आसपास से गुजरते हुए
(21)
धूप कभी उलझता नहीं
उफ, यह क्या हो गया है मेरे साथ। शेखर ने कहा था, मर्दों पर विश्वास करना सीखो। मैं कब कर पाऊंगी उन पर विश्वास। क्या होता जा रहा है मुझे! मेरे दिमाग में हथौड़ियां-सी बजने लगीं। सजा मैं किसी और को नहीं, अपने आपको दे रही हूं। सच कह रहे हैं आदित्य, मेरे अंदर जबर्दस्त कुंठा भरी हुई है। मैं लगभग आधे घंटे यूं ही स्तब्ध-सी बैठी रही। बस, मेरी सांसें आ-जा रही थीं, दिमाग बिल्कुल काम नहीं कर रहा था।
डॉ. वर्षा अभ्यंकर लौटकर आईं, तब भी मैं वैसी ही बैठी थी।
वे आते ही बिस्तर पर धम से पसर गईं और साड़ी के आंचल से पसीना पोंछती बोलीं, ‘मार्च के शुरू में ये हाल है, तो पता नहीं गर्मियों में क्या होगा! बाबा रे, लगता है भट्ठी में बैठकर आई हूं।’ मेरा उतरा चेहरा देखकर वे फौरन मेरे पास चली आईं, ‘क्या हुआ, तुम्हारा चेहरा सफेद क्यों पड़ गया? आदित्य से कहा था मैंने, तेरा ध्यान रखे। अब बाबा! पता नहीं, कहां ध्यान रहता है लड़के का...’
मैंने संकोच से कहा, ‘नहीं, आदित्य ने तो पूछा था...’
‘कुछ खाया तूने?’
‘मैं अपने लिए दो गर्म थाली पीठ बनवा रही हूं। तू भी खाएगी?’ मुझसे बिना पूछे वे उठ गईं। दस मिनट बाद वे कमरे में दो प्लेट लेकर आईं। गर्म-गर्म थाली पीठ पर ताजे मक्खन की डली पिघल गई थी। मैंने एक कौर मुंह में रखा, तो भूख जाग गई। नि:शब्द हम दोनों ने खाना खाया। महाराजिन प्लेटें उठाने आई, तो मुझे अजीब-सा लगा। इस घर में कितने हक से इस तरह खा रही हूं मैं।
खाना खाते ही डॉ. वर्षा की आंखें बंद होने लगीं। वे मेरा हाथ पकड़कर बोली, ‘मैं आधे घंटे के लिए सो जाऊं? क्या करूं, बूढ़ी हो गई हूं न, दोपहर को झपकी आ ही आती है।’
उस क्षण वे भूल गई थीं कि मैं यहां क्यों आई हूं। मैं उठ गई, ‘आप कहें तो मैं बाद में आ जाऊं?’
‘अच्छा,’ उनींदे स्वर में वे बोलीं। अचानक वे चेतीं, ‘बाद में कब? ना, ना, तू यहीं रुक। मैं बस घंटे-भर में फ्रेश हो जाऊंगी।’
जब तक वे अंतिम शब्द बोलीं, उनकी आंखें पूरी तरह बंद हो चुकी थीं। मैं चुपचाप कमरे से बाहर निकल आई। दस-पंद्रह मिनट बरामदे में विचरती रही। आदित्य कहीं नजर नहीं आए। मैं बिना मतलब रैक पर पड़ी पत्रिका के पन्ने उलटने लगी। दो बार डॉ. वर्षा के कमरे में झांग आई। वे गहरी नींद सो रही थीं।
मेरी समझ में नहीं आया, क्या करूं। आदित्य शायद चले गए थे। उन्हें लगा होगा, बेकार इस लड़की के पीछे समय बर्बाद किया। घंटे-भर बाद मेरा वहां बैठना मुश्किल हो गया। शाम हो गई थी। मैं उठ गई। डॉ. वर्षा के सिरहाने घड़ी के नीचे कागज के पुर्जे पर लिख दिया-आज मैं जा रही हूं, कल फोन करके आऊंगी।
वर्षा के घर से बाहर निकली, तो मुश्किल से ऑटो मिला। घर के बाहर कदम ठिठक गए। बरामदे में अप्पा खड़े थे, कुछ परेशान से। उनके चेहरे से लग रहा था, जैसे अचानक दस साल बूढ़े हो गए हों। सफेद लागवाली धोती का एक सिरा हाथ में थामे वे लपकते हुए मेरे पास चले आए, ‘यन्दा मोले! मैं कब से तुम्हारी राह देख रहा हूं, कहां चली गई थी?’
