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प्रेरणा

11 - प्रेरणा

पूरा टाउन हॉल लोगों की भीड़ से खचाखच भरा था । हॉल के मुख्य द्वार से स्टेज तक आने वाले रास्ते को छोड़कर दोनों ओर करीने से कुर्सियां लगीं थीं । सबसे आगे की पंक्ति में शहर के गणमान्य व्यक्तियों के लिये सोफे लगाये गये थे । स्टेज के पर्दे पर फूलों से सुन्दर सजाकर अंग्रेज़ी में लिखा गया था “कॉग्रेच्यूलेषन््स प्रेरणा”...।

सुषील ने एक बार अपनी बगल में बैठी प्रेरणा पर नज़र डाली तो बस देखता ही रह गया । “क्या यही है प्रेरणा.....? एक आई.ए.एस. अधिकारी जिसने पूरे भारत में प्रथम स्थान प्राप्त किया है ....? कितनी सौम्य....कितनी सुंदर और कितनी सुषील....। वह उसे कुछ पल यूं ही निहारता रहा । उसे विष्वास भी नहीं हो पा रहा था कि उसकी गोद में खेलने वाली चंचल...भोली-भाली उसकी बेटी प्रेरणा कब इतनी बड़ी हो गई कि आज सारा समाज उसका अभिनन्दन कर रहा है ।

वही समाज जिसने कभी इसी पुत्री के जन्म होने पर कहा था, “लो लल्ला जी ! अभी से दहेज जोड़ना शुरू कर दो, तुम्हारी लक्ष्मी जी ने दूसरी भी लड़की जनी है ।” वह मुस्कराता हुआ बोला था, “तो क्या हुआ भाभी, लड़का हो या लड़की दोनों ही बराबर हैं मेरे लिये तो...।”

“अरे देवर जी ! बाबू की तनख्वाह में पालोगे, ब्याहोगे तब पता चलेगा...।” मगर उसने उनकी बातों पर ध्यान न देते हुये अपना निर्णय अटल रखा था और डाक्टर को मृदुला का ऑपरेषन कर देने की अनुमती दे दी थी । तब न केवल उसकी भाभियों ने बल्कि उसकी मां व अन्य पड़ौसियों तक ने उसे ऐसा करने से रोका था, “अरे एक लड़का तो हो जाने देता । लड़के के बिना कोई वंष चलता है...? लड़का ही तो बुढ़ापे की लाठी...।”

“तो क्या चाहते हैं आप लोग ? उसे इसी तरह एक लड़का प्राप्त करने की खातिर फिर ऑपरेषन थिएटर लाकर डाल दूं ..? जानते नहीं आप यह दूसरा सीजे़रियन ऑपरेषन है.....। आखिर वह भी

हाड़-मांस की ही बनी है, कोई मषीन तो है नहीं जो....।” धारा प्रवाह से कह गया था सुषील । और कदम बढ़ाते-बढ़ाते उसने किसी के मुंह से दबी आवाज़ में सुना था, “लो जी, सच् राय भी ग़लत लगती है....।”

“अरे आजकल के लड़के हैं, ब्याह होते ही औरत के गु़लाम हो जाते हैं...।” और कोई नहीं, ऐसा कहने वाली उसकी अपनी बड़ी भाभियां थीं जिन्हें तीन-तीन लड़कों के होने का घमण्ड था । मगर उसे गुस्सा आने की बजाय तरस आया था उनकी मानसिकता पर । वह कुछ देर यूं ही सोच में डूबा चाय लेने चला गया था मृदुला के लिये ।

फिर अस्पताल से छुट्टी के बाद मृदुला को आये दिन पति को गुलाम बना लेने, उस पर जादू-टोना करवा कर अपने वष में कर लेने जैसी कई बातें वह भाभियों और मां की दबी जु़बान से सुनता रहा था । मगर धन्य थी उसकी पत्नी जिसने सब कुछ सहकर भी उसे कभी किसी की षिकायत न की ।

“कांग्रेच्यूलेषन्स सुषील ।” उसके दफ्तर के सबसे बड़े अधिकारी ने उसे बधाई देते हुये उसकी पींठ थपथपा दी । वह चौंक पड़ा ।

“थैंक्यू सर !” कहकर वह खड़ा हो गया । वे उसकी बेटी प्रेरणा को भी बधाई देकर एक ओर सोफे पर बैठ गये । सुषील फिर सोफे पर टिककर बैठ गया । आज उसकी विचार श्रृंखला जैसे टूट ही नहीं पा रही थी । उसका अतीत फिर उस पर हावी हो गया ।

दोंनों बड़े भाईयों का परिवार बढ़ गया था । वे अपनी-अपनी गृहस्थी जमाने में परिवार से अलग हो गये थे । रह गया था वह अकेला और बूढ़े माता-पिता । सारी गृहस्थी का बोझ उसी पर था । मगर उसने हिम्मत हारना कभी नहीं सीखा था सो मेहनत और लगन से दोनों बेटियों को अच्छे स्कूल में पढ़ाता रहा ।

