मन्नू की वह एक रात
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग - 25
'‘मैं ऐसी लड़की से ही शादी कर सकता हूं जो मेरे सामने जब आए तो मुझे ऐसा अहसास हो कि सामने तुम खड़ी हो। क्योंकि तुम्हारी जैसी जो होगी उसी के साथ मैं रह पाऊंगा।'’
‘अरे! मुझ में ऐसे कौन से सुर्खाब के पर लगे हैं जो किसी और लड़की में नहीं हैं।’
'‘बात सुर्खाब के पर की नहीं है। बात अपनी-अपनी पसंद की है। मैं हर लड़की को तुम्हारी जैसी देखना चाहता हूं। जिसके तुम्हारे जैसे ही बड़े सुडौल ब्रेस्ट हों। उनका शेप भी तुम्हारे ब्रेस्ट जैसा ही हो। जिसके होठ उठे हुए थोड़ा मोटे हों, आँखें तुम्हारी जैसी हों। जिसकी कमर तुम्हारी जैसी हो। जिसका पेट तुम्हारी तरह हल्का उभरा हो, जिसकी नाभि पानी में पड़ते भंवर की तरह गोल गहरी हो तुम्हारी नाभि की तरह। जिसके हिप तुम्हारी तरह गोल भारी ऊभरे हों। जिसकी वजाइना तुम्हारी तरह पागल कर देने वाली हो। जिसकी जांघें तुम्हारी जांघों की तरह पूरी गोलाई लिए हो, जो सेक्स के समय तुम्हारी तरह पागल बना दे। तुम सेक्स का जो मजा देती हो वो वही दे सकता है जो इसकी एक-एक बारीकी से वाकिफ़ हो। और सच यह है कि मुझे आज तक ऐसी कोई लड़की नहीं मिली। मैं सबमें तुमको तलाशता रहा मगर किसी में तुम आधी भी न मिली। न सही सब कुछ तुम सा लेकिन बहुत कुछ तो हो तुम सा।'’
‘हे भगवान तुम सेक्स और औरत के शरीर को लेकर इतना गंभीर हो, उसमें इतना गहरे प्रवेश कर चुके हो इसका मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था। खैर तुम जो कह रहे हो सही कह रहे हो। और अब मैं कह रही हूं कि तुम्हें सब कुछ मिल जाएगा। बस तुम एक काम करो कि जितनी लड़कियों के रिश्ते आए हैं तुम उसमें से जिसमें सबसे ज़्यादा अपने मन की बातें देखो उसी से शादी कर लो। रही बात कि उसे सेक्स की हर बारीकी पता हो तो यह तो शादी के बाद ही पता चलेगा वह भी तब जब तुम उसके मन से संकोच खत्म कर दोगे। और हां इतने बरसों में सेक्स की हर बारीकी तो तुम मेरे साथ जान ही चुके हो। यदि उसमें कुछ कमी रह जाए तो उसे सिखा देना। औरत सेक्स कैसे करे यह सब तो पति के हाथ में होता है।’
बिब्बो फिर ऐसी ही न जाने कितनी बातें कितने तर्क-वितर्क हम दोनों के बीच होते रहे। कभी बात बनती नजर आती, कभी बिगड़ती। और अंततः उसने मानने के लिए एक शर्त रख दी। जिसे मानने के अलावा और कोई रास्ता उसने नहीं छोड़ा था।’
‘शर्त क्या थी ?’
’उसने बड़ी कड़ाई के साथ अपनी शर्त रखते हुए कहा '’मैं तुम्हारी बात इस शर्त पर मानूंगा कि यदि शादी के बाद मेरे मन की बात नहीं हुई तो मैं तुम्हारे पास आऊंगा। और अब तक जैसे हम संबंध बनाते रहे हैं वैसे ही हमारे संबंध बने रहेंगे।'’
‘और दुर्भाग्य से यह खेल शादी के बाद भी चलता रहा ?’
