठीक है ?”
“कुछ नहीं । बस यूं ही ।” उसने चाय हाथ में पकड़ते हुये छोटा-सा उत्तर पत्नी को दे दिया । वह चाय रखकर वापस नीचे लौट गई । उसे पूजा जो करनी है अभी । अपने बेटे और बेटी को लेकर दीपक जलायेगी । बेटा घंटी बजायेगा और तीनों आरती गायेंगे- ओम् जय जगदीष हरे...। वह पत्नी को जाते हुये देखता रहा । क्या उससे कहे कि वह किसी बात को लेकर बेहद बेचैन है और किसी की मदद करना चाहता है ...? उसने अपने आपसे सवाल किया । फिर स्वतः ही निराष हो उठा । उसे पता है पत्नी से पूछते ही आग-बबूला हो पूछ बैठेगी, “कौन लगती है वो आपकी ? दुनिया में एक आप ही धर्मात्मा हो जो...?” फिर उसका कुछ पता भी नहीं, कहीं कोई लांछन लगाते हुये, “जवान होगी और खूबसूरत भी, तभी आपका प्यार उमड़ रहा है । क्या करोगे यहां लाकर उसे...? मौहल्ले वाले, अड़ौसी-पड़ौसी पूछेंगे तब...? तब किस-किसको जवाब दो...?”
नहीं...! वह पत्नी को वह सब नहीं बता सकता जिसकी वजह से वह बेचैन है । ना ही बच्चों से ही बात कर सकता है इस संबंध में । दोनों अभी छोटे ही तो हैं । बेटा ग्यारहवीं और बेटी दसवीं में । बेकार ही बच्चों के सामने कलह कर बैठेगी उसकी पत्नी । वह इन सब विचारेां को त्याग कर पुनः पृथ्वीराज स्मारक को घूरने लगा । उसे लगा जैसे बेचैनी वातावरण की उमस के साथ ही उसके अन्दर भी बढ़ती जा रही है । तारागढ़ को धीरे-धीरे घने बादल ढकने लगे । उमस और भी बढ़ने लगी । उसका बदन उमस की वजह से चिपकने लगा । मगर मन....। दूर बाज़ार में बाटा की दुकान के सामने बने डिवाईडर पर निर्वस्त्र बेसुध पड़ी उस सोलह-सत्रह वर्षीय लड़की में पुनः जा अटका जिसे वह ऑफिस से लौटते समय देख आया था ।
शाम पांच बजे का समय....। बाज़ार खचाखच ....सड़कों पर चींटियों-सा रेंगता ट्रेफिक.....। बाटा की दुकान के सामने बने डिवाईडर पर एक सोलह-सत्रह वर्षीय लड़की पर उसकी निगाह पड़ते ही उसके दिल में ना जाने कैसी हलचल-सी हुई थी । मोड़ जहां से उसे मुड़ना था बस ठीक उसी कोने पर वह करीब-करीब नंगी-सी पड़ी थी । मुंह को कोहनियों-हथेलियों से छिपाये....। ऊपर का शरीर पूरा नंगा...। नीचे एक फटी-सी गन्दी खू़न से सनी हुई अण्डरवियर...। बाल उलझे, शरीर सांवला गठा हुआ....। वह मोड़ से मुड़कर आगे जाकर रूक गया था । बहाने से उसने केवल यह जानने के लिए कि लड़की कहीं मरी तो नहीं पड़ी एक हल्की-सी नज़र पुनः उस पर मारी थी । लड़की शायद जीवित थी । उसका दिल अनायास ही करूणा से भर उठा था । बेचारी...! भूखी-प्यासी है या बीमार.....! तमाम सवाल अनायास ही उसके मन-मस्तिष्क में कौंध गये थे । वह कुछ पल यूं ही खड़ा रहा था । सड़क के डिवाईडर के दोनों ओर ट्रैफिक चलता रहा था निर्बाध...! लोगों की भीड़..मोटरें, गाड़ियां, तांगे...