प्रेरणा और सोनाली के साथ ही दोनों भाईयों के बच्चे भी बड़े होते गये । घर का खर्च बढ़ता गया और आय स्थिर...। अब आये दिन वो लोग घर आने लगे और गरीबी और तंगी का राग अलाप-अलाप कर पिताजी की पेंषन से रूपया मांग-मांगकर काम चलाने लगे । किसी भाई को फीस भरनी होती तो किसी को किताबें....। उससे भी कई बार वे पूछ बैठते “सुषील ! कमाल है... कैसे बच्चों को पब्लिक स्कूल में पढ़ा लेते हो ? हमसे तो सरकारी स्कूल का खर्चा भी नहीं उठाया जाता....।”

उसके जी में आता कह दे “भैया जो ज़माने के साथ चलता है वह सब कर लेता है । किसने कहा था चार-चार, पांच-पांच बच्चे करके परिवार बढ़ाने को....?” मगर यह सब ना कह कर बस इतना ही कहता “सब आपका आषीर्वाद है...”

बच्चे बड़े होते रहे । सोनाली और प्रेरणा दोनेां कॉलेज में आ गये और दोनों भाईयेां के बड़े बेटे दसवीं पास करके ही बैठ गये । दोनों ने लड़कियों की पढ़ाई भी नवीं के बाद ही छुड़वा दी । उसने पूछा तो कह दिया “क्या करना है ...? आगे-पीछे चूल्हा-चौका ही तो सम्भालना है इन्हें ।”

तब उसे पहली बार गुस्सा आया था “आप लोगों की यही सोच तो लड़कियों और समाज के विकास में सबसे बड़ा रोड़ा है । क्या लड़कियां चौके-चूल्हे के अलावा और किसी लायक नहीं होतीं ...?”

तभी बड़ी भाभी ने ताना मारा था उसे, “ओ हो, बड़ी-बड़ी बातें करते हो । देखें अपनी बेटियेां को कितना बड़ा अफ़सर बनाते हो....।”

वह भनभनाता चला आया था घर पर । मन में एक टीस थी जो बार-बार उसे अन्दर तक झकझोर देती थी -आखिर ये लोग समझते क्यों नहीं....। ज़माना आसमान की ऊंचाईयों को छू रहा है और ये.....। मगर उसका निष्चय दृढ़ था । वह अपनी बेटियों को काबिल बनायेगा और दिखा देगा ज़माने को कि नारी पुरूषों से किसी बात में कम नहीं.....।

और वह दिन भी जल्दी ही आ गया उसके जीवन में जब उसकी बड़ी बेटी सोनाली ने उसे एक साथ दो-दो खुषियां दीं थीं । एक तो वह एम.बी.बी.एस. में पास होकर डाक्टर बन गई थी, दूसरे उसने अपने ही साथी लड़के से अपने विवाह का प्रस्ताव रख दिया था । उसने लड़के के पिता से बात कर उनके चाहेनुसार ही कोर्ट में विवाह कर एक छोटा-सा आषीर्वाद समारोह रखा था । मगर उस दिन उसके रिष्तेदार तो क्या सगे भाई-भाभियों ने भी उसका बहिष्कार कर दिया था । कोई नहीं आया था सोनाली को आषीर्वाद देने, सिवाय उसके ऑफिस के स्टाफ और दोस्तों के । उनमें भी कानाफूसी होती रही थी सोनाली के प्रेम-विवाह को लेकर । फिर उसने समाज के लोगों के मुंह से सुना था, “भई फोकट में डाक्टर दामाद मिल गया...। अपनी जात-बिरादरी में करते तो आटे-दाल का भाव मालूम पड़ जाता....।” मगर उसे जरा भी गुस्सा नहीं आया था ऐसी दकियानूसी बातों पर । उसे अपनी बेटी की खुषी का सबसे ज़्यादा ख्याल था और फिर लड़के का पूरा परिवार भी तो प्रगतिषील ख्यालों का था इसीलिए उसे समाज की कोई परवाह भी नहीं थी । उस समाज की जो लोगों पर अंगुली उठाना जानता है, किसी को सहारा देने के लिये अंगुली थामना नहीं ।

सुषील के कन्धे पर किसी ने हाथ रख दिया तो अनायास ही वह चौंक पड़ा । एक बार को तो वह यह भी भूल गया था कि वह कहां बैठा है । उसने देखा पाण्डे जी उसके कन्धे पर हाथ रखे हुये पान का पीक मुंह में भरे प्रेरणा के सिर पर हाथ फिराते जा रहे थे, “वाह बेटी ! वाह...! कमाल कर दिया । अपनी पीढ़ी और इस शहर का ही नाम रौषन कर दिया ।” फिर चष्मे को नाक पर झुकाकर अपनी मोटी-मोटी आंखों में निरीहता लाकर बोले “मगर बेटी अपने पाण्डे चचा को न भूल जाना । अब आई.ए.एस बनी हो तो.... तो अपने छोटे भैया का जरा ख़्याल रखना । बेचारा फार्म भर-भरकर तीस का हो गया है.....।” सुषील ने देखा पाण्डे जी अपने बेरोज़गार बेटे को भी अपने साथ लाये थे जो प्रेरणा के समक्ष हाथ जोड़े खड़ा था ।

