जहां से चले थे... Rajesh Bhatnagar द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जहां से चले थे...

5 - जहां से चले थे...

लुहार बस्ती में हर झोंपड़े में कल होने वाली रैली में चलने की चर्चाएं गर्म थीं । तीन-चार दिन से यहां रोज़ कारें चक्कर लगा रहीं थीं । पहले दिन जब वे लोग आए थे तो बस्ती की सभी औरतें, बच्चे सहमकर रह गये थे । आदमियों के चेहरे पीले पड़ गये थे । कान्हा लुहार तो समझा था कि फिर सरकारी दस्ता उनकी झोंपड़ियेां को उखाड़ बेघर करने आ गया । अभी करीबन छः माह पहले ही तो उन्हें शहर से खदेड़कर शहर के एक छोर पटक दिया गया था । अब यहां से शहर आने-जाने में ही दो घण्टे खत्म हो जाते हैं । ना पानी.....ना बिजली....ना सड़क ....। ष्षहर में तो माल बनाकर जितना कबाड़ियेां को बेचना आसान था उतना ही कच्चा माल लाकर बनाना भी । घर बैठे ग्राहक आ जाया करते थे । मगर अब.....। बाप रे बाप .....भट्टी के कोयले के लिए भी कोसों दूर जाना पड़ता है ।

मगर जैसा कान्हा लुहार और उसके साथियों ने सोचा था वैसा नहीं हुआ । मारूति वैन से काला चष्मा लगाए सफेद खादी का कुर्ता-पायजामा पहने कुछ नेता सरीखे जवान निकले थे और कान्हा लुहार के ही सामने खड़े होकर उनके अर्दली ने कहना शुरू किया था, “सर, बेचारेां का यह हाल है । देष को आज़ाद हुए पचास साल हो गये मगर महाराणा प्रताप के ये वंषज आज भी उपेक्षित और तिरस्कृत जीवन बिता रहे हैं । अभी छः महीने पहले ही इन्हें शहर से सौन्दर्यकरण योजना के तहत निकाला गया है । सर देखिए ना, यहां ना तो पानी है, ना बिजली और ना ही सड़क ......। पक्के मकान तो दूर की बात है इन्हें ये सरकार अभी तक ज़मीन का एक टुकड़ा तक नहीं दे पाई है ।”

“ठीक है....ठीक है....। वाकई इन लोगों के साथ नाइंसाफी हुई है...। देष स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगांठ मना रहा है और ये बेचारे अभी तक जहां थे वहीं के.....। पी.ए. साहब नोट करो इन्हंे ज़मीनें दिलवाई जाएं....आगे तक लड़ेंगे ।”

उन लोगों की बातें सुनकर कान्हा लुहार की जान में जान आई थी । उसने खुषी में सीना फुलाकर जोर से पुकारा था, “अरे कालू, ओ प्रेमा अठैे आ...। थे तो यान ही डर रिया हो....। बाबू साहब तो बड़े नेता हैं, अतिक्रमण वाला कोनी....। बाहर आओ थे ।” और नेताजी के चारेां ओर भीड़ जमा हो गई थी । नेता जी ने सभी को उनके हक के लिए लड़ने और उन्हें रहने के लिए ज़मीने उपलब्ध कराने का वचन दे डाला था । फिर मारूति वैन से निकालकर लड्डू की थैलियां आज़ादी की पचासवीं वर्षगांठ के प्रसाद के रूप में बांट दी गई थीं ।

बस तभी से हर लुहार की झोंपड़ी में अपनी ज़मीन.....अपना मकान....के सपने देखने शुरू हो गये थे । हर बच्चे, बूढे़ और औरत की आंखों में इसी सपने के साथ हर वक्त बस यही चर्चा थी कि- ई पार्टी तो दमदार दीखे । जब नेताजी जमीन दिला सके तो मकान बनावा के वास्ते लोन भी दिला देई...।