‘हां ..... दुर्भाग्य से खेल शादी के बाद भी चलता रहा।
मैंने बहुत नानुकुर की लेकिन वह टस से मस न हुआ। अंततः मुझे झुकना पड़ा कि शादी के बाद अगर उसके मन का न हुआ तो वह सेक्स संबंधों के लिए मेरे पास आ सकता है।’
‘बाप रे बाप। हे! भगवान तूने भी क्या दुनिया बनाई। उसकी शादी के बाद भी तुम दोनों का गंदा घिनौना-पापपूर्ण खेल चलता रहा। तुम चाहती तो रोक सकती थी। कुछ देर पहले तो तुमने कहा कि उसकी शादी से दो दिन पहले तुम उसके साथ सेक्स के शिकंजे से निकल आई थी।’
‘हां मैंने सही कहा था, कि मैं उसके साथ सेक्स के शिकंजे से उसकी शादी से दो दिन पहले निकल आई थी। लेकिन वह नहीं निकला था। मैंने हर संभव कोशिश की थी। यहां तक कि जब उस दिन भी जिद कर बैठा तो मैंने कहा, ठीक है तुम जिस ढंग से जितना चाहो वह सब मनमानी कर लो लेकिन शादी के बाद सेक्स की बात नहीं करो तो अच्छा है। लेकिन सब व्यर्थ गया, मेरे भस्मासुर ने न सिर्फ़ उस दिन पूरी मनमानी के साथ मेरे शरीर को रौंदा बल्कि जिस दिन बारात जानी थी उसके एक दिन पहले भी वह सबकी नजर बचा कर, शादी पर होने वाली रस्मों की परवाह न करते हुए आ गया और फिर अपनी मनमानी कर गया। मगर उस समय शादी को ले कर उसमें जो उत्साह था उसे देख कर मुझे यकीन था कि शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा।
मगर शादी के दस दिन भी न बीते थे कि वह फिर आ धमका, फिर मनमानी करने की कोशिश की तो सख्ती से विरोध किया। पूछा क्या कमी रह गई बीवी में? क्या उसका शरीर मेरे जैसा नहीं है?क्या सेक्स की बारीकियां वह नहीं जानती ? तो वह धूर्तता के साथ बोला,
'‘तुम विह्सकी हो तो वह रम है, दोनों का अपना-अपना मजा है। कई दिन से रम का मजा लेकर ऊब गया तो सोचा चलो आज विह्सकी का मजा लूं।'’
‘तुम ये गलत कर रहे हो। जब बीवी से तुम्हें पूरा मजा मिल रहा है तो तुमको मेरे पास नहीं आना चाहिए तुमने खुद ही यह शर्त रखी थी। तुम्हारी बातों से साफ है कि तुम जैसी बीवी चाहते थे वह सब तुम्हें मिल गया है।’
'‘नहीं सच यह है कि शर्त पूरी भी हुई है और नहीं भी।'’
‘इसका क्या मतलब है।’
'‘इसका मतलब यह है कि जैसी बातें हुई थीं कि अंग-अंग उसका तुम्हारे जैसा हो वह तो नहीं है। लेकिन जैसा भी है वह भी मस्त कर देने वाला है। उसकी कोयल जैसी आवाज़़ दीवाना बना देती है। सेक्स के समय उसका परम मासूम अनाड़ीपन बताता है कि वह शादी के समय कुंवारी ही थी।'’
‘अच्छा! पहले तो बड़ा चिल्ला रहे थे कि आजकल कोई लड़की कुंवारी होती ही नहीं। फिर अनाड़ी होना कुंवारेपन की गांरटी कैसे हो गया।’
मैंने इस क्षण एक और चीज मार्क की, कि चीनू बीवी के लिए कुछ भी निगेटिव सुनना पसंद नहीं कर रहा। मेरी बात पर उसने बड़ी तल्खी से जवाब दिया।
'‘ठीक है कि उसका अनाड़ीपन उसके कुंवारे होने की गारंटी नहीं है। लेकिन पहली रात में उसका दर्द से बिलबिलाना, वजाइना का इतना संकुचित होना कि इंट्री के लिए ताकत लगाना, और फिर वजाइना का खून से लथपथ हो जाना यह जरूर उसके कुंवारेपन की गारंटी थी।'’
उसकी बात सुनकर मैं हौले से मुस्कुरा पड़ी। बिजली की तरह मेरे दिमाग में अपनी सुहागरात कौंध गई कि मेरा पति भी तो खून से लथपथ वजाइना ढूंढ़ रहा था। शायद मन का सब न मिल पाने पर ही जीवन भर एक तरह की कुंठा से ग्रस्त रहा। मेरी मुस्कुराहट पर चीनू असमंजस में पड़ गया, वह बोला,
'‘इसमें मुस्कुराने की क्या बात है?'’