मैंने कुछ नहीं कहा, अप्पा मेरा हाथ थामकर अंदर ले आए। सुरेश भैया, शर्ली, विद्या दीदी, मुकुंदन-मेरा पूरा परिवार इकट्ठा था। मैं ठिठक गई।
सबके चेहरे पर राहत थी। मैंने सुकून की सांस ली, इस वक्त मैं किसी भी किस्म के नाटक के लिए तैयार नहीं थी। तनाव की वजह से सिर फट रहा था। तन-मन ढीला पड़ चुका था। किसी से कुछ कहने-सुनने की इच्छा नहीं थी।
आई सबके लिए चाय ले आई। बरसों बाद उनका पूरा परिवार एक साथ था। मुझसे उन्होंने कुछ पूछा नहीं। चाय पीते ही उन्हें सबके रात के खाने की चिंता सताने लगी। विद्या दीदी उनकी मदद करने लगी। दाल, चावल, आमटी, बेसन-प्याज की सूखी सब्जी, चपाती और मसाला छाछ बनाते-बनाते आठ बज गए।
आई ने सबके सोने की तैयारी बाहरवाले कमरे में कर दी। पुराने गद्दे निकाले गए। रंग उड़े तकिया-गिलाफ, चादर, मच्छरदानी लगाई, तो सूना घर भरा-भरा लगने लगा। अब तक मैं सबकी बात सुन रही थी। मुझसे किसी ने कोई व्यक्तिगत सवाल नहीं किया था। मैंने भी अपनी तरफ से कुछ नहीं कहा।
बस एक उत्सुकता थी अप्पा से जानने की कि उन्होंने शादी क्यों नहीं की? मैंने बहुत कोशिश की उनका चेहरा पढ़ने की। अप्पा के पास एक खूबी है। जब चाहे वे चेहरे पर मुखौटा चढ़ा लेते हैं। इस वक्त वे अपनी उम्र से ज्यादा बूढ़े, कमजोर और उदासीन आदमी लग रहे थे। अप्पा ने लापरवाही से पुरानी लुंगी पहन रखी थी।
खाना खाते-खाते दस बज गए। अप्पा खुद सबको सर्व कर रहे थे। लग ही नहीं रहा था कि बस कुछ दिनों पहले सुरेश भैया के साथ उनका वाक-युद्ध हुआ था। मैं उदासीन-सी बस एक रोटी कुतरती रही। अप्पा ने मेरी तरफ बड़ी कटोरी में आमटी डालकर बढ़ाते हुए कहा, ‘अनु, तुझे तो बहुत पसंद है ना। यह क्या, तू ठीक से खा क्यों नहीं रही?’
अप्पा का मेरी तरफ इतना ध्यान देना मुझे असहज कर रहा था। हालांकि अप्पा यह मेरे ही साथ कर सकते थे। मैं थी उनकी सबसे छोटी और लाडली अनु। अप्पा मेरे पास ही थाली लगाकर बैठ गए।
आई रसोई से गर्म चपाती का कैसरोल लेकर आई तो अप्पा ने सहजता से कहा, ‘निशिगन्धा, तुम भी खाने बैठो। कितने दिनों बाद सब बच्चे इकट्ठा हैं।’
एक साथ हम तीनों भाई-बहनों की निगाहें मिलीं। अप्पा आई से सीधे बोल रहे हैं?
