Mannu ki vah ek raat - 26 - Last part books and stories free download online pdf in Hindi

मन्नू की वह एक रात - 26 - लास्ट पार्ट

मन्नू की वह एक रात

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग - 26

‘जब मैंने अंदर देखा तो जो कुछ दिखा अंदर उससे मैं एकदम गड्मड् हो गई। सीडी प्लेयर चल रहा था। एक बेहद उत्तेजक ब्लू फ़िल्म चल रही थी। और यह दोनों भी एकदम निर्वस्त्र थे। आपस में प्यार करते अजीब-अजीब सी हरकतें करते जा रहे थे। काफी कुछ वैसा ही कर रहे थे जैसा उस फ़िल्म में चल रहा था। दोनों में कोई संकोच नहीं था। बल्कि अनिकेत से ज़्यादा बहू बेशर्म बनी हुई थी। उसकी आक्रमकता के सामने मुझे अनिकेत कहीं ज़्यादा कमजोर दिखाई पड़ रहा था। दोनों सेक्स के प्रचंड तुफान से गुजर रहे थे। मैं हतप्रभ सी देख रही थी।

मेरी आँखों में कहीं मेरी अपनी सुहागरात की फ़िल्म तेजी से चल रही थी। और यह भी कि इन कुछ दशकों में क्या इतना कुछ बदल चुका है। एक जमाना था जब मैं सास-ससुर, या गांव से कोई भी आ जाता था तो उसके सामने पूरा तो नहीं लेकिन करीब-करीब घूंघट में ही आती थी। मायके जाती तो भी आंचल संभालने में कोताही न करती। यहां घर पर इन के साथ भी एक सीमा रेखा का पालन करती। पति के लाख उन्मुक्त जीवन की अवधारणाओं के बाद भी बरसों तक उन विशेष परिस्थितियों के अलावा कभी सेक्स के लिए पहल करने की हिम्मत न जुटा पाती थी। केवल बच्चे की चाह में ज़रूर दो-चार बार आगे बढ़ी थी। उनके हज़ार प्रयासों के बाद भी मैं उनसे सेक्स के दौरान उस तरह आक्रामक स्वच्छंद हो सारी सीमाएं नहीं तोड़ पाई थी जिस तरह मेरी बहू तोड़ रही थी।’

‘मगर तुम्हारी बहू कुछ गलत नहीं कर रही थी। जो कुछ कर रही थी अपने पति के साथ ही कर रही थी। स्वच्छंद तो तुम हुई जो पर पुरुष बल्कि एक छोकरे से हवस मिटाने लगी। पति के सामने सीमा रेखा से बाहर न आने का कोई मतलब है जबकि पर पुरुष से भी संबंध हों । मैं तो समझती हूं कि पति के साथ शरीर की भूख मिटाने में तुम संकोच न करती तो ही अच्छा था। तुम तृप्त रहती तो फैलती ही न पर पुरुष के सामने, पति के साथ जो भी करो वह तो अधिकार है तुम्हारा। तुम्हारी बहू जो कुछ कर रही थी सही कर रही थी, उसे उसका अधिकार था। पति के सामने कैसा संकोच ?’

‘अरे! बिब्बो तुम ....... तुम इस मामले में इतना बोल रही हो। मैं तो समझ रही थी कि तुम ...... ?’

‘अरे! क्यों नहीं बोल सकती भाई। भले तुम्हारे इतना नहीं पढ़ा तो क्या ? मगर जो समझा गहरे समझा अच्छे से समझा। जब पति अपनी मनमर्जी तरीके से भूख मिटाता है तो हम क्यों नहीं ?’

‘मुझे तो नहीं लगता कि तुमने कभी पति के सामने खुलकर अपनी भूख जाहिर की हो।’

‘ऐसा नहीं है। शुरुआती बरसों को छोड़ कर मैंने कई बार अपने मन की भी की। सच बताऊं पहले बच्चे के बाद ऐसी कोई खास भूख नहीं रही थी । साल छः महीने में कभी उभर आती थी। इसके लिए यह कभी झल्लाते भी थे। वैसे तुम बहू के बारे में जो बातें कह रही हो उसमें मुझे कुछ कमी नजर नहीं आ रही है। बल्कि कमी तो तुम्हारी दिख रही है कि तुम नई बहुरिआ के कमरे में छिपकर झांक रही थी। उन दोनों को संभोग करते देखती रही। तुम्हारा यह काम भी उस छोकरे के सामने फैलने से कम अनर्थकारी नहीं था। वैसे कब तक देखती रही उन दोनों को ऐसी अवस्था में। और फिर तुमने क्या किया? क्योंकि अब तक तुम्हारी बातें जानने के बाद मैं नहीं समझती कि तुम बिना कुछ किए रह सकी होगी।’

बिब्बो की बात सुनकर मन्नू ने एक गहरी सांस लेकर छत की ओर देखा। फिर बोली,

‘तब तक देखती रही उन दोनों को जब तक उनका मैथुनी खेल पूरा न हुआ।’

‘फिर उसके बाद ?’

