आसपास से गुजरते हुए - 19 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आसपास से गुजरते हुए - 19

आसपास से गुजरते हुए

(19)

फिर वही तन्हाई

अगले दिन मैं शो देखने नहीं गई। दिन-भर टीवी देखती रही। शाम को कुछ दूर पैदल चली, अकेले में निराशा फिर घर करने लगी। पता नहीं, अब दिल्ली जाकर अकेली कैसे रह पाऊंगी? वही ऑफिस, वही काम, वही शेखर? क्या सब कुछ वैसा ही होगा?

घर वापस आई, रात के खाने की तैयारी करने लगी। फोन की घंटी बजी। सुरेश भैया का था। मेरे लिए परेशान थे। मैंने धीरे-से कहा, ‘मैं जानती हूं भैया, क्या करना है! आप मेरी फिक्र ना करें।’

भैया रुककर बोले, ‘तूने पूछा नहीं, अप्पा की शादी कैसी हुई?’

‘पूछना तो बहुत कुछ है! आप तो उसी दिन कलकत्ता लौट जानेवाले थे?’

‘हां! लेकिन अनु, अप्पा ने शादी के लिए मना कर दिया।’

‘अच्छा क्यों? यानी आखिरी वक्त पर?’

‘तेरी वजह से। विद्या ने उन्हें तेरी बात बताई, बहुत परेशान थे अप्पा। हो सकता है, तुझसे मिलने पुणे आएं...’

‘पर क्यों?’ मैं चौंक गई।

‘वो...उन्हें भी अहसास हो रहा होगा कि उन्हीं की वजह से परिवार बिखर रहा है!’

‘पता नहीं।’ मैं चुप हो गई। तो अप्पा ने दूसरी शादी नहीं की! मेरी वजह से...अप्पा ने जरूर कुछ और सोचा होगा। तो क्या वापस वे आई के पास आना चाहते हैं? मैं ना जाने क्या-क्या सोच गई।

‘अच्छा, मैं फोन रख रहा हूं। आई से कहना, कोचीन से हम सब सीधे पुणे आ रहे हैं, तुम दोनों से मिलने। अपना ख्याल रखना!’

सुरेश भैया के फोन से मैं हतप्रभ थी। उनका फोन रखते ही शेखर का फोन आ गया। उसकी आवाज भारी थी, ‘अनु, तुम ठीक तो हो?’

‘हां, बिल्कुल।’ मैं बिना उत्तेजित हुए बोली। शेखर ने कुछ सशंकित स्वर में कहा, ‘देखो, तुम चाहे जो कहो, मुझे लगता है, मैंने तुम्हारे साथ गलत किया है। जो भी हुआ उसका जिम्मेदार मैं हूं। अगर तुम गलत ना समझो, तो मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं...’ मुझे हंसी आ गई, ‘और माना, उसका क्या होगा?’

‘पता नहीं, तुम मुझ पर कितना विश्वास करोगी। माना के साथ मेरा कभी उस तरह का रिश्ता नहीं रहा। हां, सच है कि मैं उसे पसंद करता हूं, पर मेरी तुम्हारी तरफ भी नैतिक जिम्मेदारी है।’

मैंने रुककर कहा, ‘नहीं! मेरी तरफ तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं है। जो काम मैंने भावुकता में नहीं किया, उसका निर्णय भी मैं भावुकता में नहीं लूंगी।’

शेखर को शायद धक्का लगा, उसने धीरे-से पूछा, ‘क्या तुम खुश हो?’

मुश्किल था जवाब देना, ‘नहीं। पर मुझे शिकायत भी नहीं है। शेखर, तुम्हीं ने कहा था कि तुम अपनी जिंदगी जिओगे, मैं अपनी। हम वही करते हैं। यही हम दोनों के लिए अच्छा होगा।’

‘तुम सोच लो। मुझे कोई जल्दी नहीं है। तुम्हारे पास मेरे घर का फोन नम्बर है, जब चाहो कर लेना। बाय एंड टेक केयर।’

मैं फोन रखने के बाद देर तक शून्य की स्थिति में रही। जितनी जल्दी हो सके, मुझे अपनी स्थिति से उबरना होगा। देर हो जाएगी, तो मुझे खुद को संभालना मुश्किल होगा।

तीन दिन बाद आई को फुर्सत मिली। आई इस बीच काफी कुछ पता कर आई थीं। वे मुझे ऐसी क्लीनिक में ले गईं, जहां जाते ही मुझे रोना आ गया। एक पुरानी इमारत की दूसरी मंजिल पर था पर्ल क्लीनिक।

क्रूर शक्ल वाली नर्स-कम-रिसेप्शनिस्ट ने मुझे ऊपर से नीचे तक घूरकर देखा और खुले शब्दों में पूछा, ‘कौन सा महीना चल रहा है? बच्चा गिराने के वास्ते पैसा पहले जमा करना होगा।’ मेरी आंखों में गुस्से के मारे आंसू आ गए। छोटे से घुटनदार कमरे में जो तीन-चार लड़कियां चहचहा रही थीं, उनकी शक्ल देखते ही मैं क्लीनिक के बारे में समझ गई।

मैंने आई का हाथ पकड़ लिया, ‘आई, यहां से चलो!’

