आसपास से गुजरते हुए - 20 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आसपास से गुजरते हुए - 20

आसपास से गुजरते हुए

(20)

पानी नहीं है नदी में

आई को इस उम्र में यह जिम्मेदारी सौंपना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। इससे तो अच्छा होता, मैं दिल्ली चली जाती। वहां मैं अकेली संभाल लेती, पर दिल्ली लौटने के नाम से मुझे दहशत होने लगी।

अगले दिन सुबह आई ने चाय का कप मेरे हाथ में थमाते हुए कहा, ‘मैंने पता किया है, आज ग्यारह बजे अभ्यंकर आएगा, उसी की पहचान की कोई लेडी डॉक्टर है...’

‘तुमने आदित्य को बता दिया।’ मैं बुरी तरह से चौंक गई।

‘तो क्या हुआ?’ आई सहजता से बोलीं।

‘आई, तुम ऐसे कैसे किसी को भी बता सकती हो?’ मुझे गुस्सा आ गया।

‘जब तेरे अंदर गिल्ट नहीं है, तो तू परेशान क्यों हो रही है?’

‘इसमें गिल्ट की बात नहीं है। पर सबको बताकर मेरा तमाशा क्यों बना रही हो?’

आई की आवाज तेज हो गई, ‘और तू मुझे जो यहां-वहां ले जा रही है, वो तमाशा नहीं है? आदित्य की बुआ डॉक्टर है, उसके कहने पर वह एबॉर्शन कर देगी। अगर तुझे नहीं चलना, तो वहीं जा पर्ल, वहां जाने का भी तेरा मन नहीं है! अग! बता, तू साफ-साफ बता, तुझे क्या करना है?’ आई हांफती हुई बैठ गई।

मुझसे कुछ कहते नहीं बना। आई पर जबर्दस्त गुस्सा आ रहा था। दस बजे आदित्य आए। सहजता से वे मुझसे और आई से बात करते रहे। मैं असामान्य रूप से चुप रही। आई ने उन्हें चाय और पोहा बनाकर दिया। मैंने नहीं लिया। आदित्य ने इसरार किया, तो आई ने स्पष्ट कहा, ‘कुछ ना खाए, तो अच्छा है। आज ही अगर काम होना है, तो....।’

मैं उठ गई। आई शायद मेरी जिम्मेदारी उठाते-उठाते थक गई थीं। अब उनको लग रहा होगा कि इस पार या उस पार, मेरा कुछ तो ठौर लगे। मैं कमरे में चली गई। आई ने मेरे पीछे-पीछे आते हुए कहा, ‘तैयार हो जा।’

मैंने बुझे स्वर में कहा, ‘मुझे नहीं जाना।’

आई फट पड़ीं, ‘यह तुमने क्या लगा रखा है? जब तुमने तय कर लिया है कि बच्चा नहीं चाहिए, तो अब क्या तकलीफ है? ‘हां’- ‘ना’ कुछ भी तय करके मेरी छुट्टी करो। मुझसे और नहीं सहा जाता रे बाबा! मैं तेरा भला सोचती हूं, तो भी तू बिगड़ती है। अब तुझे जो करना हो कर। मी काय नाय बोलणार!’ आई चली गईं।

मैंने आंसू से धुंधलाई अपनी आंखों को उंगलियों से पोंछा। कपड़े बदलकर मैं बाहर आ गई।

मुझे देखकर आदित्य खड़े हो गए।

आई ने पूछा, ‘मैं भी आऊं?’

मैंने उनकी तरफ खाली निगाहों से देखा, ‘नहीं, मैं संभाल लूंगी अपने आपको।’

मैं बिना उनकी तरफ देखे घर से बाहर आ गई। आदित्य ने गाड़ी का दरवाजा खोला, मैं चुपचाप आगे बैठ गई।

रास्ते-भर मैंने उनसे कोई बात नहीं की। उनकी बुआ का घर पुणे शहर के नए बने उपनगर सिद्धार्थ कॉलोनी में था। घर और क्लीनिक साथ में था। बुआ डॉ. वर्षा अभ्यंकर अधेड़ उम्र की प्रभावशाली महिला थीं। ध्यान से देखने पर उनके और आदित्य के चेहरे में काफी समानता थी। वही सांवला रंग, सुतवां नाक, भूरी आंखें, घुंघराले बाल। आदित्य की दाढ़ी-मूंछों में उनका चेहरा काफी कुछ छिप गया था।

लेकिन उनकी हल्की हंसी, भवों को ऊपर करके बात करने का अंदाज अलग था। मैंने महसूस किया कि बहुत पहले तब शायद मैं तेरह-चौदह साल की थी, दूरदर्शन पर ‘उड़ान’ धारावाहिक देखने के बाद मैं भी कल्याणी सिंह की तरह पुलिस इंस्पेक्टर बनना चाहती थी, इसलिए कि उस धारावाहिक का नायक डी.एम. हरीश यानी दाढ़ी वाला शेखर कपूर मुझे लुभा गया था। आदित्य की शक्ल काफी कुछ शेखर कपूर से मिलती थी।

डॉ. वर्षा मुझे पहली नजर में अच्छी लगीं। आदित्य ने उनके सामने मेरी तारीफ के पुल बांध दिए,‘आत्या, अनु दिल्ली में मल्टीनेशनल में काम करती हैं, कंप्यूटर में पारंगत है, इससे अपना वेब पेज बनवा लो!’