‘मैथुनी खेल खेलकर दोनों बुरी तरह थक गए थे। लस्त-पस्त पडे़ थे। एकदम निर्द्वंद्व दीन-दुनिया से बेखबर। बिल्कुल समाधि जैसी हालत में। मुझे रजनीश की संभोग से समाधि की बात याद आ गई। कि पहले वासना से तो मुक्ति पाओ। उसे इतना जानो कि उस बारे में कोई उत्सुकता बाकी ही न बचे। मैं देख रही थी कि कम से कम इस वक़्त बहू-बेटे दोनों ही तृप्त हैं। मन में कहीं खुशी की भी एक लहर उठी कि भले ही मेरा कोखजना नहीं है। गोद लिया है। लेकिन है तो मेरा ही। मुझे मां ही कहता और मानता है। दुनिया के सामने मैं छाती ठोंक कर अपना बेटा-बहू कहने वाली बन गई हूं। हमारी चिता को अग्नि देने वाला तो हो गया, हमारा वारिस तो हो गया। बाप को मुखाग्नि दी, हमें भी देगा।

यह लहर उठते ही मन में कसक सी उठी। आंखें छल-छला उठीं। आंखें इसलिए छल-छलाईं कि मेरा पति लाख कोशिशों के बावजूद बहू न देख सका। इसलिए छल-छलाईं कि लाख कोशिशों, अपमानों, शोषणों को झेलने के बाद भी अपनी बंजर कोख को उपजाऊ न बना सकी। एक अपनी जनी संतान के लिए तड़पती रहूंगी मरते दम तक। इन कुछ ही क्षणों में मैंने मन और ईर्ष्या की तीव्रता भी देखी। कहां तो एक क्षण में संतोष का अनुभव कर रही थी, कि गोद लिया ही है तो क्या ? है तो अपना बेटा ही, अपनी बहू ही।

पर जब दोनों को आनंदातिरेक में मद-मस्त पड़े और देर तक देखती रही। खासतौर से बहू को जो पेट के बल पसरी हुई थी ऐसे जैसे तन में जान ही न हो दोनों हाथ बेजान से फैले हुए थे। एक उसके पति की छाती पर पड़ा था जो उसकी बगल में ही लेटा था। मेरी नजर बहू के बदन पर गड़ गई। मैं उसके काफी उभरे हुए नितंब, सुडौल तराशी हुई सी जांघें, गहरा कटाव लिए कमर, भारी स्तन जो दबकर बाहर की तरफ फैले हुए थे, को देखती रही । किसी भी आदमी को धधका देने के लिए एक जबरदस्त शरीर था उसका। घने-काले बड़े-बड़े बाल सिर से बाईं तरफ छितराए हुये थे। ट्यूब लाइट की दूधिया रोशनी में वह उस स्थिति में बला की कामुक लग रही थी।

मैं सोचने लगी कि शादी की तीसरी रात में यह कितनी संतुष्ट है। और मैं? मैं भी शादी के समय एक उंगली छोड़ दें तो इससे कई गुना ज़्यादा कामुक थी। मेरा बदन इसके बदन से भी ज़्यादा आकर्षक था। मगर मेरे साथ क्या हुआ? एक पीड़ा से भरा अहसास। पति की शक भरी नजर। खुद को क्या चाहिए वह इतना ज़रूर जानते थे। पर मेरी भी कुछ चाहत है, संतुष्टि है, वह कभी न जान पाए। इस बात का जैसे उन्हें पता ही नहीं था। बहू की तरह संतुष्ट होकर दीन-दुनिया से बेखबर होकर, समाधिस्त सी स्थिति में मैं संतुष्ट होकर कभी इस तरह नहीं पसरी थी। कभी अवसर नहीं मिला था।’

‘चीनू के साथ भी नहीं ?’