आई धीरे-से मेरे कान के पास आकर बोलीं, ‘अनु, यही एक क्लीनिक है, जहां बच्चे के बाप का नाम नहीं पूछते।’

मैंने चिहुंककर आई की तरफ देखा।

आई नर्स के पास जाकर फार्म भरने लगीं। उसने आई को विचित्र निगाहों से देखा। उस वक्त उसकी निगाह में आई कोठेवाली और मैं वेश्या थी! मुझे अचानक अपने आप से कोफ्त होने लगी। मैंने यह क्या कर लिया! अपने आपको और आई को किस मुसीबत में डाल दिया? क्या मैं इस त्रासदी-अपमान से उबर पाऊंगी, और आई? क्या अब इस नर्स की यह विद्रूप हंसी रात-रात-भर मेरा पीछा नहीं करेगी?

आई ने फार्म के साथ एक सौ तीस रुपए जमा किए और हम दोनों चुपचाप लकड़ी के बेंच पर बैठ गए। आधे घंटे बाद मेरा नाम पुकारा गया। नर्स मुझे कमरे में लेकर गई। मुझे स्ट्रेचर पर लेट जाने को कहा। जैसे ही कमरे में सफेद कोट पहने पुरुष डॉक्टर आया, मैं उठ गई, ‘यहां लेडी डॉक्टर नहीं है?’

नर्स ने व्यंग्य से कहा, ‘किया तो तुमने आदमी के साथ, अब लेडी डॉक्टर किसलिए मांगता है?’

मैं अपमान से सुलग उठी।

नर्स कहे जा रही थी, ‘इतना सस्ता एबॉर्शन अक्खा पुणे में किधर नहीं होता। नो लफड़ा, नो टेंशन।’

‘सिस्टर, आप चुप रहेंगी?’ डॉक्टर ने उसे धीरे-से फटकारा और मुझसे मुलायम स्वर में कहा, ‘आप लेट जाइए, मुझे आपका एक्जामिन करना है!’

डॉक्टर मुझे संवेदनशील लगा। मैं चुपचाप लेट गई। उसने मेरा टेंपरेचर और बीपी चैक किया और एक टेबलेट देते हुए कहा, ‘इसे खाकर आप आधे घंटे के लिए दूसरे कमरे में लेट जाइए। बारह बजे आपको अंदर ऑपरेशन थियेटर ले जाएंगे।’ डॉक्टर चला गया। नर्स ने कुछ नम्रता से कहा, ‘पानी ला दूं?’

मैंने ‘हां’ में सिर हिलाया। वह कांच के गिलास में पानी ले आई। मेरे हाथ में देते हुए पूछ लिया, ‘पहली बार आई हो?’ मुझसे कुछ बोलते नहीं बना। मैं चेहरा फेरकर लेट गई।

वह बड़बड़ाती रही, ‘आजकल के मर्द बड़े हरामी होते हैं। शादी का झांसा देकर फंसा लेते हैं, फिर साले मजा मारकर छोड़ देते हैं।’

मेरे सिर में उसकी बातें हथौड़े-सी बजने लगीं। मैंने धीरे-से कहा, ‘मेरी मां बाहर बैठी हैं, उन्हें अंदर भेज दोगी?’

‘वो तुम्हारी मां हैं?’ उसने उत्सुकता से पूछा। मेरे चेहरे पर कोई भाव ना देख वह आई को बुला लाई।

आई परेशान लग रही थीं, ‘तू ठीक तो है? बस घंटे-भर की बात है मुलगी। धीरज से काम ले।’ मैंने डॉक्टर की दी गोली मुट्ठी में भींच ली। अचानक मुझे चक्कर-सा आने लगा, सिर घूमने लगा, आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। गला सूखने लगा। मैंने मुश्किल से हाथ बढ़ाकर स्ट्रेचर का हत्था पकड़ लिया। आई घबराई हुई मेरे पास आईं, मुझे याद नहीं उन्होंने कहा कहा। मेरे चेहरे पर पसीने की बूंदें जगमाने लगीं, शरीर ठंडा पड़ने लगा।

आई ने ही शायद फौरन डॉक्टर को बुलाया था। डॉक्टर ने जांच की, मुझे लो ब्लडप्रेशर का अटैक हुआ था। पन्द्रह मिनट बाद आंख खुली, पानी पिया, फौरन वहीं सब उलट दिया।

डॉक्टर ने शांत स्वर में कहा, ‘आज आप इन्हें घर ले जाइए। इस हालत में हम एबॉर्शन नहीं कर सकते। मुझे लगता है, ये एनीमिक हैं। किसी अच्छे डॉक्टर के पास ले जाकर ग्लूकोज चढ़वाएं, फिर आइए यहां।’

मैं कांपती हुई खड़ी हुई, आई ने दुपट्टे से मेरे कान ढके। हम दोनों लड़खड़ाते हुए क्लीनिक से बाहर निकल आईं।

आई को अपने लिए इतना परेशान मैंने कभी नहीं देखा था। मुझे घर में बिस्तर पर लिटाकर वे ढेर सारे फल खरीद लाईं-मौसमी, संतरा, आम। रात को मुझे अल्फांसो आम का मिल्क शेक बनाकर दिया।

मैं बुरी तरह हिल गई थी। जिंदगी में अपने आपको इतना लाचार कभी महसूस नहीं किया था। दो दिन बाद आई ने खुद ही डरते-डरते पूछा, ‘अनु, चलना है कि नहीं?’ मैंने मायूसी से उनका चेहरा देखा और ‘हां’ में सिर हिला दिया। फिर से पर्ल क्लीनिक जाने के नाम से मेरी रूह कांप गई।

‘आई, हम कहीं और नहीं जा सकते? वहां मेरा दम...’

‘ठीक है, मैं पता करती हूं।’ आई ने ठंडी सांस ली।

***