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रिसता हुआ अतीत

1 - रिसता हुआ अतीत

लाजो बेजान कदमों से चलती हुई अपना थका बोझिल शरीर लिए धम्म से कुर्सी पर बैठ गई । उसके ज़हन मं छटपटाती एक ज़ख्मी औरत चीख-चीखकर जैसे उसे धिक्कार रही थी, “क्यों बचाया तूने दीपक को ? आखिर एक निष्कर्मी आदमी को अपनी कोमल निर्दोष बेटियों का खून दिलवाकर क्या तूने उनके साथ अन्याय नहीं किया ? आखिर ज़रूरत ही क्या थी उसे खून देने की जिसने तेरे हर अरमान, हर सपने का खून कर दिया था और ठोकर मारकर चला गया उन्हीं बच्चियों को अनाथ छोड़कर, उनका बचपन छीनकर....। यही तो समय था जब तू अपने प्रतिशोध का बदला ले सकती थी..।“

“नहीं...। मैं ऐसा कभी नहीं कर सकती । आखिर मैं एक नर्स हूं और मेरी दोनों बेटियां डॉक्टर, जिनका एक ही धर्म है- दूसरों की सेवा । चाहे वह मित्र हो या शत्रु, और आखिर जैसा भी है वह मेरा पति और मेरी दोनों बेटियों का बाप है ।”

“वही बाप जो तुझे और तेरी कोमल बच्चियों को रोता-बिलखता असहाय छोड़कर चला गया था.... वही बाप न, जो पुरूष होने का दम्भ भरता अपने अभिमान में सिर उठाये चला गया था तुझे ठीक मझधार में छोड़कर...? बोल न, अब चुप क्यों हो गई..?” लाजो के अन्दर बैठी ज़ख्मी नारी जैसे उस पर हावी हो गई थी । वह उसके अन्दर चल रहे द्वन्द से लड़ कर निढाल होकर रह गई थी । आंखों में अनचाहे आंसुओं के साथ ही उसके मस्तिष्क में अतीत की एक-एक याद उभरती चली गई ।

उस दिन ना चाहते हुये भी दीपक की पुत्र प्राप्ति की अभिलाषा के कारण मज़बूरन तीसरी बार प्रसव के लिए अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था उसे और तीसरे प्रसव में पाई थी सात मास की कमज़ोर बच्ची जो अस्पताल की नर्सरी में पड़ी-पड़ी हर सांस में शायद अपने कठोर बाप को पुकारती थी । मगर उसका बाप इतना कठोर था कि उसका चेहरा तक देखने नहीं आया था । और लाजो....। लाजो रो-रोकर निढाल हो गई थी । हर पल दरवाज़े पर उसकी सूनी डबडबाई आंखें लगी रहीं थीं मगर दीपक नहीं आया था । लाजो चाय-पानी, दवाईयों तक के लिए तरसती रही थी । दूसरों की सहानुभूति की पात्र बनी नारी होने का जैसे दुःख भोग रही थी ।

