मन्नू की वह एक रात
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग - 22
‘मगर बच्चा गोद लेकर संतान वाली तो हो ही गई थी। और आगे का भविष्य क्या है यह भी जान गई थी। मैं ऐसा नहीं कह रही कि तुम पति को भी संतान भाव में लेती। तुम उनके साथ जितना वासना का खेल-खेल सकती थी खेलती पर उस छोकरे के साथ तो नहीं। जबकि तुम बता रही हो कि बच्चा लेने के बाद तुम्हारा मन सेक्स की तरफ और मुड़ गया क्योंकि जीजा और तुम्हारे बीच कटुता तो खत्म हो गई थी लेकिन अब सेक्स के प्रति वो उतना उतावले नहीं थे जितना कि तुम। दूसरे अब बीच में बच्चा आ गया था और वह उसकी तरफ ज़्यादा खिंच गए थे। अब तुम दोनों के बीच इन वजहों से दूरी बढ़ गई थी। फिर अब तक तुम प्रौढ़ हो चुकी थी। अब तो बार-बार मेरे मन में यह प्रश्न उठ रहा है कि तुम जितना बता रही हो उसमें कितना सच है और कितना ऐसा है जो छिपा रही हो।’
‘ये जो मैं बता रही हूं यह सब मेरे पश्चाताप करने के परिणाम का एक हिस्सा है। इसलिए जो भी किया है सब सच बता रही हूं।’
‘जो बता रही हो यह पश्चाताप का एक हिस्सा है तो पूरा पश्चाताप क्या है।’
‘जल्दी ही वह भी पता चल जाएगा।’
‘अब तो मैं सबसे पहले सिर्फ़ यह जानना चाहती हूं कि तुम्हारा यह वासना का खेल उमर के किस दौर तक चला क्योंकि तुम्हारी बातें, बुरा मत मानना तुम्हारी चाल-ढाल देख कर तो मुझे लगता है कि शायद तुम अब भी वासना के शिकंजे से बाहर नहीं आ पाई हो।’
‘यह क्या कह रही हो तुम! यह सच नहीं है। सेक्स के शिकंजे से मैं चीनू की शादी से दो दिन पहले ही निकल चुकी थी।’
‘मतलब उसकी शादी के वक़्त तक चला यह सब और तब तक तुम साठ साल की हो गई थी।’
‘हां ..... ! हं ..... नहीं यही कोई पचास या इक्यावन की।’
‘हे! भगवान ...... । तो उसकी शादी तक ही क्यों ..... चाहती तो बाद तक चलाती यह खेल, कौन तुम लोगों पर शक कर रहा था। लेकिन हां अब तक तो अनिकेत भी बड़ा हो गया होगा न इस लिए वो बाधा रहा होगा।’
‘बिब्बो इतना तो जानती ही हो कि करने वाले रास्ता निकाल ही लेते हैं। उनके लिए कोई बाधा नहीं बन सकता। हां .... मैंने खुद यह तय किया कि अब बस। क्योंकि मैं उससे जुड़ी रहती तो उसका वैवाहिक जीवन प्रभावित होता।’
‘प्रभावित होता ...... ? अरे! बरबाद होता बरबाद। बल्कि मैं तो कहती हूँ कि ज़रूर बरबाद हुआ होगा। और जब वह अपनी शारीरिक भूख, नहीं! इसे उलट कर कहें कि तुम उससे उसके युवा होने से पहले ही से अपनी हवस मिटाती रही उसे अपने शरीर का आदी बना दिया था तो वह अपनी नई-नवेली पत्नी के साथ क्या न्याय कर पाया होगा। शादी की पहली रात का उछाह-जोश उमंग कहां रहा होगा उसमें। उसकी पत्नी के हिस्से का सारा सुख तो तुमने लूट लिया था। उसकी पत्नी तो इस जीवन में वह सुख पा ही नहीं सकती जो चीनू के कुंवारेपन से उसको मिलता। इसलिए यह मत कहो कि बरबाद होता यह कहो कि बरबाद कर दिया।’
‘नहीं यह तुम्हारा निष्कर्ष है। मैं यही कहूंगी कि हां बरबाद होता। और यह मैं नहीं चाहती थी। ...... किसी भी हालत में नहीं कि वह मेरे कारण बरबाद हो।’