‘नहीं मैं देख रही हूं कि मर्द चाहे जैसा हो मगर औरत को लेकर कुछ मामलों में सब एक जैसे होते हैं। पिछली पीढ़ी भी ऐसी ही थी। जैसे तुम या तुम्हारी पीढ़ी के अन्य हैं। सारे मर्द औरत की खून से लथपथ वज़ाइना में उसकी पवित्रता, उसकी ईमानदारी, नैतिकता, और अपना सारा सुख देखते हैं। और जो योनि क्षतविक्षत रक्त-रक्त न हुई तो वह अपवित्र-कुल्टा और न जाने क्या-क्या हो जाती है। औरत से उसकी पवित्रता, कुंवारेपन का सर्टिफिकेट मांगने वाले पुरुष अपने कुंवारेपन का सर्टिफिकेट भी देने की कब सोचेंगे । जिस पत्नी की खून से लथपथ वज़ाइना में तुमने अपनी खुशी देखी, ढूंढ़ी क्या अपनी उस पत्नी को भी अपने कुंवारेपन का सर्टिफिकेट देकर उसे भी अपने जैसी खुशी देने की सोची।’
‘'क्या फालतू की बात लेकर बैठी हो। मूड का कचरा करने की ज़रूरत नहीं है। हमेशा ज़िंदगी के जीने की बात करती हो न तो मैं वही जी रहा हूं। तुम भी ज़ियो, चलो मस्ती करो। यह कह कर चीनू ने मुझे दबोच कर चूम लिया। मेरे सारे प्रतिरोधों को दर किनार करते हुए उसने मेरे शरीर को रबर का पुतला समझ जी भर कर रौंदा। मैं विवश सी पड़ी सिसकारियों, घुटी-घुटी चीखों के बीच में उसे परे धकेलने की असफल कोशिश के सिवा और कुछ न कर सकी।’
‘इसीलिए कहते हैं कि यदि औरत के क़दम एक बार भटक जाएं तो दुनिया उसे फिर नहीं बख्शती, जीवन भर उसके भटके क़दमों को नोचती है। फिर वह कुत्ता तुम्हें कब तक नोचता रहा।’
‘इसके बाद फिर वह कुछ महीनों तक हर आठ-दस दिन में एक बार ज़रूर रौंदता रहा मुझे।’
‘और तुम खुद कितनी बार उसे बुलाती थी।’
‘वह शादी के बाद कुछ महीनों तक तो जल्दी-जल्दी आता रहा लेकिन धीरे-धीरे समयांतराल बढ़ता गया। और शादी के दो साल बाद फिर कभी नहीं आया। इस बीच उसे एक लड़की हो गई थी। वह पूरी तरह उसी में घुल-मिल गया था।’
‘मतलब शादी के बाद तुमने उसे एक बार भी नहीं
बुलाया ?’
बिब्बो ने मन्नू को बचने का कोई रास्ता नहीं दिया तो वह बोली,
‘हां बुलाया जब एक बार कई महीने बीत गए तो मैंने महसूस किया मेरे शरीर में उसको लेकर अजीब सी बेचैनी बढ़ती जा रही है। फिर एक दिन वह अपनी लड़की के मुंडन का निमंत्रण पत्र देने आया। क्योंकि ज़िया पोती का मुंडन एक साल के भीतर ही कर देना चाहती थीं। जब वह घर में दाखिल हुआ तब तक मैं कुछ खास बेचैनी नहीं फील कर रही थी। मगर जब उसे नाश्ता देकर बैठी तो मैं नियंत्रण खोती गई। मैं सोचने लगी कि वह जल्दी चला जाएगा मगर वह आराम से चाय-नाश्ता करता, बतियाता रहा अपनी बिटिया के बारे में, अपनी बीवी में बारे में और अपनी मां के बारे में कि वह कैसे एक खुर्राट सास बन कर उसकी बीवी को प्रताड़ित करती हैं। घर में तानाशाही चला रही हैं।