ऑटो....। लोगों की एक नज़र पड़ती फिर अपने आप में सभ्य होने का नाटक करते लोग मुंह फेर कर निकल जाते । हालंाकि कई मनचलों की रूककर भरपूर देखने की इच्छा स्पष्ट उनकी नज़रों से झलक जाती मगर भीड़-भाड़, लोक-लाज के कारण अपनी इच्छा मन में दबाये, मन मसोस कर निकले जा रहे थे । वह मन ही मन उन्हें कोसने लगा था- साले अन्धे कहीं के....। निर्दयी.....। कैसे निकले जा रहे हैं सभ्यता का नाटक करके.....। किसी के भी दिल में रहम-दया नहीं रही । कोई जिये या मरे, किसी को क्या मतलब...। आदमी आदमी से कितनी दूर हो गया है...। वह सोचता हुआ जोष में आकर ट्रैफिक पुलिस के सिपाही के पास पहुंच गया था, “भाई साहब ! वहां आगे डिवाईडर पर एक असहाय, जवान लड़की बेसुध पड़ी है आप कुछ करिये ना ।”
ट्रैफिक सिपाही उसे ऊपर से नीचे तक घूर कर बोला था, “तो मैं क्या करूं ? ट्रैफिक संभालूं या उस लड़की को जाकर देखूं ? ये कोई मेरा काम है ? आप जाकर थाने पर बोलो ।”
वह ताव में थाने भी पहुंच गया था । बाहर ही खड़े सिपाही से उसने थानेदार जी के बारे में पूछा था जो उस वक्त कहीं गया हुआ था सो उसने सिपाही को ही कहा था, “देखो जी, मैं एक सरकारी कर्मचारी हूं । वहां बाटा के सामने डिवाईडर पर एक लड़की नंगी पड़ी है । शायद कोई भिखारिन या...।”
सिपाही मूंछों पर हाथ फेरते हुये बोला था, “तो...? मैं क्या करूं....? ये कोई मेरा काम है ? शहर में सैकड़ों भिखारी घूमते हैं, सबका ठेका पुलिस ने ले रखा है क्या ? अगर आपको इतनी फ़िक्र है तो....।”
“बस....बस ...। समझ गया ।” उसने गुस्से में पुलिस वाले की बात बीच में काट दी थी । उसके जी में तो आया था कह दे, “नहीं ! तुम्हारी ये ड्यूटी थोड़े ही है । तुम्हारी तो इसके साथ बलात्कार हो जाने के बाद, इसके मर जाने के बाद लाष को मुर्दाघर पहुंचाने की है बस । अपराध होने के बाद खानापूर्ति करने तक ही ड्यूटी है तुम्हारी...। मक्कार....भ्रष्ट कहीं के...।” मगर चुप रह गया था । आखिर सरकारी कर्मचारी, फिर बीवी-बच्चों का ख्याल कर चुपचाप चला आया था घर...। बेचैन...खामोष....। आंखों में बार-बार नंगी लड़की तैर रही थी उसके ।
उसकी पत्नी ने शायद उसे नीचे से ही पुकारा, “सुनो जी ! खाना तैयार है, कहो तो लगा दूं ?” वह छत के जंगले मंे आकर चिल्लाया, “अभी भूख नहीं है । तुम पहले बच्चों को खिला दो । मैं बाद में खाऊंगा....।” फिर उसने पत्नी को बड़बड़ाते सुना, “अजीब आदमी से पाला पड़ा है खाना नहीं बना हो तो हाय-तौबा मचा देंगे और जब बन गया है तो साहब को भूख नहीं है । चलो बच्चों जल्दी खा लो फिर मुझे बरतन मांजते-मांजते वो ही दस बज जायेंगे । मुझे तो खपना पड़ेगा फिर सुबह पांच बजे से ही ।