‘.... नहीं .... । प्रचंडवेग के वक़्त भी दिमाग में कहीं यह हथौड़ा पड़ता रहता था कि गुनाह कर रही हूं। घृणास्पद है।’

‘पर करती रही।’

‘हां ..... । क्योंकि शरीर मन की बात नहीं सुनता था।’

‘वाह रे! तुम्हारा शरीर, सब पर भारी है। तुम्हारे इस अपरबल शरीर ने बहू को और कितनी देर तक झांका उस दिन।’

‘हुआ यह कि काफी देर दोनों पड़े रहे फिर अचानक ही बहू एकदम उठ बैठी। अपने खूले लंबे बालों को पीछे की तरफ समेटकर जूड़ा बनाया। जब तक मैं समझ पाती तब तक वह बेड से उतर कर खड़ी हो चप्पल पहनने लगी। उसकी फुर्ती बता रही थी कि वह बाथरूम जाने की बड़ी जल्दी में है। अचानक बेटे ने बड़े प्यार से उसका हाथ पकड़ कर हौले से अपनी ओर खींचना चाहा तो बहू ने बड़े प्यार से उसके हाथों को चूम लिया और बड़े प्यार से हाथ छुड़ा कर दरवाजे की तरफ चल दी। तब एक साथ मुझे दो झटके लगे। पहला यह कि यह कमरे से बाहर बाथरूम में जा रही है। जो कमरे के दरवाजे से दस क़दम की दूरी पर है। यह दस क़दम का एरिया खुला आंगन है जिसके ऊपर जाल पड़ा हुआ है। और नीचे भी जाल है। बाथरूम में जाने के लिए जाल के किनारे दो फिट की पक्की जमीन पर से भी यदि निकलो तो भी नीचे खड़ा आदमी आराम से देख सकता है। ऐसे ही ऊपर खड़ा आदमी आराम से देख सकता है। मगर बहू एकदम बेखबर तन पर एक तौलिया तक न डाला और बाथरूम की तरफ चली गई दबे पांव।

वह शायद इसलिए बेखबर थी कि मैं नीचे सो चुकी हूं। और ऊपर कोई नहीं है। कुछ मिनट बाद वह जिस मस्त चाल से कमर मटकाती गई थी उसी अंदाज में मटकती आ गई। बेड के पास आकर तौलिए से बदन के एक हिस्से को पोंछा । फिर पति के चेहरे पर एक चुंबन देकर बैठ गई उसके बगल में। अब बेटे ने उसे बाँहों में भर कर चूमा फिर धर कर दबा दिया तो वह हल्की सी सिसकारी लेकर बोली ''ओफ़्फ! लगता है।''

इसके बाद बेटा भी उठकर चल दिया बाथरूम लेकिन उसने जाने से पहले तौलिया लपेट लिया। यह देखकर मैंने मन ही मन कहा वाह! जिसे लपेटना चाहिए था उसे तो परवाह ही नहीं थी और अभी तक वैसे ही है। बल्कि सीडी प्लेयर में दूसरी सीडी लगा कर आकर फिर बैठ गई। हां उसका जो तौलिया था उसको उसने बेड पर उस जगह बिछा दिया जहां पर कुछ देर पहले उन दोनों के संभोग के परिणाम कुछ धब्बे के रूप में पड़े थे। अब तक मैं निश्चिंत यह सब देखती रही। पर अगले ही कुछ क्षण में मेरी रुह कांप गई मुझे लगा कि मैं रंगे हाथों पकड़ी जाऊंगी। पकडे़ जाने की कल्पना से ही मैं सिहर उठी थी।

‘क्यों, पकड़ी क्यों जाती? क्या बहू ने देख लिया था या फिर उसको शक हो गया था।’

‘नहीं यह दोनों ही नहीं हुआ था। बेटा बाथरूम से निकल कर अचानक जाल के पास खड़ा हो गया, उसका चेहरा मैं जिस कमरे में थी उसी तरफ था। आंगन में जीरो पावर के बल्ब की रोशनी में उसे कमरे के दरवाजे के बगल में लगी खिड़की के धुंधले शीशे से मैं ठीक से देख सकती थी। उसने वहीं पास में दीवार में बनी अलमारियों में रखे कुछ सामानों में न जाने क्या देखना शुरू कर दिया। जैसे कुछ ढूंढ़ रहा हो। वह वहां से हट नहीं रहा था और मैं पसीने-पसीने होती हुई पकड़े जाने पर कैसे अपना बचाव करूंगी यह भी सोचे जा रही थी। जैसे वह अपनी जगह से हिलता तो मुझे लगता कि जैसे बस अब आकर वह पकड़ लेगा। अचानक ही वह मुड़ा, मेरी भी धड़कनें एकदम बढ़ गईं।