आज ही नेताजी के कुछ आदमी चूरमा-बाटी बांटकर चले गये थे । एक मारूति से उतरकर कार्यकर्ताओं ने दबी जु़बान से कान्हा को बुलाकर पूछ लिया था, “थे पीवो कांई ? सगला इन्जाम है म्हारे पास । और भी पीवाड़ा होवे तो बुला ला ।” सुनकर कान्हा सकते में आ गया था । आखिर नेताजी हम पर इतने मेहरबान क्यों हैं....। और पूछ बैठा था, “बाबू सा ! थे एक बात बताओ । ये नेताजी किषी पार्टी का है ? के चुनाव आरियो है कांई ? म्हानै कांई करणो पैड़ी ?”

उस युवक ने कान्हा की चालाकी और आजकल की राजनीतिक चालबाजियां समझने पर ज़ोर का ठहाका लगाया था, “अरे भाई ! म्हारे नेताजी ने कुछ नी चावै । कोई चुनाव नी लड़ रियो है और ना ही थारे से वोट मांग रियो है ।”

“फिर कै वास्ते इतनी खातिर...?”

“महारे नेताजी तो जनता का सेवक है । बी तो जन-जन ने जगाणो चावे है कि उठो...आपणे अधिकार रे वास्ते लड़ो...। देष को पचास साल वैई गिया आज़ादी हुए, पण थाके ज्यान का सीधा-सादा लोग बठेै का बठेै ही है......। जी वास्ते वो तो एक रैली का आयोजन कर रियो है, जी में थारे हक की बात की जावेली और देष की पचास री आज़ादी की सालगिरा भी...।”

कान्हा अब आष्वस्त हो चुका था अपनी ही भाषा-बोली में समझकर, सो सिर हिलाता आष्चर्य से बोला, “ओ....तो ये बात है ....। देष को पचास साल वैई गिया आज़ाद हुवै । तो फिर म्हां सगला भी आज़ादी का जष्न मनावांगा । कठै है दारू-पानी ? म्हारे साथियों ने भी बुलाई लूं ...?”

“हां....हां बुला ले ।” यह सुनते ही कान्हा सभी को बुला लाया था । गाड़िया लुहारों ने जमकर देषी पाउच पिए थे और रैली में चलने को तैयार हो गये थे । उनकी झोंपड़ियों में रैली में भाग लेने की चर्चाएं भी देर रात तक होतीं रहीं थीं और कान्हा का छः वर्षीय बेटा उसे झिंझोड़-झिंझोड़कर पूछता रहा था, “बाबा ! कांई सरकार आपणै ज़मीन और पक्का मकान देवेगी..? बता नी बाबा, कांई आपण भी औरां की तरां पक्का मकान में रैई सकांगा...? फिर तो बी में सरकार बिजली भी लगावेगी........फिर तो म्हां भी पढ़ सकूंगा.....।” और कान्हा नषे में हूं...हां... करता रहा था ।

स्ुाबह ही लुहारों की कच्ची बस्ती में ट्रेक्टर, ट्रॉलियों के आने का तांता-सा लग गया था । उन्हें खदेड़कर रैली में ले जाने वाले कार्यकर्ता अपने सीने पर पार्टी का बिल्ला लगाए, बैनरों और तख्तियों से सुसज्जित होकर आ पहुंचे थे । फिर क्या था, प्रत्येक लुहार परिवार अपने-अपने झोंपड़े से निकलकर खुषी-खुषी औरतों, बच्चों और बूढ़ों समेत हाथों में तख्तियां और बैनर लिए चल पड़े थे । ट्रालियां रवाना हो गई थीं शहर की ओर...। शहर की मुख्य सड़क पर आते ही कार्यकर्ताओं ने नारे लगाने श्ुारू कर दिये थे, “भारत माता की जय....महात्मा गांधी की जय.....सुभाषचन्द्र बोस की जय...महाराणा प्रताप की जय.......। लाला अमरनाथ जिन्दाबाद......जिन्दाबाद-जिन्दाबाद । और इसी प्रकार नारे लगाते हुए शहर की मुख्य सड़कों पर लोगों, टेªक्टरेां, ट्रालियों का सागर उमड़ पड़ा था । विरोधी पार्टी सरकार के खिलाफ देष की आज़ादी की पचासवीं वर्षगांठ मनाने के बहाने अपना शक्ति प्रदर्षन करने में कामयाब हो गई थी । लाखेंा रूपये देष की आज़ादी के नाम पर पार्टी ने फूंक दिये थे । पेट्रौल की कमी और मंहगाई की किसी को चिंता नहीं थी । एक ओर शहर की यातायात व्यवस्था ठप्प हो गई थी और दूसरी ओर पूरा प्रषासन रैली की निगरानी में लग गया था ।