डॉ. वर्षा ने मेरी ओर प्यारी-सी निगाह डाली, ‘मुझे भी सिखा दो न! कम-से-कम इंटरनेट पर काम करने लायक तो सिखा ही दो। आदित्य की कृपा से घर में कंप्यूटर आ गया, पर ये मुझे सिखाता ही नहीं!’

‘मैं कैसे सिखाऊं? मुझे कुछ आता ही नहीं।’ आदित्य हंसने लगे।

माहौल काफी हल्का हो गया। अचानक आदित्य उठ गए, ‘आत्या, मैंने कल रात तुमसे बात की थी न? तुम देख लो, अनु बहुत सेंसिटिव है, इसलिए यहां...’ आदित्य बाहर चले गए।

मैं और डॉ. वर्षा कुछ क्षणों के लिए खामोश रहे। चुप्पी उन्होंने तोड़ी, ‘कितने साल की हो?’

मैंने धीरे-से कहा, ‘सत्ताईस, ढाई महीने बाद हो जाऊंगी।’

‘शादी नहीं की?’

मैंने ‘नहीं’ में सिर हिलाया।

वे पल-भर सोचती रहीं, फिर मेरी आंखों में झांकते हुए पूछा, ‘कैसे हुआ? किसी ने जबर्दस्ती की?’

मैंने ‘नहीं’ में सिर हिलाया।

‘ओह!’ वे चुप हो गईं।

‘चलो, क्लीनिक में चलते हैं, तुम्हारा चेकअप भी हो जाएगा...हमारी बातें भी होती रहेंगी।’

मैं उठकर उनके पीछे-पीछे चल पड़ी। क्लीनिक में मुझे इशारे से बिस्तर पर लेटने को कह वे स्टेथस्कोप निकाल लाईं।

‘अनु, भई तुम्हारा नाम बहुत अच्छा लगा। हम मराठी अनु को अनु नहीं रहने देते, अनुपमा, अनुराधा, अनुजा बना देते हैं!’

‘जी, मेरी मां मराठी हैं।’

‘अच्छा! तुम शक्ल से तो बिल्कुल उत्तर भारतीय लगती हो।’

‘मेरे पिताजी दक्षिण के हैं, केरल के।’

‘स्ट्रेंज! तुम्हारे तो बोलने-चालने में दक्षिण भारत का प्रभाव भी नहीं है।’

डॉ. वर्षा बात करते-करते जांच करती जा रही थीं।

स्टेथस्कोप वापस रखते हुए उन्होंने सहजता से पूछा, ‘कब करना है एबॉर्शन?’

‘जितनी जल्दी हो सके...’ मेरे मुंह से निकल गया।

‘ठीक है, फिर आज ही कर लेते हैं! तुम तैयार हो?’

‘जी!’ मैंने आंखें फेर लीं।

‘ओ.के.। मैं नर्स को बुलाकर लाती हूं। तुम यहीं आराम करो। बस आधे घंटे की बात है, फिर तुम घर जा सकती हो।’

उनकी आंखों में कहीं मेरे लिए उत्सुकता या जिज्ञासा नहीं थी। मुझे वे बेहद परिपक्व और संजीदा लगीं।

मैं चुपचाप लेटी रही। बस कुछ देर की बात है, मैं फिर से एक हो जाऊंगी। अपनी पुरानी जिंदगी में लौटने के योग्य। दस मिनट बाद डॉ. वर्षा क्लीनिक में आईं, ‘सॉरी अनु, एक इमरजेंसी केस आ गया है। तुम यहीं मेरे कमरे में बैठकर टीवी देखो, कुछ पढ़ो, मैं घंटे-भर में लौट आऊंगी।’

वे मुझे अपने कमरे में छोड़कर चली गईं। मैं असमंजस में थी, क्या करूं? जो हो जाना है वह तुरंत हो क्यों नही जाता! पहले लो ब्लड प्रेशर का अटैक, अब यह इमरजेंसी केस! अचानक कमरे का दरवाजा खुला और आदित्य अंदर आ गए। उनके हाथ में कटे सेब से भरी प्लेट थी। मेरे सामने प्लेट बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, ‘तुमने नाश्ता भी नहीं किया है, भूख लगी होगी न...’