वह भी एक प्राईवेट स्कूल में पढ़ाती है । हज़ार रूपये के पीछे कितनी खटखट करती है । पत्नी का बड़बड़ाना उसे बुरा नहीं लगता । वह पुनः टहलने लगता है । बेचैन....उदास...। क्या करे जो उस लड़की को बचा सके । उसे अच्छी तरह मालूम है कि रात का अंधेरा फेलते ही भूखे भेड़ियों की निगाहें उस पर पड़ेंगी । दिन में आंखें मीचकर चलने वाले भेड़िये रात को टूट पड़ेंगे उस पर....। बहला-फुसलाकर टैक्सी में बैठा लेंगे । फिर एकान्त में ले जाकर शराब के नषे में दस-बारह भेड़िये उसके बदन की बोटी-बोटी नोंचेंगे....। वह उसे इस सबसे बचाना चाहता है । मगर वह भी क्या करे ? आखिर इसी समाज का एक हिस्सा वह भी तो बन गया है । बस फ़र्क इतना है कि समाज के अन्य लोगों से भिन्न है वह । यही उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है । लोग उसे टेंषन किंग कहकर उसकी हंसी भी उड़ाते हैं ।
वह अचानक ही सीढ़ियां उतरकर नीचे आ गया । कुर्ता-पायजामा पहनकर पत्नी से बोला, “मैं जरा टहलकर आ रहा हूं । आज जरा पेट भारी है ।” पत्नी चिढ़ कर रह गई और वह उसके कुछ बोलने से पहले ही घर के बाहर निकल गया और सीधा एस.टी.डी. बूथ पहुंचा । उसने लोकल इन्वायरी से समाज कल्याण विभाग का नम्बर लेकर समाज कल्याण अधिकारी के घर का नम्बर डायल किया, “हलो ...! साहब हैं क्या ? ”
“नहीं ! वो बाहर टूर पर गये हैं । आप कौन ?” दूसरी तरफ से किसी महिला की आवाज़ थी । उसने फ़ोन काट दिया । अब क्या करे ....? इस गूंगे-बहरे समाज में उसके हृदय की व्यथा कोई सुनने वाला नहीं....। उसके पड़ौसी, दोस्त-यार...। किसी से कहेगा भी तो लोग हंसी उड़ायेंगे । वह सोच-सोचकर पागल हो गया । फिर अचानक उसके कदम बाज़ार की ओर उठ गये । वह वहां जाकर उसे देखना चाहता था । रात के नौ बज चुके थे । पत्नी का भी डर था उसे । बहुत नाराज़ होगी वह...। मगर वह भी क्या करे.......? अपनी आदत से लाचार हेै वह...। कभी-कभी सोचता है कि कहीं उसे कोई मनोरोग तो नहीं ? आखिर ऐसा उसी के साथ क्यों होता है, और लोग भी तो हैं दुनिया में । वे तो उसकी तरह नहीं सोचते ?
वह पैदल चलता-चलता वहीं उसी मोड़ पर पहुंच गया उसे देखने । अगर वह मिल गई तो उसने मन ही मन उसे डबल-रोटी देने का निर्णय भी कर लिया है । रात में उसे कोई देखने वाला या जान-पहचान वाला भी नहीं होगा । अगर मौका मिला वह खुद उसे कहीं सुरक्षित स्थान पर छोड़ आयेगा फिर कल की कल देखी जायेगी ....।
मगर......। मगर वह वहां जाकर ठिठक गया । लड़की वहां नहीं थी । उसे वहां ना पाकर वह और भी बेचैन हो उठा । कहां चली गई....? कहीं कोई उसे जबरन तो......। वह अन्दर तक कांप गया । कुछ दूर धीरे-धीरे यूं ही चलता रहा । चारों तरफ़ नज़रें उस लड़की को खोजती रहीं, मगर वह उसे ना मिली । उसने नज़र घड़ी पर डाली । रात के साढ़े दस बज चुके थे । समय देखकर उसका दिल धड़क उठा । आज तो पत्नी उस पर बहुत नाराज़ होगी । वह वापस लौट पड़ा । निराष.....उदास......। कदम घर की ओर मगर दिमाग और नज़रें सड़क पर उस लड़की को खोजते हुए ।
घर पहुंचकर उसने पत्नी से नज़रें तक नहीं मिलाईं । अपराध-बोध लिये वह टेबल पर रखा खना स्वयं ही निकाल कर खाने लगा । पत्नी ने शायद खा लिया था और माथे पर कलाई रखकर सोने का झूठा बहाना कर रही थी । बच्चे भी खा-पीकर सो चुके थे । पत्नी ने झल्लाकर उससे पूछा, “खाना गरम कर दूं ?”