मगर अगले ही पल राहत की सांस मिल गई, वह अपने कमरे में चला गया। मैंने फिर उसके कमरे में नजरें गड़ा दीं। नई फ़िल्म शुरू हो चुकी थी। दोनों फिर एक दूसरे से लिपटते चूमते फ़िल्म की कामुकता के साथ उत्तेजित हुए जा रहे थे। एकदम प्राकृतिक अवस्था में। मैं बार-बार उलझ जाती कि आखिर यह दोनों नाइट बल्ब ऑन कर ट्यूब लाइट क्यों नहीं ऑफ कर देते। काफी देर तक वह सब देख कर न सिर्फ़ मैं ऊब गई थी बल्कि खड़े-खड़े थक भी गई थी। इसलिए मौका देख कर दबे पांव चली आई नीचे। नीचे आकर मेरी नजरों के सामने वही दृश्य बार-बार उमड़-घुमड़ रहे थे।

अचानक मैंने अहसास किया कि बदन में कहीं कुछ रेंग रहा है। कुछ सरसराहट भी कहीं होने लगी है। शरीर में कहीं से चीनू-चीनू के स्वर उभर रहे हैं। मैं घबरा उठी कि इतने बरसों बाद अब इस उम्र में यह हो रहा है। मैं आतंकित सी हो उठी और पानी पीया। अचानक ऊपर कमरे से मुझे फिर कुछ अजीब सी आहटें मिलने लगीं। यह सब अंदर ही अंदर झिंझोड़े दे रही थीं, मन में आता कि जाकर उन दोनों को डांट कर कहूं कि बस बहुत हुआ शांति से चुपचाप सो जाओ, अब जरा भी जुम्बिश नहीं होनी चाहिए। इसी उधेड़-बुन उठा-पटक में न जाने कब मैंने चीनू को फ़ोन मिला दिया। इसका ख़याल किए बिना कि रात के दो बज रहे हैं।

‘क्यों, चीनू को क्यों मिलाया ?’

‘सुनो न, बता तो रही हूं। क्यों किया वह तुम अच्छी तरह समझ रही हो ? फिर मुझसे वही बात बार-बार दोहराने के लिए क्यों कह रही हो, तुम्हारी यह जिद नाटक ही लग रही है। जब फ़ोन किया तो जाहिर है वह गहरी नींद में सो रहा था। दूसरी बार रिंग करने के बाद उसने फ़ोन उठाया और अलसाई आवाज़़ में कहा, ''हैलो ...... ।'' तो मैं बोली चीनू सो रहे हो क्या? मेरी आवाज़़ सुन वह एकदम सजग होकर बोला, ''क्या हुआ चाची? सब ठीक तो है न, इतनी रात में फ़ोन क्यों किया?’

‘हां सब ठीक है, तुमसे बात करने का मन हुआ तो कर दिया।’

'‘लगता है चाची कुछ गड़बड़ है। एक तो इतनी रात को फ़ोन किया फिर इतना धीमे-धीमे बोल रही हो जैसे किसी से छिप कर कोई बात करता है। क्या अनिकेत से कोई झगड़ा हुआ है, जो भी है साफ-साफ बताओ न।'’

‘नहीं ऐसा कुछ नहीं है। बस तुम्हारी याद आ रही थी तो मैंने सोचा कि।’

'‘क्या चाची, कमाल करती हो, दो बजे रात को फ़ोन कर के कहती हो बस ऐेसे ही। इसके बाद फिर कुछ देर और बातें हुई जिसे सुनकर वह बोला, ''ठीक है कल बात करेंगे।'' कहते हुए फ़ोन काट दिया, मैं आगे क्या कहने जा रही हूं उसने वह सुना ही नहीं। मैं धीरे-धीरे फ़ोन पर इसलिए बोल रही थी कि कहीं ऊपर वह दोनों मेरी बात सुन न लें। और शायद मेरी आवाज़़ चीनू को ठीक से नहीं मिल रही थी। इसलिए भी वह झल्ला रहा था। फिर मैंने करवट बदली, कभी उठ कर चहलक़दमी करती कभी पानी पीती ऐसा करते कब नींद आई पता नहीं चला।