मैं उसकी बात से ज़्यादा उसके शरीर पर ध्यान दिए हुए थी या कि मेरा ध्यान उसी ओर बार-बार ही चला जा रहा था। मैंने गौर किया कि इधर बीच वह पहले से ज़्यादा हृष्ट-पुष्ट हो गया है। मैं जितना कोशिश करती ध्यान उतना ही उधर जाता। मैं ध्यान बंटाने के लिए कभी किचेन में जाती, कभी अंदर कमरे में। अंततः जाने के लिए वह दो घंटे बाद उठ खड़ा हुआ तो मेरी बेचैनी कम न हो कर बढ़ गई। मैं विह्वल हो उठी। मगर सोचा इसे जल्दी से गेट के बाहर छोड़ कर बचा लूं खुद को, खुद से। वह जैसे ही चलने को हुआ कि न जाने किस शक्ति से नियंत्रित सी मैं बोल पड़ी।
‘चीनू जरा अंदर कमरे में आओ।’
मेरी आवाज़़ मेरा अंदाज दोनों ही एकदम बदले हुए थे। मैं गई बेडरूम के अंदर। चीनू एकदम से ठिठका, वह मेरी बात, मेरे अंदाज का मर्म एकदम समझ गया था। मगर शायद उस दिन उसका मन नहीं था। कुछ अनमना सा वह बोला,
‘'देर हो रही है, कई जगह जाना है।''
‘तो मैंने उसे अनसुना कर फिर बुलाया। मेरे बुलावे पर वह अंततः अंदर आ गया। उसका मन नहीं था। फिर भी हमने संभोग किया।'
‘ओफ़्फ मैं तुम्हारी यह बात सुनकर फिर चकरा गई हूं। पहले तुमने कहा कि उसकी शादी से दो दिन पहले तुम उससे सेक्स के चंगुल से निकल आई थी, फिर कहा तुम तो निकल आई थी लेकिन वो नहीं निकला था इसलिए तुम शादी के बाद भी सेक्स करती रही। अब तुम बता रही हो कि तुम उसकी शादी के बाद भी खुद बुलाती रही सेक्स के लिए। आखिर तुम्हारी कौन सी बात सही मानूं। मुझे तो लगता है कि या तो तुम पागल हो गई हो या मैं तुम्हारी बातें सुनते-सुनते पगला गई हूं।’
‘न तुम पगलाई हो न मैं। ठंडे दिमाग से मेरी बातों के मर्म को समझने का प्रयास करो। कोई भी बात चकराने वाली नहीं है।’
‘मेरी जितनी बुद्धि है उतनी ही बातें समझूंगी न। खैर क्या यह समझूं कि चीनू के साथ किया यह तुम्हारा आखिरी संभोग था। जो तुम्हारी नजर में असली अनर्थ था ?’
‘नहीं ...... ।’
‘नहीं .... ! क्या कहती हो, इसके अलावा भी कुछ अनर्थ है क्या दुनिया में।’
‘हां बिब्बो ! यह तो दुनिया के अनर्थों की एक छाया है।’
‘हे! भगवान ..... क्या-क्या करवा रहा है इस दुनिया में। ज़िम्मेदार तुझे ठहराऊं या खुद इंसानों को। यह अनर्थों की छाया है तो बहिनी अब जल्दी से जो तुम्हारी नजरों में अनर्थ है वह भी बता दो। सच बताऊं तुम्हारी बात सुन-सुन कर मेरे कान ही नहीं शरीर का रोम-रोम थक गया है।’
‘बस दस मिनट और बिब्बो। फिर मैं एकदम से फुर्सत में हो जाऊंगी और तुम भी वास्तविक अनर्थ को जानकर सारी उलझनों से दूर हो जाओगी।’
‘चलो बढ़िया है दस मिनट और सही।’
‘तो इस तरह चीनू चैप्टर क्लोज हो गया। साथ ही एक-एक कर मेरी ज़िंदगी के बाकी सारे चैप्टर क्लोज होने लगे। आज जो आखिरी चैप्टर रह गया है कुछ देर में वह भी क्लोज होने जा रहा है। मेरे जीवन ग्रंथ का आज आखिरी पन्ना पूरा हो जाएगा।