रैली स्टेडियम ग्राउण्ड पर जाकर एक सभा में परिवर्तित हो गई थी जहां तमाम पार्टी नेता, कार्यकर्ता पूर्व कार्यक्रमानुसार पहले ही जमा थे । एक-एक कर नेता मंच पर आकर अपना ओजस्वी और सरकार के खिलाफ भाषण देकर जहां एक ओर भोली-भाली जनता को ठग रहे थे वहीं दूसरी ओर अपनी षक्ति प्रदर्षित करने और वर्तमान सरकार को कोसने से भी नहीं चूक रहे थे ।

यानि देष की आज़ादी की वर्षगांठ को पूरी तरह से राजनीतिक तौर पर भुनाने का प्रयास होता रहा । देष-प्रेम की भावना जैसे कोसों दूर थी उनसे । बड़ी-बड़ी घोषणाएं की गई मंच से, जिनमें किसानों के कर्ज़ माफ करने, बेराज़गारों को रोज़गार दिलाने, अल्पसंख्यकों को आरक्षण का लाभ दिलाने के साथ-साथ राज्य भर के लुहारों को यू़.आई.टी. से मुफ्त भूमि आबंटन कराने की भी घेाषणाएं की गईं जिसे सुनकर सभी लुहार खुषी से ताली पीट-पीटकर जयघोष कर उठे ।

भाषणों के बाद शायद बड़े-बड़े नेता अपनी-अपनी मारूतियों में बैठकर रवाना हो गए । कान्हा लुहार अपने छः वर्षीय बच्चे का हाथ मजबूती से पकड़े धक्के खाता स्टेडियम से बाहर आ गया । एक ओर खड़ा होकर अपने साथियों का इन्तज़ार करने लगा जिनके काफी देर तक भी ना मिलने पर अकेला ही चल दिया घर की ओर । बच्चा बार-बार उससे पूछ रहा था, “बाबा कांई अब आपांने सरकार ज़मीन और पक्का मकान देवेगी ? बोलो ना बाबा......? नेताजी कांई कै रिया था.....?” कान्हा ने उसे बताया, “नेताजी ने दस दिन में ही जठेै आपां रह रियां हां, मु्फ्त में बा ज़मीन दिलाबा का वादा कियो है ।”

“सच् बाबा.....?” बच्चा जैसे ये बात सुनकर खुष हो गया था ।

फिर दूसरे दिन से यू.आई.टी. के चक्कर लगा-लगाकर सभी लुहार परेषान हो गए । रोज़ अपना-अपना काम-धंधा छोड़ यू.आई.टी. आते और बिना किसी पट्टे की प्राप्ति के वापस लौट जाते । दिन यूं ही बीतते चले गये । सचिव महोदय स्वतंत्रता दिवस की पचासवीं वर्षगांठ के कार्यक्रमों मंे व्यस्त होते चले गये । अब जबकि स्वतंत्रता दिवस में मात्र दो दिन शेष थे, सचिव महोदय ने कान्हा को बताया, “भाई जिस ज़मीन का नेताजी ने वादा किया था वो तो माली समाज की है और उस पर कोर्ट केस हो गया है । अब देखेंगे.....। आप लोगों के लिए दूसरी जगह के लिए मीटिंग में तय करेंगे जिसमें सरकार से अलग से अनुमति लेनी पड़ेगी ...। फिलहाल आप लोगों से मैं माफी चाहता हूं...... ।”