आई ने कैसरोल नीचे रखकर तेजी से कहा, ‘तुम्हीं जेवा। आज मेरा उपवास है।’
आई तेजी से अंदर चली गईं। क्या आई कभी अप्पा को माफ नहीं करेंगी? अप्पा ने जो किया है, उसके बाद तो मुश्किल ही है, पर फिर भी दिल के एक कोने में चाहत थी कि आई आज सबके साथ बैठक खा लेतीं, तो क्या हो जाता? आखिरकार, अप्पा ने भी दूसरी शादी नहीं की ना।
रात को आई ने गद्दों पर चादर बिछाते हुए मुझसे पूछ लिया, ‘क्या इधर ही तेरा बिस्तर लगा दूं?’
‘कहीं भी लगा दो आई...’
‘तू मेरे पास सो जा। अंदर कमरे में पंखा तेज चलता है।’ वे शांत लग रही थीं।
लगभग ग्यारह बजे हम सब सोने चले गए। सब थके हुए थे। विद्या दीदी कल सुबह-सुबह अपनी पुरानी सहेलियों से मिलने जाना चाहती थीं। वे सालों बाद सबसे मिलनेवाली थीं, इसलिए खासी उत्तेजित लग रही थीं।
खाना खाते समय उन्होंने पूछा था, ‘अनु, तुझे पता है, आजकल साहिल कहां है?’
मैं चौंक गई। मैं तो उसका नाम भी भूल गई थी। मैंने ‘ना’ में सिर हिलाया, ‘उसकी शादी के बाद कभी मिली नहीं?’
मैंने सिर झुका लिया। कहना चाहती थी कि जो मेरी जिंदगी से चला गया, उसे मैं दूर तक साथ लेकर नहीं चलती।
इसके बाद विद्या दीदी ने कुछ नहीं पूछा।
लगभग साढ़े ग्यारह बजे किसी ने दरवाजा खटखटाया, मुझे तो पता ही नहीं चला। सुरेश भैया ने कमरे में आकर मुझे जगाया, ‘आदित्य आए हैं, तुमसे मिलना चाहते हैं, क्या कहूं?’
मैं कुछ कहती, इससे पहले वे कमरे में आ गए। आई हड़बड़ाकर उठ गईं। आदित्य वहीं पड़ी आदमकद कुर्सी पर बैठ गए। भैया शंकित-से वहीं खड़े रहे।
आदित्य ने सपाट स्वर में पूछा, ‘तुम बुआ के घर से इस तरह क्यों आ गई?’
मैंने धीरे-से कहा, ‘वो...डॉ. वर्षा सो रही थीं, मुझे लगा, उन्हें डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए।’
‘बुआ मुझ पर खूब बरसीं। उन्हें लगा, मैंने तुम्हें कुछ कह दिया है...’
‘ना, आप क्यों कहेंगे?’ मैं रुककर बोली, ‘वैसे भी ‘सॉरी’ मुझे कहना चाहिए, बदतमीजी से तो मैं बोली थी।’
‘नेवर माइंड,’ आदित्य की आवाज ठंडी थी।
भैया कुछ आश्चर्य से हम दोनों का चेहरा देख रहे थे।
‘फिर क्या सोचा है?’ आदित्य ने सीधे पूछ लिया।
‘कल जाऊंगी न...’
‘मैं लेने आऊं?’
‘नहीं, मैं आ जाऊंगी। मुझे रास्ता पता है।’
आदित्य उठ गए। मैं उन्हें दरवाजे तक छोड़ने गई। इस बीच सभी लोग बारी-बारी बिस्तर से उठ चुके थे। सिर्फ अप्पा खर्राटे भरते हुए सो रहे थे।
विद्या और शर्ली मेरे पीछे-पीछे आ गईं।
‘कौन था?’ सवाल शर्ली ने पूछा।
मैंने बता दिया।
‘इस वक्त क्यों आया था?’ विद्या दीदी ने पूछा।
वह भी मैंने बता दिया।
‘मैं तो कुछ और ही सोच रही थी...’ वह जीभ काटती हुई रुक गई।
‘हूं! मैंने हुंकारा भरा।’
शर्ली ने जल्दी से कहा, ‘बता दीजिए न दीदी...’