कई घटनापूर्ण पड़ाव और भी आते रहे। बच्चे को जिस उम्मीद के साथ लिया था वह पूरी न हुई। मैं बच्चे से खुद को एक मां की तरह न जोड़ पाई। उसे लिया था तो निभाना है बस यही सोच कर निभाती रही। बस क़िसी से कुछ कह नहीं सकती थी। हां बच्चा यानी अनिकेत ज़रूर मुझे पूरी तरह मानता रहा। यह बतौर पिता उसके साथ जुड़ गए थे। उसके भविष्य को लेकर सदैव चिंतित रहते। कुछ बतियाते रहते। इसका परिणाम यह हुआ कि इंटर करवा कर बैंक क्लर्क का कोई इग्ज़ाम दिलवाया, अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर नौकरी भी लगवा ली। हालांकि तब तक इनको रिटायर हुए दो साल हो गए थे। अनिकेत मात्र अट्ठारह साल सात महीने का ही हुआ था। जल्दी इनको इतनी थी कि नौकरी के बाद शादी के पीछे पड़ गए। तब लोगों ने समझाया कि भइया कानूनन शादी के लायक तो हो जाने दो। मगर यह अपनी कोशिश में लगे रहे। मगर दुर्भाग्य यहां भी साथ चलता रहा।
अपने ऑफ़िस के ही एक दोस्त की लड़की से शादी तय कर दी। वह पिछड़ी जाति के थे। तुम यह तो जानती ही हो कि इस बात को तो लेकर परिवार में बड़ा नानुकुर हुआ। अंतरजातीय विवाह के लिए इसलिए तैयार हुए क्यों कि सजातीय शादी के लिए कई जगह बातें हुईं और करीब-करीब हर जगह सौतेले लड़के की बात आड़े आती थी। यहां ऐसी कोई बात आडे़ नहीं आई। आनन-फानन में वरीक्षा भी कर ली। सच कहूं तो मुझे लड़की पसंद नहीं थी, न उसके परिवार वाले। न जाने क्यों मेरे मन में यह बात रह-रह कर उठती थी कि यह लड़की, परिवार मेरे घर के लिए अच्छे नहीं हैं। लड़की आते ही चुल्हा अलग जलाने वाली लग रही थी। घर वाले ज़रूरत से ज़्यादा हस्तक्षेप करने वाले दिख रहे थे। मैंने इनसे कहा भी पर यह जिद्दी, दुर्भाग्य भी अपनी जिद्द से बाज न आया। डस ही लिया। वरीक्षा के एक हफ्ते बाद ही अचानक ही यह चल बसे। मैं हर तरह से बरबाद हो गई। मगर दूसरा झटका मुझे तब लगा जब कुछ समय बीत जाने के बाद, क्षोभ के कारण मैंने अनिकेत से इस शादी को इंकार करने के लिए को कहा तो वह यह कहकर अड़ गया कि,
‘'पापा की इच्छा थी कि यहीं शादी करूँ, इसलिए मैं दूसरी जगह शादी करने की बात सोच ही नहीं सकता।'’
असल में कहानी का दूसरा पक्ष यह था कि लड़की वालों ने सोचा कि कहीं इस घटना से बात बिगड़ न जाए तो वह बड़ी चालाकी से लड़के के पीछे हो लिए। उसे पटा लिया। लड़की शादी से पहले ही लड़के से मिलने-जुलने लगी थी। दोनों के घूमने-फिरने को लेकर बातें सुनने को मिलने लगीं तो मैंने सोचा शादी मान लेने में ही अच्छा है। क्योंकि हालात से साफ था कि अनिकेत पूरी तरह लड़की वालों की गिरफ़्त में था और कहीं और शादी के लिए तैयार नहीं होगा।
अंततः मैंने यह शादी मान ली और जैसा यह चाहते थे वैसे ही धूम-धाम से शादी कर दी। मगर एक बात का धक्का ज़रूर लगा। ज़्यादातर नाते रिश्तेदार शादी में आए ही नहीं। कि सौतेला लड़का ऊपर से अन्तरजातीय विवाह। जो लोकल थे वही आए। पड़ोसियों की तरह। यहां तक कि तुम भी न आ पाई क्योंकि तुम्हारे जेठ की लड़की की शादी थी उसी दिन। हालत यह थी कि मैंने किसी तरह व्यवस्था संभाली। हां .... ज़िया के परिवार ने बड़ी मदद की। ज़िया इसलिए कुछ ख़ास न कर पाई क्योंकि उस समय तक वह बहुत बीमार रहा करती थीं।’
‘और तुम्हारा चीनू?’