“नहीं ! रहने दो ।”
“कहां चले गये थे ? आपका इन्तज़ार कर-करके पागल हो गई । आपको पता नहीं क्या मुझे पांच बजे उठना पड़ता है । खुद तो सोते रहोगे आठ-आठ बजे तक ।”
वह कुछ नहीं बोला चुपचाप खाना खाने लगा । पत्नी ने एक बार फिर माथे पर से कलाई हटाकर करीब-करीब गुर्राते हुये उससे कहा, “खाना खाकर दूध फ्रीज़ में रख देना और जल्दी खा लो । मच्छर आ रहे हैं ।” वह जल्दी-जल्दी खाने लगा । हालांकि उसकी भूख तो कभी की मर चुकी थी ।
वह खाना खाकर उठ बैठा । दूध फ्रीज़ में रखकर बत्ती बुझा दी और अपने कमरे में जाकर चुपचाप लेट सोने का असफ़ल प्रयास करने लगा । मगर नींद उससे कोसों दूर भागती रही । रात के अंधेरे में बार-बार वह नंगी लड़की उसकी आंखों में नाचती रही । फिर अनायास ही एक और चेहरा उस लड़की के चेहरे से मिलता गया ।
तब वह आठ-दस बरस का रहा होगा । उसके रेल्वे क्वार्टर से कुछ ही दूरी पर झाड़ियेां से घिरा एक सिंधी स्कूल था । वहीं एक गूंगी लड़की रोज़ कहीं से आकर बैठ जाती । स्कूल में इन्टरवेल होता तो बच्चे अपने-अपने टिफ़िन से कुछ ना कुछ उस गूंगी को देते । गूंगी खीं-खीं करके उनसे बातें करना चाहती । उसे लगता शायद वह खाने की चीज़ें लेने पर उन्हें धन्यवाद् देना चाहती । मगर तब वह बहुत छोटा था ।उसकी आंखों की भाषा उसकी समझ में नहीं आती । तब भी वह उसकी निरीहता देख दुःखी हुआ करता । अपनी बकरी को चराने के बहाने वह भी उसके लिये जेब में रोटी, गुड़, चने-मूंगफली और कभी-कभी मिठाई ले जाता । वह उसके हाथ से लेती और झट से अपने गूंगे मुंह में भर लेती । वह उसे खाते देखता....। उसके उलझे, चिकटे भूरे बाल, बड़े-बड़े दांत और फटा कुर्ता-सलवार.....। उम्र करीब सोलह बरस रही होगी । अपने बालों को खुजलाती खाती जाती और उसे खीं-खीं कर धन्यवाद् देती जाती....। वह बकरी को भी भूल जाता उसे देखकर । ना जाने कैसे अनजाने सुख की अनुभूति होती उसे कुछ देकर । उसका रोज़ स्कूल के पास आना और बबूल की झाड़ियों की छांव में बैठकर बच्चों के इन्टरवेल का इन्तज़ार करना दैनिक नियम बन गया था । उसे पता भी नहीं था तब कि वह कहां रहती है ? किसकी बेटी है....। शायद स्कूल के ऊपर बसी कच्ची बस्ती में ही कहीं रहती होगी ।
और एक दिन जैसे वज्रपात हुूआ था उस पर । वह बकरी चराने अपनी नेकर की जेब में चार बिस्कुट डाले उसे देने पहुंचा था तो स्कूल के पास तमाम भीड़ इकट्ठी थी । पुलिस भी पहुंच चुकी थी । वह भी भीड़ के अन्दर घुस पड़ा था । देखा था तो मारे डर के उसका कलेजा धक् रह गया था । झाड़ियेां में उसी गूंगी की अधनंगी लाष पड़ी थी । कुछ वहषी दरिन्दों ने उसके गूंगेपन का नाज़ायज़ फ़ायदा उठाकर उसका बलात्कार करने के बाद पत्थरों से कुचलकर उसे मार डाला था । यह सब देखकर उसका कलेजा मुंह में आ गया था और आंखों में आंसू । वह अपनी बकरी को लेकर डरकर भाग आया था घर पर । उस दिन उसे कुछ अच्छा नहीं लगा था । बिस्तर पर लेटते ही उसकी आंखों में गूंगी का खीं-खीं करता चेहरा नाचने लगा था ।
आज फिर वह उसी अनहोनी आषंका से सो नहीं पा रहा था । तब तो वह छोटा था, कुछ नहीं कर पाया था । मगर अब तो वह एक जिम्मेदार नागरिक है फिर भी कुछ नहीं कर पा रहा उस लड़की के लिये । यह कैसा समाज है, कैसी विडम्बना जो उसे बेचैन किये दे रही थी । वह ना जाने कब तक उस नंगी लड़की के लिये प्रार्थना करते-करते सो गया ।
उसकी आंख खुली तो सबसे पहले वह अख़बार पर झपटा । मुखपृष्ठ पर ही उसने वह मनहूस ख़बर देखी जिसकी उसे आषंका थी । किसी लावारिस लड़की के साथ कुछ असामाजिक तत्वों ने बलात्कार कर रेलवे के दफ्तर की तरफ सुनसान झाड़ियों में पटक दिया था । लड़की मर चुकी थी । पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में डेढ़ माह की गर्भवती थी । कौन थी...? कहां से आई थी, कोई हवाला नहीं था । यह ख़बर पढ़ते ही उसकी आंखों में आंसू छलक आये । लड़की वही थी जिसे उसने कल अपनी आंखों से डिवाईडर पर नंगा....असहाय पड़े देखा था ।
वह अख़बार लिये बड़ी देर तक प्रस्तरखण्ड-सा जड़वत यूं ही बैठा रहा । गंूगी लड़की.......नंगी लड़की उसके ज़हन में आकर जैसे ज़ोर-ज़ोर से चीख रही थी -तुम इन्सान नहीं पत्थर के लोग हो तुम....।
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