और वह उस मनहूस दिन को आज तक भी नहीं भुला पाई है जिस दिन वह नन्हीं बच्ची अपने बाप का इंतज़ार कर-करके पुनः सो गई थी सदा के लिए । फिर मानो लाजो की आंखों में खून उतर आया था । नारी जाति के प्रति इतना घोर अन्याय.....इतनी घृणा....! उसने मन ही मन दृढ़ संकल्प कर लिया था दीपक को इस पाप की सज़ा देने का । उसे दीपक के नाम तक से नफ़रत हो गई थी । ऐसे स्वार्थी पुरूष के साथ जीवन निर्वाह करना अब उसके लिए जैसे असम्भव था । उसकी तनख्वाह में घर खर्च ही नहीं चल पाता था उस पर हर वर्ष संतान गर्भ में पालने को और मज़बूर किये रहता । उसका हृदय विषाक्त हो उठा था दीपक के व्यवहार के प्रति । वह कितना रोई थी फूट-फूटकर.....। मगर उसके दिल की व्यथा सुनने वाला उसका अपना कोई नहीं था वहां । हां, वह डॉक्टर जोशी ज़रूर थीं जिसकी आंखों में उसने अपनी स्वर्गवासी मां-सी ममता देखी थी । कितनी ही बार उसने उसे सांत्वना देते हुये समझाया था, “बेटी ! यूं हताश होकर रोते नहीं । तुम्हारा पति ज़रूर किसी आवश्यक काम में उलझ गया होगा । सब्र करो वह ज़रूर आयेगा तुम्हें लेने ।” और तब लाजो ने अपनी आंखों में आंसुओं का सागर लिए निहारा था डाक्टर जोशी को, “नहीं डॉक्टर,, वो नहीं आयेंगे । पहले प्रसव में जब लड़की हुई थी तब भी उन्होंने यूं ही इन्तज़ाार करवाया था, यूं ही दुखाया था मुझे । आखिर वो जानते जो हैं कि मैं....मैं असहाय हूं, उन पर निर्भर हूं । इस दुनिया में उनके सिवाय मेरा और कोई नहीं...।“ कहते-कहते उसकी आंखों में थमे आंसू नदी की बाढ़ से बह निकले थे ।

मगर बच्ची के मृत्योपरान्त उसकी आंखों में आंसू नहीं, प्रतिशोध की ज्वाला धधक उठी थी । उसे बच्ची की मृत्यु के पश्चात् छुट्टी दे दी गई थी, मगर वह जाती भी तो कहां...? और वह जानती थी कि अब दीपक ज़रूर आयेगा उसे लेने । इसीलिए शायद वह दिन भर बैठी रही थी पलंग पर प्रस्तरखण्ड-सी जड़वत उसका इंतज़ार करते । पूरा वार्ड ही उसकी दयनीय दशा पर शोक मना रहा था और वह जैसे तमाशा बन गई थी आने-जाने वालों के लिए । मरीज़ों का प्रत्येक मिलने वाला उसे सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से देखता निकल जाता । नारी जाति के लिए इससे कष्टप्रद क्षण और क्या हो सकता है कि वह इस प्रकार निर्दोष होते हुये भी समाज में तिरस्कृत, मज़बूर और हताश कर दी जाये ।

और जब अस्पताल की खिड़कियों से झरता उजाला चुपचाप अंधेरे में लीन हो गया था, मरीज़ों के रिश्तेदार अपने-अपने मरीज़ों को चाय-दूध देकर लौटने लगे थे तब दीपक दोनों बच्चियों की अंगुलियां पकड़े लड़खड़ाता उसे ढूंढता चला आया था । दीपक को देखकर उसका रोम-रोम क्रोध से भर उठा था । हाथों की मुट्ठियां भिंच गई थीं अनायास ही । वह उसे क्रोधपूर्ण दृष्टि से आंखों में ज्वाला से शोले लिए घूरने लगी थी, लेकिन दीपक इस सबसे बेखबर होकर लड़खड़ाती जु़बान में बड़ी सहजता से बोला था, “भगवान जो करता है अच्छा ही करता है । देखा न, वह जानता था कि मुझे लड़की की ज़रूरत नहीं उसने उसे अपने पास बुला लिया । अब चलो घर.....भूल जाओ जो हुआ । देखना अबकि भगवान ज़रूर हमें लड़का देगा...।”

दीपक की बातें सुनकर तो लाजो का दिल और जल उठा था । दीपक से अंगुलियां छुड़ाकर दोनों बच्चियां उससे लिपट कर फूट पड़ीं थीं और वह प्रस्तरखण्ड-सी जड़वत दीपक की नशे में डबडबाई आंखों में अपना और अपनी बच्चियों का भविष्य खोज रही थी । अनायास ही दीपक ने उसका हाथ थाम लिया था, “चलो न डार्लिंग ! यूं घूर-घूरकर क्या देख रही हो मुझे...?”