‘मैं जानती थी तुम यह ज़रूर कहोगी। सच है कि चीनू ने बहुत काम संभाला यदि वह न होता तो मैं बहुत परेशान हो जाती। खैर जैसे-तैसे सब ठीक-ठाक निपट गया। मगर मैं अंदर-अंदर बहुत परेशान थी। हर समय इनकी सूरत जैसे मेरी नजरों के सामने आकर कहती ‘'देखो मेरे बेटे की खुशी में कोई कमी नहीं हो।'’ इसके चलते मैं अनिकेत के लिए हर संभव कोशिश कर रही थी कि कहीं कोई कमी न रह जाए। दूसरी तरफ बहुरिया जिसे मेरा मन बहू मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था, मुझे उसका चेहरा काटने को दौड़ता था। मगर फिर भी मैं बड़े अनमने,बड़े असमंजस में सब किए जा रही थी।
बहू ने आते ही तो कोई ऐसा क़दम न उठाया कि मैं एकदम खुश या नाराज होती। पहले दिन उसने कुल मिलाकर ठीक-ठाक व्यवहार किया। ले देके जो एक दो मेहमान रह गए थे उनके सामने इज़्जत रख ली थी। मेहमानों के जाने के बाद वह मुझे कुछ बदली सी लगी। अगले दिन सुबह मैं उठ कर नहा धो कर तैयार हो गई। मगर वह नहीं उठी, मैंने अंततः खुद ही चाय-नाश्ता बना लिया। पहले सोचा मैं अकेले ही कर लूं लेकिन फिर सोचा चलो जाने दो बुला लेते हैं। बुलाने के थोड़ी देर बाद दोनों उतर कर नीचे आए। नाश्ते के लिए कहा। मजे से दोनों ने नाश्ता किया। दोनों के हाव-भाव देख कर लग ही नहीं रहा था कि शादी के मात्र तीन दिन हुए हैं। बहू ने बस एक बार बड़ी स्टाइल से कहा,
'‘सॉरी मम्मी जी, थोड़ी देर हो गई।'’
मैंने सारी बातें एक तरफ करते हुए कहा कोई बात नहीं। नाश्ते के दौरान बेटा कुछ नहीं बोला। मैंने सोचा कि पूछूं कि ऑफ़िस से कब तक की छुट्टी ली है। पर न जाने क्यों कुछ पूछ न पाई। शादी में उसके ऑफ़िस के लोगों का जैसा व्यवहार दिखा उससे साफ था कि बेटे का ऑफ़िस में भी व्यवहार अच्छा नहीं है। नाश्ता खत्म ही हुआ था कि बेटे के घर वाले दर्जन भर रिश्तेदारों के साथ आ धमके। फिर पूरा दिन निकल गया उन सब की खातिरदारी में। रिश्तेदारों के सामने बहू जिस बेशर्मी से बतिया रही थी। उसका चलना, उठना, बैठना देख कर लग ही नहीं रहा था कि अभी-अभी इसकी शादी हुई है। सब को जिस तरह से घर का कोना-कोना बेहिचक दिखाती रही बिना किसी रस्म-रिवाज़ की परवाह किए वह देख कर मैं कुढ़ती रही अंदर ही अंदर। मन में आता कि यह कल की छोकरी मेरे घर में, मेरी दुनिया में कैसे इस तरह बिना मेरी इज़ाज़त के अपनी मनमर्जी कर सकती है।
अंदर ही अंदर बरस रही थी मैं पर कुछ कह नहीं पा रही थी। खैर शाम होते-होते सब चले गए। काली रात घिर आई। खाना-पीना खत्म हुआ। ये ज़रूर कहूंगी कि शाम का खाना उसने पूरा बनाया। मुझे कुछ न करने दिया। बड़ी फुर्ती से सब काम किया। खाना भी बहुत अच्छा बनाया था। आंचल को कमर में खोंस कर सामने से भी साड़ी को थोड़ा ऊपर खींच कर उसने उसे कमर में खोंस रखा था। देख कर लग रहा था कि इससे बड़ा कामकाजी कोई होगा ही नहीं। और नई बहुरियों में बेपरवाह भी उससे ज़्यादा न होगी। सिर पर पल्लू का तो पता ही न था। और साड़ी इतनी नीचे जा रही थी कि गोल गहरी नाभि एकदम साफ दिख रही थी। नाभि ही नहीं काफी नीचे तक का हिस्सा उन्मुक्त खिलखिलाता सा नजर आ रहा था।
बहू कपड़े ठीक कर लो कहने का कई बार मन हुआ पर न जाने मुझ में कौन सी हिचक थी कि मेरी जुबां पर आती हर बात जज़्ब होती जाती। एक शब्द न बोल पाती। मेरे मन में बार-बार एक ही बात आ रही थी कि जैसे मेरी दुनिया मुझ से कोई छीने ले रहा है। हां खाना खत्म होने के बाद मुझे लगा कि यह कुछ देर मेरे पास बतियाए। लेकिन नहीं ... सारा काम बड़ा यंत्रवत सा हो रहा था। खाने के बाद मेरा मन चाय पीने का हो रहा था। मैं असमंजस में थी कि कहूं या न कहूं। यह तो अपने कमरे में जाने की जल्दी में है। अनिकेत जा चुका था। वह जाते-जाते एक क्षण को रुकी और बोली,
'‘मम्मी जी आपको कुछ चाहिए तो नहीं ?'’