जब सोई तो बडे़ अजीब सपने आए। कहीं मैं चीनू के साथ जा रही हूँ तो दुनिया के सारे लोग दौड़ा रहे हैं, तो कहीं हम दोनों कमरें में सो रहे हैं बेखबर, हमारे तन पर एक भी कपड़ा नहीं है, और कमरे की सारी दीवारें अचानक ही गिर गईं । छत हवा में ही लटकी रह गई। पूरी दुनिया हम सबको देखकर हंस रही है और हम दोनों की नींद ही नहीं खुल रही है। अचानक लोग हम पर जूते-चप्पलें फेंकने लगे। एक जूता मेरे चेहरे पर पड़ा तो मैं हकबका कर उठ बैठी। मेरी नींद खुल गई, देखा बहू हाथ पकड़ कर हिला रही है। मैं अब सच में जाग गई। बहू बोली,

‘मम्मी उठिए, नौ बज गए हैं।’

नौ बजने की बात एक चपत की तरह लगी। मैं उठ कर बैठी, न जाने कैसे आज इतनी देर तक सोती रह गई। मेरे दिमाग में आया कि कल मैं पहले उठी थी आज यह उठ गई। सपना अभी तक आंखों के सामने घूम रहा था। जब तक मैं नहा-धोकर आई तब तक बहू चाय नाश्ता लेकर आ गई। मेरे लिए यह आश्चर्य मिश्रित खुशी थी। जिस की उम्मीद नहीं थी वह हो रहा था। एक तो बहू नाश्ता लेकर आई बड़े प्यार से। दूसरा आश्चर्य यह था कि चौथे ही दिन बहू सलवार सूट में भी मेरे सामने। वह भी एकदम चुस्त कि शरीर की सारी रेखाएं साफ थीं। दोनों तरफ कुर्ता इतना कटा था कि सलवार का नेफा भी दिखाई दे रहा था। सलवार इतनी चुस्त और हल्के कपड़े की थी कि अंदर पहनी हुई पैंटी भी झलक रही थी।

बहू चौथे दिन ही इस रूप में आएगी यह सोचा नहीं था। रात की घटना के कारण मुझे इस वक़्त वही सीन दिख रहे थे। मुझे लग रहा था जैसे वह मेरे सामने बिना कपड़े के ही नंगी ही खड़ी है। अनिकेत आस-पास नहीं दिखा तो मैंने अनमने ही पूछा लिया कहां है वह तो उसने बताया वह ऊपर ही नाश्ता कर रहे हैं। मेरा मन अचानक यह सुन कर कसैला हो गया। मैंने कहा जाओ तुम भी उन्हीं के साथ नाश्ता करो ...... । वह जैसे इसी बात का इंतजार कर रही थी चली गई।

मैं इस लिए भी उसे नजरों के सामने से हटाना चाह रही थी क्योंकि उसे देख कर मैं रात की घटना में गहरे डूबती जा रही थी। खैर किसी तरह दोपहर हुई। यह दोनों मियां-बीवी कहीं चले गए। मुझसे सिर्फ़ इतना ही कहने की जहमत उठाई कि मम्मी दरवाज़ा बंद कर लीजिए। अब मैं अकेली, मन और ज़्यादा भटकने लगा। भटकता, भटकना इतना ज़्यादा हुआ और कि रात के दृश्य इतना असर कर गए कि मैंने चीनू को फ़ोन लगाकर फिर बात की देर तक। मुद्दे की बात आते चीनू भड़क कर बोला।

'‘क्या चाची बहुरिया आ गई घर में, पैर श्मशान की ओर बढ़ चले हैं और तुम्हारी अय्याशी खत्म होने के बजाय बढ रही है, खैर मर्जी तुम्हारी जो मन आए करो लेकिन अब अय्याशी के लिए फ़ोन मत किया करो। तुम्हारे चक्कर में मैं अपना परिवार, अपनी ज़िंदगी बरबाद नहीं करूंगा।'’

चीनू की बातें बदन पर गर्म सलाखों सी चिपक गईं। वह न आता तो भी मुझे न खलता। मगर उसने जो कहा वह बर्छी की तरह चुभ गया। मैंने उसे हमेशा के लिए आने से मना करते हुए फ़ोन का रिसीवर पटक दिया। मगर अब मैं एक नई आदत का शिकार हो गई। रोज मैं जब बहू बेटे कमरे में जाते तो मौका देख कर मैं उनके कमरे में तब तक झांकतीं जब तक की थक न जाती। इसके लिए खिड़की के सुराख को भी बड़ा कर दिया। मेरे दिमाग में यह डर रह ही नहीं गया था कि पकड़ गई तो क्या मुंह दिखाऊंगी। पकड़े जाने पर जवाब क्या दूंगी इसके लिए तरह-तरह के जवाब ज़रूर सोचती रहती।