सुषील फिर ना जाने कब अपनी कहानी में खो गया । इन्हीं पाण्डे साहब ने पूरा मोहल्ला सिर पर उठा दिया था उस दिन । प्रेरणा को छोड़ने आये प्रकाष का गुरेबान पकड़ लिया था, “क्यों बे ? हमारे मोहल्ले में इष्क लड़ाता है ? बता कहां ले गया था छोकरी को और इतनी रात कहां से आ रहा है.....?” तमाम मोहल्ला जमा हो गया था । सुषील सभी को सफाई देता रहा था “भई यह तो अपना ही बच्चा है । मेरी आज्ञा से ही दोनों आई.ए.एस. की कोचिंग में जाते हैं फिर ग्रुप में बैठकर पढ़ते हैं । इसमें आपको तो कोई एतराज़ नहीं होना चाहिये । आखिर मैं इसका बाप हूं मुझे खुद ही चिंता है इसकी और अपने भविष्य की फिर आप लोग खामखंा में क्येां तूल दे रहे हैं ...?”

तब पाण्डे जी ने पीक थूकते हुये गुरेबान छोड़कर कहा था, भैया सुषील, तुम्हारी लड़की है तो क्या कहीं भी जाये....? क्या हमारी लड़कियों पर फर्क नहीं पड़ता ...? आखिर ये मोहल्ला इज्ज़तदार लोगों का है ऐरे-गेरे इस मोहल्ले में धड़ल्ले से कभी भी आयें, कभी भी जायें ये हमसे बर्दाष्त नहीं होगा ...?” और तब सुषील खून का घूंट पीकर रह गया था । वह फिर सोच में डूब गया- कितना लालची है यह समाज...। तरह-तरह की बातें बनाने वाले पाण्डे जी आज कितनी बेषर्मी से उससे मेल-मिलाप बढ़ाने चले आये थे समारोह में ...।

“लल्ला जी मुबारक हो...।” उसके विचार अनायास ही बर्फ से जम गये । सामने उसकी दोनों बड़ी भाभियां और भैया खड़े थे । उसने उठकर दोनों के पैर छू लिये ।

“लल्ला जी वाकई प्रेरणा बिटिया ने खानदान का नाम रौषन कर दिया .....। सच् हमारी गर्दन गर्व से ऊंची हो गई है ....।” फिर सोचकर बोली, “सोनाली कहीं नहीं दिख रही.......?”

“वह भी आई है भाभी ।” कहते हुये उसने सोनाली और उसके पति की ओर इषारा कर दिया, “वह वहां बैठी है डाक्टर साहब के साथ....।”,

“सच्ची लल्ला तुमने जग जीत लिया । तुम सच् कहते थे कि लड़कियां ही तुम्हारा नाम रौषन करेंगीं सो तुमने कर दिखाया । एक हम हैं, अभी तक दोनों कुआंरी बैठी हैं । बताओ नवीं पास की सुनकर रिष्ते आते हैं और चले जाते हैं....।” फिर प्रेरणा की ओर मुखातिब होती हुई बोलीं, “बेटी अब तू लायक बन गई है । तेरे भाईयों का ख्याल रखियो । अभी तक बेराज़गार बैठे हैं ....। तेरे ताऊ अकेले कमाने वाले और चार-पांच जने खाने वाले । एक-आध को कहीं चिपका दे तो...।” कहते-कहते बड़ी भाभी की आंखें भर आई । सुषील ने बड़े भाई पर नज़र डाली जो गर्दन झुकाये चुपचाप खड़े थे ।

सुशील की नज़र दरवाज़े से आते मुख्य अतिथि कमिष्नर साहब पर पड़ी । उन्हें शहर के गणमान्य व्यक्ति इर्द-गिर्द घेरे हुये स्टेज पर ला रहे थे । उनके आते ही स्टेज पर लोगों का मजमा-सा लग गया । कुछ लोग बड़े आदर से प्रेरणा को स्टेज पर ले गये । फूल-मालाओं से उसका स्वागत किया गया । उसकी तारीफ़ में लोगों ने जाने क्या-क्या कहा । वह तो बस गद्गद् होता हुआ अश्रुभरे नयनों से अपनी प्रेरणा को निहारता रहा और रूआंसे गले से अपनी पत्नी से बोला “देखा, नारी शक्ति की कैसी पूजा हो रही है । जो समाज तुम्हें और मुझे इन्हीं बेटियों के बोझ का अहसास कराता रहा आज किस कदर उन्हीं के सामने झुका खड़ा है ....।”

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