वह चीख पड़ी थी, “छोड़ दो, मुझे हाथ मत लगाओ......।” उसकी आवाज़ सुनकर आस-पास के मरीज़ उसे देखने लगे थे और नर्स व डाक्टर जोशी भी दौड़कर चले आये थे वहां । मगर वह इस सबसे बेखबर शेरनी-सी दहाड़ी थी, “आज ख्याल आया है तुम्हें मेरा ? जब दस दिन से तिल-तिलकर मर रही थी, चाय-दूध, दवाईयों तक के लिए मोहताज दूसरों की सहानुभूति की पात्र बनी घुट रही थी तब.......? तब क्या हो गया था तुम्हें ? आज जब मेरी बच्ची ने दम तोड़ दिया तब तुम आये हो ? वह भी पुनः लड़का पैदा करने की आस में ....? धिक्कार है तुमको और तुम्हारे जैसे पुरूषों को जो नारी को एक शराब से भरी बोतल के अतिरिक्त कुछ नहीं समझते । अरे जिस नारी जाति ने तुम्हें जन्म दिया है उसी से इतनी घृणा.....? उसी का इतना घोर अपमान......?”

दीपक ने उसे झिड़क दिया था, “इतना भाषण मत झाड़, । अगर आज तुझे छोड़कर चला जाऊं तो बता कहां जायेगी.....? अरे पति से ही सब कुछ है औरत का । आज मेरे साथ न चलेगी तो ये ज़माना नोंचकर खा जायेगा तुझे । चल मेरे साथ....।” दीपक ने पुनः उसका हाथ पकड़ लिया था । वार्ड के तमाम मरीज़ दीपक को घृणा की दृष्टि से देख रहे थे । डॉक्टर जोशी भी सारी स्थिति समझ चुकी थीं इसीलिए डॉक्टर ने दीपक से कहा था, “ये ठीक कहती है, तुम्हें अपने और बच्चों के भविष्य के विषय में सोचना चाहिये । देश अतिजनसंख्या के कोढ़ से पीड़ित है और तुम लड़के-लड़की के फर्क में पड़े हो अभी तक ? यह पता नहीं कि इसी तरह हमारे देश की जनसंख्या एक अरब से कहीं अधिक पहुंच गई है । बेकारी एक महामारी बनकर देश के सामने मुंह फैलाये खड़ी है और तुम इस पर अत्याचार करने पर तुले हो ...?”

दीपक जैसे चिढ़ चुका था, सो ऊंची आवाज़ में बोला, “डॉक्टर ! तुम भी इसकी हिमायत ले रही हो ? अरे तुम होती कौन हो ? आज मैं इसे छोड़ दूं तो क्या तुम रख लोगी इनको ? इन बच्चों को पाल लोगी ?”

“हां पाल लूंगी, और तुम से अच्छा । नारी इतनी असहाय नहीं कि तुम्हारे जैसे शराबी पुरूष अपने अभिमान में आकर उसे दुखाते रहें, उस पर जु़ल्म ढाते रहें....।” डॉक्टर जोशी ने दृढ़ता से कह दिया था और लाजो आश्चर्यचकित-सी डॉक्टर को देखती रह गई थी । और दीपक....! वह तो जल-भुनकर चीख पड़ा था, “अरे चार दिन बर्तन मंजवाकर निकाल दोगी तुम भी । फिर देखना अगर रोती हुई मेरे पास ना आये तो.....। और तब....तब मैं उसे दुत्कार कर लौटा दूंगा क्योंकि तब तक मैं इसकी सौत ला चुकूंगा....।” कहता भनभनाता चला गया था दीपक और लाजो डॉक्टर से लिपटकर फूट पड़ी थी ।