‘हे राम .... राम .. यही सुनने के लिए बाकी रह गया था क्या ? अरे! तुम वही मन्नू हो जो बचपन में बड़ा पूजा-पाठ करती थी। या कि कोई और हो। अभी और न जाने क्या-क्या बताने वाली हो। मुझे तो लगता मैं पागल हो जाऊंगी।’

‘घबराओ नहीं .... । अब तो चंद बातें ही रह गई हैं। मगर ऐसा करो अब तुम सो जाओ। साढ़े तीन बज गए हैं। दिन में बात करेंगे।’

‘अब दिन में मुझे कुछ नहीं सुनना है। सवेरे ही मैं घर वापस जाऊंगी। भले लड़का बहुरिया न रखें साथ कोई फ़र्क नहीं, मकान हमारे आदमी का बनाया हुआ है, एक कोठरी अलग कर लूंगी। रह लूंगी अकेली। पर अब कहीं और नहीं जाऊंगी। दुनिया में कैसे-कैसे रंग हैं वह सब तुमसे ही जान गई।’

‘ठीक है अब सो जाओ तुम। मुझे नींद नहीं आ रही है। मैं अपनी किताबों की दुनिया में जा रही हूं। उस कमरे में वो कई दिनों से मेरा इंतजार कर रही हैं। कई दिन से कुछ पढ़ा नहीं ... ।’

कह कर मन्नू अपने स्टडी रूम में चली गई। उसे जाते हुए बिब्बो पीछे से देखते रही। उसको देखकर उसने मन ही मन कहा, हूं ..... किताबें ... इन्होंने तुझे भटका दिया बरबाद कर दिया। पर नहीं किताबें तो सिर्फ़ बनाती हैं। किताबों ने तुम्हें नहीं बल्कि सच यह है कि तुमने किताबों को बरबाद किया। वह तो पवित्र होती हैं, तुमने उन्हें अपवित्र कर बदनाम किया। एक से एक अनर्थकारी बातें बता चुकी है और फिर भी कहे जा रही है कि असली अनर्थ अभी बाकी है। असली अनर्थ तो लगता है धरती का सीना चीर कर रख देगा। लेकिन ठीक तो यह भी नहीं होगा कि इतना सुनने के बाद आखिर का असली अनर्थ न जाना जाए। चलो सवेरे जाने से पहले वह भी सुन लूंगीं ।

...... पर सवेरे इस तरह जाना ठीक रहेगा क्या ? लाख खराब हो, अनर्थ किए हों, लेकिन आखिर है तो अपना ही खून, कोई भी तो साथ नहीं है इसके, जिस लड़के के लिए मरती आई वह भी तो नहीं है। पर गोद लिया हुआ है क्या जाने मां-बाप क्या होते हैं। मगर मेरे तो सगे हैं अपनी ही कोख से जन्म दिया है। कौन पूछ रहा है। चली आई अकेली, सोचती रही कि कोई रोकेगा। पर किसी लड़के ने नहीं रोका। यहां तक नहीं कहा कि अम्मा अकेले कैसे जाओगी। रुक जाऊं क्या इसी के पास, यह भी अकेली है, हर तरफ से ठोकर खाई, और मैं भी, दोनों साथ जीते हैं, जब तक चले।

लेकिन इसके अनर्थ, यह तो काटते हैं। चलो देखेंगे सवेरे। ..... इसी उधेड़ बुन में न जाने कब बिब्बो की आंख लग गई। सवेरे जब नींद खुली तो नौ बज गए थे। उसे याद नहीं कि इसके पहले वह कब नौ बजे सो कर उठी थी। आंखें खुलते ही उसने महसूस किया कि आंखों में बड़ी जलन हो रही है। जोड़-जोड़ दुख रहा है। ऐसा लग रहा था जैसे महीनों से आराम न किया हो। अचानक उसकी नजर बेड से सटा कर रखे गए स्टूल पर गई। जो रात तक नहीं था। उसके के सोने के बाद किसी ने रखा था। जाहिर है मन्नू के सिवा कौन होगा।

स्टूल पर कई पन्ने रखे थे। उनमें सबसे ऊपर वाले पर नीले रंग से बड़े अक्षरों में लिखा था, ''बिब्बो सबसे पहले इस पन्ने को ध्यान से पढ़ो। धैर्य से पढ़ो, बिना आवाज़़ किए पढ़ो।'' बिब्बों ने पढ़ा। लिखा था, ''बिब्बो मैं मानती हूं कि दुनिया के सबसे घृणित कार्य मैंने किए। मगर शांतिपूर्वक ध्यान से बाद में चिंतन करना कि क्या हर चीज के लिए सिर्फ़ मैं ही ज़िम्मेदार हूं। सारी स्थितियों पर ध्यान देना। मेरे पति उनके काम-धाम, आचरण पर, रुबाना, काकी, वह तांत्रिक, डॉक्टर, ज़िया, चीनू, मेरी गोद ली हुई संतान और बहू पर भी। तुम निष्पक्ष होकर चिंतन करोगी तो शायद मेरे अपराधों की गहराई तुम्हें कुछ कम लगे।