तब मेरे मुंह से अचानक ही निकल गया
‘चाय पीने का मन हो रहा था ..... बना देती तो अच्छा था।’ वह बोली
‘'हां-हां क्यों नहीं मम्मी।'’
फिर वह चाय बनाकर ले आई। और देती हुई बोली
‘'मम्मी जी कोई और काम हो तो बताइए।'’ मैंने कहा नहीं।
'‘तो मैं जाऊं ?’'
‘हां जाओ।’
उसको जीना चढ़कर ऊपर जाने तक मैं देखती रही। मुझे लगा कि इसका व्यवहार तो इस समय बड़ा बदला हुआ है। आश्चर्यजनक ढंग से बदले व्यवहार के पीछे का सच मैं जानने-समझने की कोशिश करने लगी। मन में आया कि दिन में इसके घर वालों ने तो कुछ नसीहत नहीं दी है। कोई साजिश तो नहीं है मेरे खिलाफ। मेरी यह उधेड़-बुन क्षण-प्रतिक्षण बढ़ती ही जा रही थी। चाय खत्म हो गई लेकिन मेरी उधेड़-बुन बढ़ती गई। मेरे कान ऊपर ही जाकर अटक गए। न मैं उनको हटाने की कोशिश कर रही थी और न वह खुद ही हटने का नाम ले रहे थे।
यही कोई आधे घंटे के बाद मेरे कान उन दोनों की बातें सुनने लगे। कुछ बात समझ में आती, कुछ न आती। कभी दोनों की खिलखिलाहट सुनाई देती। कभी कुछ और प्यार भरी आवाजें आतीं। समय के साथ-साथ आवाज़़ें सुनाई देनी करीब-करीब बंद हो गईं । अब मेरी धड़कनें बढ़ती जा रही थीं। मैं बेचैन सी कमरे में टहलने लगी। कुछ देर में ही मुझे ऐसा लगा कि बस अब कुछ ही समय में वह दोनों उतरेंगे और मुझे निकाल बाहर करेंगे घर से।
मेरा मन उनकी साजिश जानने के लिए व्याकुल हुआ जा रहा था। यह व्याकुलता इतनी बढ़ गई कि न जाने कब मेरे क़दम ऊपर की ओर बढ़ गए। मैं उनके कमरे के बगल वाले कमरे में पहुंच गई कि उनकी बातें सुनकर साजिश का पता कर सकूं। मुझे इस बात का भी अहसास नहीं था कि अगर कमरे से वह बाहर आ गए तो मैं अपनी चोरी को कैसी छिपाऊंगी। हमारे और उन दोनों के कमरे के बीच में सिर्फ़ एक नौ इंच मोटी दीवार थी। जिसमें दरवाजे की ऊंचाई और उसकी दो गुनी चौड़ाई के बराबर खिड़की थी। जिसमें एक जगह इतनी झिरी थी कि वहां आंख गड़ा कर अंदर देखा जा सकता था। इस समय दोनों बहुत ही धीरे-धीरे बात कर रहे थे, जिसे खिड़की से कान लगाने के बाद भी मुझे स्पष्ट सुनना मुश्किल हो रहा था। अस्पष्ट आवाज़़ें, आहटें मेरी व्याकुलता को बढ़ा रहे थे। अंततः मैं न रुक सकी और झिरी से आंख गड़ा दी।'
‘क्या नई-नवेली बहू-बेटे के कमरे में झांकने लगी।’
‘हां ...... ।’
‘अरे! तुम्हें जरा भी शर्म-संकोच नहीं हुआ कि शादी के तीन दिन भी नहीं बीते हैं और तुम बहू के कमरे में झांक रही हो, वह भी तब जब कि दोनों सोने गए हैं ।’
‘मैं बार-बार कह रही हूं मैं अपने खिलाफ चल रही साजिश को जानने गई थी।’
‘ओफ्फ़ ...... तो अंदर तुम्हें कौन सी साजिश दिखाई दी।’
***