फिर डॉक्टर के बंगले का आउट हाऊस और नर्स की ट्रेनिंग......। वीरान सूने रेगिस्तान-सी पगडण्डी जो हर बार उसे राह से भटकाने की कोशिश करती । मगर उसने तो अपना सारा जीवन अपनी बच्चियों को अर्पित कर दिया था । अपने अरमानों की खिड़की बंद कर ताला लगा दिया था अपने दिल पर और चाबी वहीं रेगिस्तान के रेतीले टीलों में छुपा आई थी । बेटियों को किसी लायक बनाना ही उसका मात्र लक्ष्य था, इसीलिए तो दोनों बेटियों को अच्छी स्कूल में पढ़ाती रही । वह ट्रेनिंग के पश्चात् उसी अस्पताल में नर्स बन गई । दीपक का ख्याल तक उसने अपने मन से निकाल दिया था । अब उसकी भावनाओं को कुचलने वाला कोई ना था । कई वर्ष यूं ही निकल गये । दोनों बेटियां शिखा और अंजू स्कूल से कॉलेज और कॉलेज से मेडिकल कॉलेज तक पहुंच गई । और वह दिन उसकी ज़िन्दगी का सबसे संुदर दिन था जब शिखा और अंजू डॉक्टरी पास करके डॉक्टर बन गई । तब जैसे उसकी साधना सफल हो गई थी ।

अनायास ही लाजो के कन्धे पर किसी ने हाथ रख दिया, “सिस्टर ! पेशेंट को होश आ गया है ।” वह न चाहते हुए भी उठ बैठी । उसका सिर अतीत की दुखद स्मृतियों को याद करते-करते भारी हो चला था । वह भारी मन और बोझिल तन से वार्ड की तरफ चल दी । वहां देखा तो शिखा व अंजू पहले से ही मौजू़द थीं । उसने दीपक को एक बार नज़र भरकर देखा और फिर नज़रें हटा लीं, लेकिन दीपक ने उसकी ओर नज़र उठाई तो जैसे नज़रें उसके चेहरे से चिपक कर रह गई । वह कुछ याद करता-सा बड़बड़ाया, “आप....आप कहीं लाजो....?”

“हां !” लाजो ने दृढ़ता से कह दिया ।

“और शिखा व अंजू...?”

“ये रहीं आपके सामने । ये डॉक्टर शिखा और ये डॉक्टर अंजू ।”

दीपक की आंखों से अविरल आंसू बह निकले । वह भर्राये स्वर में बोला, “तुमने मुझे क्यों बचा लिया..? काश.! मुझे मर जाने दिया होता.। मैं .....मैं तो तुम्हें मुंह दिखाने के काबिल भी नहीं..।” वह फूट पड़ा ।

“मैं एक नर्स हूं और मेरी दोनों बेटियां डॉक्टर, जिनका कर्तव्य मौत से लड़कर जीवन प्रदान करना है और फिर तुम्हें इस बात का अहसास भी तो करवाना था कि नारी पुरूष से किसी भी स्तर पर कमज़ोर नहीं और ना ही पुरूष पर आश्रित ही । देखा, जिन लिड़कियों को लेकर मुझे मारते-पीटते थे, जिनको सदा कोसते थेे वे ही लड़कियां आज तुम्हारे कितने काम आई । इन्हीं का खून आज तुम्हारी रगों में दौड़ रहा है । आज इन्होंने तुम्हारा ऋण उतार दिया है ।”

दीपक तकिये में सिर छुपाकर फूट पड़ा, “तुम सच! कहती हो । जिस अभिमान को लेकर मैंने तुम्हें छोड़ा था उसी की सज़ा भी मैं पा रहा हूं । दूसरी शादी करके मैंने अपनी पत्नी की मौत के साथ ही एक लड़का तो पा लिया मगर वह भी निरा निकम्मा, मेरी ही तरह शराबी..जुआरी....जिसने मुझे दर-दर की ठोकरें खाने पर मज़बूर कर दिया। तुमने आज मेरी आंखें खोल दीं हैं । तुम साक्षत् देवी हो लाजो...साक्षात् देवी । एक महान् औरत.......एक महान् मां.....। मैं तुम्हें शत् शत् प्रणाम करता हूं ..।” और जब दीपक ने अपना आंसुओं से भीगा चेहरा तकिये से बाहर लाजो से माफी मांगने के लिये निकाला तो पाया कि वहां कोई नहीं था । शायद लाजो अपनी दोनों बेटियों को लेकर वहां से जा चुकी थी । दीपक से ना रहा गया तो पश्चात्ताप में पुनः तकिये में मुंह देकर ज़ोर से फूट पड़ा ।

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