अब सुनो मेरी नजर में जो वाकई अनर्थ है वह चीनू के साथ का संबंध नहीं है। असली अनर्थ मैं इन दो बातों को मानती हूं, पहली बेटे-बहू को संभोगरत होते हुए काफी समय तक बार-बार देखने को। और कि मैं उनको संभोगरत देख कर इतना उत्तेजित हो जाती कि ख़यालों में चीनू के साथ रात-रात भर संभोगरत रहती, अपने हाथों से अपने पर जाने कितना अत्याचार कर डालती। अगली बात बहुत धैर्य से पढ़ना क्यों कि इस अनर्थ से अप्रत्यक्ष रूप से कहीं तुम भी जुड़ी हो। तुम्हारे पति बहुत अच्छे थे। एक बार वह तब यहां आए थे ऑफ़िस के काम से जब अनिकेत घर छोड़कर जा चुका था।

ऑफ़िस का काम निपटाकर वह कुछ देर को आए थे, उनकी ट्रेन रात नौ बजे थी। मैंने खाना वगैरह खिला कर उन्हें भेजा था। जिस टेम्पो से वह चारबाग रेलवे स्टेशन जा रहे थे वह अगला पहिया पंचर होने के कारण डिवाइडर से टकराकर पलट गया था। तुम्हारे पति बाल-बाल बच गए थे। हल्की-फुल्की चोटें आई थीं। इन सबके चलते ट्रेन छूट गई, वह वापस आ गए। उनकी हालत देख कर मैं एकदम घबरा गई थी। मरहम-पट्टी वह करवा कर आए थे। मैंने उन्हें एक गिलास गरम दूध पिलाया। फिर बैठे-बैठे ही जीवन की बातें छिड़ गई। जीवन के हसीन पलों की भी बातें हुईं। और फिर हम दोनों बहक कर रात भर संभोगरत रहे।

पहल मैंने ही की थी। मगर तब की जब उनके हाव-भाव से यह लग गया था कि वह भी कहीं भीतर ही भीतर पिघल रहे हैं। उनकी आंखों में अपने लिए सेक्स साफ-साफ देख रही थी। इसी लिए जरा सी मैंने हवा दी और वह बरस पड़े, टूट पड़े। उनका आवेग देख कर साफ था कि बहुत दिनों से अतृप्त और भुखाए हुए थे। पता नहीं मगर कहना पड़ रहा है कि तुम निश्चत तौर पर उनके लिए बहुत ठंडी औरत साबित हुई होगी। खैर यह मेरी नजर में पहले वाले से बड़ा अनर्थ था। पति की बात जान कर जो गाली देना चाहो मुझे दे सकती हो। मगर अब इस कागज को टुकड़े-टुकडे कर बगल में रखे जग में भरे पानी में डूबो दो। पानी में मैंने गहरी स्याही मिला रखी है। या चाहो तो पहले इन टुकड़ों को टॉयलेट में डाल कर फ्लश चला दो फिर आगे वाले पन्ने पढ़ो। क्योंकि आगे वाले पन्ने तुम्हें हर हाल में संभाल कर रखने हैं।

‘चलो उठो अब ........ ।’

आदेश के में रूप में लिखी आखिरी लाइन को पढ़ कर बिब्बो रुक न सकी और टॉयलेट की ओर बढ़ गई। पन्नों को टुकड़े-टुकडे़ कर टॉयलेट में डाल दिया। और फ्लश चला दिया। साथ ही किसी अनिष्ट की आशंका से थरथराती। बुद-बुदाती रही ‘तुम्हें क्या कहूं समझ नहीं पा रही हूं। तुमने अपनी सगी बहन को भी न बख्सा, उसके आदमी को भी कपट लिया। तुम न भी कहती तो भी मैं इन पन्नों को खतम कर ही देती। मैं अपने आदमी को बदनाम नहीं कर सकती। टॉयलेट का दरवाजा बंद करते हुए वह बुदबुदाई चलूँ देखूं बाकी पन्नों में तुमने क्या गुल खिलाया है। सारे पन्ने पढ़ने के बाद भी पता नहीं तयकर पाऊंगी कि नहीं कि तुम्हारा सबसे बड़ा अनर्थ कौन सा है। सारी बात बताने के बाद इतना कहने के लिए तुम्हें मुंह छिपाने की ज़रूरत क्यों पड़ गई।’ कांपते हाथों से बिब्बो ने अगला पन्ना, पढ़ना शुरू किया मन्नू ने लिखा था।