कान्हा अपने साथियेां के साथ लौट रहा था । सभी के चेहरे उदास थे । कल उनके देष की आज़ादी की पचासवीं वर्षगांठ थी मगर उनके मन में कोई उल्लास....कोई हर्ष नहीं था, बल्कि इतने दिन काम-काज ना करने से रोजी-रोटी कमाने की चिन्ता उन्हें खाए जा रही थी ।

घर पहुंचते ही सभी लुहार थके मन और बदन से अपने-अपने काम पर लग गये । रात देर तक घन चलाते-चलाते, लोहे को पिघलाकर नया रूप देते-देते थक हार कर सो गए ।

दूसरे दिन सुबह यूं तो पूरे देषवासियों के लिए खुषी और आज़ादी का पैग़ाम लाई थी, मगर कान्हा और उसकी लुहार बस्ती में कोई उल्लास नहीं था । उन्हें तो रात को तैयार किया गया माल दुकानों पर बेचना था सो चल दिये थे शहर की ओर...। कान्हा के साथ ही उसका छः वर्षीय बालक भी हो लिया था । वह शहर में पहुंचा तो उसने एक अजीब-सी हलचल महसूस की शहर में । सभी लोग सजधज कर स्टेडियम ग्राऊण्ड की ओर जा रहे थे ।

कान्हा ने अपना माल दुकानदार को दिया और ज़रूरी सामान लेकर लौट लिया घर को, मगर कान्हा का छः वर्षीय बालक स्टेडियम से गुज़रते हुये वहीं रूक गया । बोला “बाबा ! देखो नी म्आईने कांई हो रियो है ...।”

“कुछ नीं हो रियो है बेटा । आपां ने ईयूं कांई लेणों-देणो है ? चाल मां इन्तज़ार करेली ।”

“नीं बाबा, देख ना बैण्ड-बाजो बाज रियो है...। देख बाबा गाड़ियां पे झाांकियां सज्योड़ी हैं ।”

“हां...हां बेटा ! देख रियो हूं । तू चाल घरे...।”

“बाबा, देखो नेताजी शायद ज़मीनॉं-रा कागद बांट रिया है....।” बच्चे ने सर्टिफिकेट देते शायद जिलाधिकारी को देख लिया था ।

ज़मीन का नाम आते ही कान्हा का दिल जल उठा । उसे लगा उसकी लोहा पिघलाने वाली भट्टी उसके अन्दर जलने लगी हो । उसने अपने बेटे का हाथ ज़ोर से खींच लिया और धकेलता-सा ले चलने लगा, “चाल बेटा अठै से....। तने पतो कोनी आज दिन आपणो देष आज़ादी री पचासवीं सालगिरह बणा रियो है ।”

“फेर तो आज आपां ने जरूर ज़मीन मिलेली.....। पक्का मकान......बिजली-पानी.....पेट भर रोटी....।” बच्चे ने भोलेपन से कान्हा को कह दिया ।

“नीं....! आपणे कुछ भी कोनी मिले.....। आपां ने यान ही रहणो है ....कच्चा झोपड़ा में ....। यान ही लोहाऊं लड़नो है । घण चला-चलार और यान ही रूखी-सूखी खार सो जाणो है ....। ई देष रे साथ-साथ बेटा आपणो भाग में ओ ही लिख्योड़ो है । चाहे देष पचासवीं री सालगिरह मनावे या सौवीं री....।” कहते हुये बेटे को घसीटते हुये कान्हा आगे बढ़ गया । उसकी आंखों में आंसू थे और मन मंे देष की दुर्दषा की ग्लानि....।

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