‘वो...मैं और मुकुंदन सोच रहे थे कि तेरा बच्चा गोद ले लें...’ दीदी की आवाज में कम्पन था, ‘अगर तुझे आपत्ति ना हो तो...!’
तो अब मेरे भाई-बहन मुझसे बात करते भी डरने लगे हैं!
‘क्या सोचा है तूने...’
‘नहीं, ताई, रहने दो। तुम किसी संस्था से बच्चा गोद ले लो...’
‘क्यों? मतलब तेरा मन...’
‘मन का सवाल नहीं उठता ताई। मैंने तय कर लिया है, मुझे हिस्सों में बंटकर नहीं जीना, बस!’
‘इसमें तुम कौन-से हिस्सों में बंट जाओगी? क्या तुम्हें शक है कि हम बच्चा सही ढंग से नहीं पालेंगे।’
मैं चिढ़ गई, ‘ताई, अगर बच्चा पैदा करना और पालना ही है, तो मैं अपने बच्चे को खुद पाल लूंगी!’
विद्या दीदी नाराज हो गई, ‘तू पागल हो गई है अनु। तेरा दिमाग खराब हो गया है। तुझे पता नहीं, तू क्या बोल रही है।’
सुरेश भैया ने बीच-बचाव किया, ‘रात को इस तरह क्यों झगड़ रहे हो? सो जाओ। सुबह बहुत सारे काम करने हैं, समय हो, तो झगड़ लेना!’
मैं चुपचाप आई के कमरे में आ गई। मन में एक इंच गुस्सा ना था। बस कोफ्त थी। दोपहर को आदित्य के साथ अपने व्यवहार के लिए। मैं देर तक आदित्य के बारे में सोचती रही। उनका रात को इस तरह मेरे बारे में पता करने आना मुझे अच्छा लगा। सालों बाद मैं किसी पुरुष के बारे में सकारात्मक हो रही थी। अमरीश के बाद इस तरह से कोई नहीं मिला, जिसे देखते ही मन में गुदगुदी हो, जिसका स्पर्श रोमांचित कर जाए। आदित्य ने शादी क्यों नहीं की? आंख मुंदते समय भी यही सोचा कि कल जब मिलेंगे, तो पूछूंगी।
मेरे मना करने के बावजूद आदित्य मुझे लेने घर पर आ गए। विद्या दीदी शर्ली के साथ अपनी सहेलियों से मिलने जा चुकी थी। अप्पा भी बाहर गए हुए थे। घर पर सिर्फ मैं, आई और सुरेश भैया थे। आदित्य ने आते ही बड़ी आत्मीयता से आई से पूछा, ‘आज पोहा नहीं बनाया मिसेज गोविंदन!’
आई हड़बड़ा गईं, ‘बस अभी बनाती हूं। दहा मिनट लागणार। तुम्हीं बैठा ग।’
सुरेश भैया और आदित्य आमने-सामने बैठे थे, बिना कुछ बोले। मैं चुपचाप अखबार पढ़ती रही। आई हम तीनों के लिए मसाला पोहा ले आईं। तेज पत्ता, लवंग और जायफल डालकर वे पोहे में खास फ्लेवर ले आती थीं। उनके हाथ का बटाटा कांदा पोहा मुझे बेहद पसंद था। मैंने प्लेट हाथ में लेते हुए धीरे-से पूछा, ‘मैं खा लूं न?’
आई ने मेरी तरफ देखा, फिर मुस्कुराकर बोली, ‘बिंदास! काय नाहीं होणार।’
आदित्य से मेरी नजरें मिलीं। उनकी आंखें कह रही थीं, सब ठीक हो जाएगा।
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