‘बिब्बो बैंक की सारी पास बुकें और संबंधित डिटेल और मकान के पेपर नीचे पीछे वाले कमरे में रखी अलमारी के लॅाकर में हैं। बैंक में जितने रुपए और अलमारी में जितने गहने हैं, यह सब तुम अपने और मेरे लड़के के बीच बराबर-बराबर बाँट देना। यह पूरा मकान मेरे लड़के को देना। आखिर वह मुझे मां ही तो कहता है न।’

इतना पढ़ने के साथ ही बिब्बो भुन-भुनाई आखिर यह करना क्या चाहती है। यह बात सामने आकर क्यों नहीं की। गायब कहाँ हो गई है।'' नीचे बाथरूम से पानी गिरने की आवाज़़ सुन बुद-बुदाई, ''अभी तक बाथरूम में क्या कर रही है?'' बिब्बो ने आगे पढ़ना शुरू किया।

‘बिब्बो बेटा पाने की तमाम जिद्दोजहद के पीछे के तमाम कारणों, इच्छाओं के पीछे एक मुख्य कारण यह भी था कि अंतिम समय में मुखाग्नि कौन देगा? तो अब सारी चीजों के प्रति नजरिया बदलने के बाद मैं बड़ी होने के नाते तुम्हें यह आदेश देती हूं, और साथ ही यह आग्रह भी करती हूं , प्रार्थना भी, यह भी कि मरने वाली की अंतिम इच्छा तो अवश्य पूरी की जाती है। हत्यारों की भी। कम से कम मैं हत्यारी तो नहीं हूं। मेरी अंतिम इच्छा यही है कि मुझे मुखाग्नि तुम्हीं दोगी, न तुम्हारे और न ही मेरा बेटा। मुझे पूरा यकीन है कि तुम मेरी अंतिम इच्छा ज़रूर पूरी करोगी। नहीं तो मरने के बाद भी मेरी आत्मा यहीं भटकती रहेगी।

अगला जो बंद लिफाफा है उसे तुम मत खोलना। वह पुलिस अधिकारी के लिए है। अगले पन्ने में प्रायश्चित के तौर पर मैंने जो सजा खुद के लिए तय की है उस बारे में लिखा है। उसको पढ़ कर चीनू और बेटे को फ़ोन कर देना। और यह पन्ना जब तक तुम पढ़ रही होगी। मुझे मरे हुए घंटो बीत चुके होंगे। तुम गहरी नींद में सो रही थी तब मैंने यह सब लिखा। यह पत्र रख कर नीचे कमरे में अंदर से दरवाजा बंदकर मैं फांसी लगा चुकी होऊंगी। बिब्बो शोर बिल्कुल मत करो बस दोनों को फ़ोन करो...। जाओ।'' पत्र पढ़ कर बिब्बो अबूझ पहेलियों में उलझी हुई सी बदहवास नीचे कमरे में भागी तो वह सचमुच अंदर से बंद था, लाख पीटने पर भी न खुला। अंततः रोते कांपते हाथों से उसने दोनों नंबरो पर फ़ोन किया।

लड़के और भतीजों ने अपनी पहुंच और मोटी रिश्वत दे दिला कर पंचनामा आदि की ज़रूरी कार्यवायी पूरी कर शाम होते-होते मन्नू की अंतिम यात्रा के लिए चल दिए। सारे रीति-रिवाज परम्पराओं को तोड़ कर बिब्बो भी श्मशान घाट गई। मन्नू का बेटा, उसके बेटे भी थे। वसीयत जान कर वह सब भी दौड़े आए थे। चीनू भी । बेटे की आँखें भरी थीं। चीनू की आंखें सूजी और सुर्ख थीं। चिता पर मन्नू अंतिम यात्रा के लिए तैयार थी। बिब्बो ने महापात्र के मंत्रों के बीच उसे मुखाग्नि दी। बिब्बो मन ही मन बोली, ''मेरे ख़याल से असली अनर्थ तो तुमने यह किया। जिसके लिए मैं तुम्हें कभी माफ नहीं करूंगी।''

समाप्त

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