मुझे वाकई भूख लग आई थी, मैंने दो सेब के टुकड़े उठा लिए। मैं धीरे-धीरे सेब कुतरने लगी।

आदित्य ने तुरंत पूछा, ‘और कुछ लाऊं? चाय पिओगी?’

मैंने उनकी तरफ देखा।

‘तकल्लुफ में मत पड़ो। आत्या (बुआ) के घर बरसों पुरानी महाराजिन है। वही बनाएगी। तुमने क्या सोचा, मैं बनाऊंगा?’

‘आपको चाय बनानी नहीं आती?’ मैंने पूछ लिया।

वे हंसने लगे, ‘बना तो लेता हूं, पर पीने लायक नहीं होती।’

पांच मिनट बाद आदित्य एक ट्रे में चाय लेकर आए।

मैंने भी नि:संकोच कप उठा लिया। चाय पीने के बाद मैंने कहा, ‘अब तो मेरा मन हो रहा है कि यहीं सो जाऊं।’

‘तो सो जाओ न! आत्या के आने में अभी देर है।’

मैं वैसी ही बैठी रही। ना मैं आदित्य को जानती हूं, ना डॉ. वर्षा को। पर मैं यहां पर इस तरह व्यवहार कर रही हूं, जैसे मेरा यहां बरसों पुराना संबंध हो।

‘आत्या ने आदेश दिया है कि मैं उनके आने तक तुम्हारा ख्याल रखूं। बोलो, क्या सेवा करूं? टीवी देखोगी, कुछ पढ़ोगी?’

वे सच में उठकर टीवी चलाने लगे।

‘नहीं, टीवी नहीं, कोई पत्रिका हो, तो...’

‘देखता हूं,’ वे उठ गए। डॉ. वर्षा के कमरे की खिड़की से बगीचा नजर आता था, मैं उठकर खिड़की के सामने खड़ी हो गई। आदित्य कब मेरे पीछे आकर खड़े हुए, मुझे पता ही नहीं चला। उनके हाथों का स्पर्श अपने कंधे पर पाकर मैं चिहुंककर मुड़ी, उनकी आंखों में अजीब किस्म के भाव थे। मैं सिहरकर वहां से हट गई। क्या सोच रहे हैं आदित्य कि मैं बिन ब्याही मां बननेवाली हूं, इसका मतलब किसी के लिए भी उपलब्ध हूं?

‘क्या हुआ?’ आदित्य ने कोमल आवाज में पूछा।

मैंने नियंत्रण खो दिया, ‘आपको मेरे बारे में सब पता है, इसका मतलब यह नहीं है कि आप मेरा फायदा उठा सकते हैं!’

‘मैंने ऐसा क्या किया?’

मैंने गुस्से से उनकी तरफ देखा, ‘आपने मुझे छुआ क्यों?’

‘मैंने जानकर कुछ नहीं किया। तुम्हें बुरा लगा तो आइ एम सॉरी।’

मैं भड़क गई, ‘मुझे पता है, आप मेरे बारे में क्या सोचते हैं? शायद आपको लगता है कि मैं सस्ती किस्म की लड़की हूं, जिसका कोई मॉरल नहीं।’

आदित्य चुप रहे। मैं बोलती चली गई, ‘आई ने पता नहीं क्यों, आपकी मदद ली। मैं नहीं चाहती कि आप मेरे बारे में कोई भी धारण बनाएं।’

आदित्य ने पलटकर संतुलित आवाज में कहा, ‘किसे फुर्सत है तुम्हारे बारे में सोचने की? ना मैंने तुम्हारे बारे में कुछ जानना चाहा, ना ही मुझे कोई इच्छा है। सिर्फ इसलिए कि तुम बिना शादी किए मां बनने जा रही हो, मैं तुम्हारा फायदा उठाऊं, यह तो मेरे लिए भी अपमानजनक बात है। मैं अपने सभी दोस्तों के साथ ऐसा ही व्यवहार करता हूं, उनकी पीठ पर मुक्का मारता हूं, कंधे थपथपाता हूं। मेरी भूल भी कि क्षण-भर को मैंने तुम्हें दोस्त समझ लिया।’

मैं चुपचाप उनका चेहरा देखने लगी।

‘तुम्हारे अंदर कितनी कुंठा भरी पड़ी है अनु! और तुम कहती हो कि तुम गिल्टी अनुभव नहीं कर रही। जो हुआ, क्या तुम उसे भूल पा रही हो?’

मैंने सीधे पूछ लिया, ‘आपको क्या पता कि मेरे साथ क्या हुआ?’

‘मुझे जानना भी नहीं।’ आदित्य दो-टूक कहकर कमरे से बाहर निकल गए।

***