‘तो उसको मना कैसे किया ?चलो तुमने तय कर लिया कि उससे संबंध नहीं रखोगी लेकिन उसने, उसकी तो आदत पड़ चुकी थी तुम्हें भोगने की। उसको कैसे मना किया ? या वो अब तक ऊब गया था तुमसे।’
‘अब मैं तो यह नहीं जानती कि वो मुझसे ऊब चुका था या नहीं। लेकिन यह सही है कि बाद के वर्षों में अधिकतर पहल मैं ही करती थी। खासतौर से जब वह युनिवर्सिटी में पढ़ा करता था। वहां उसके कई लड़कियों से संबंध हो गए थे। तो नई तितलियों के बीच वह खो सा गया था। जब आता तो उन लड़कियों के बारे में तरह-तरह के किस्से बताता। मुझे उसमें कुछ हक़ीक़त कुछ फसाना लगता। जैसे एक बार बताया कि ..... खैर छोड़ो उसके फ़साने को उधेड़ने से क्या फायदा। मुझे तो सिर्फ़ अपने फसाने को उधेड़ने का हक है। तो जब इन लड़कियों में उलझा तो मेरे पास कम आता। तो मैं ही विवश होकर पहल करती। उसने मेरी इस स्थिति का भी फायदा उठाया।
एक दिन एक लड़की को लेकर आ धमका कि उसके साथ मस्ती करनी है। और आज उसके पास कोई जगह नहीं। मैं यह जान कर एकदम हड़बड़ा गई। कुछ समय तो समझ ही न पाई कि जवाब क्या दूँ । उसके सामने मुझे अपनी कमजोर हालत का पूरा ध्यान था। सख्ती से पेश आने का प्रश्न ही नहीं था। फिर भी मैंने बंदरघुड़की दी। तो अब तक एक शातिर आदमी बन चुका चीनू धीरे से मुझे अंदर कमरे में लेकर आया। फिर एकदम से मुझे बांहों में लेकर कसकर चूम लिया और बड़े आशिकाना अंदाज में एक-एक शब्द चबाता हुआ बोला,
’'डार्लिंग चाहो तो तुम भी साथ आ जाओ। जब मैं तुम्हारी बात मानता हूं तो आज तुम्हें भी मेरी बात माननी पडे़गी। क्योंकि इसके अलावा तुम्हारे पास और कोई रास्ता नहीं है।'' इस दौरान वह नीचे से लेकर ऊपर तक मेरे अंगों को बराबर बेदर्दी से दबा रहा था मसल रहा था। उस लड़की के कारण मैं खुद को और भी ज़्यादा विवश महसूस कर रही थी। मैंने आखिरी चाल के तौर पर कहा अनिकेत स्कूल से आता होगा। तो वह बोला,
'‘मैं ऊपर कमरे में लेकर जा रहा हूं। अनिकेत को नीचे रोके रहना। और कुछ चाय वगैरह नहीं बनाओगी क्या ?’'
इतना कह कर उसने किचकिचा कर एक बार फिर मुझे कस कर जकड़ा फिर झटके से छोड़ लड़की का हाथ पकड़ कर तेजी से ऊपर चला गया। मैं हारे हुए जुआरी की तरह देखती रही। और मन में आया कि इसे भस्मासुर बनाया तो मैंने खुद ही न। मैं खीझ कर ड्राइंग रूम में सोफे पर आकर बैठ गई। गुस्से में बुदबुदाई कि नहीं बनाऊंगी चाय-साय। इसी बीच मैंने महसूस किया कि बदन में जगह-जगह दर्द की हल्की लहर सी उठ रही है। चीनू ने जहां-जहां कस कर दबाया वहां मैंने जब नजर डाली तो देखा वह जगहें अच्छी-खासी लाल सी हो रही हैं।
कपड़े अस्त-व्यस्त हो गए थे सो अलग। मैंने जल्दी से साड़ी फिर से ठीक की, ब्लाउज पर नजर डाली तो वह सही न था। अंदर हो रहे दर्द के कारण स्तनों पर भी नजर डाली तो कई लाल निशान नजर आए। बड़ी गुस्सा आ रही थी कि तभी ऊपर से लड़की के हंसने-खिलखिलाने की आवाज़़ें आने लगी। मुझे लगा कि यह हम लोगों के समय की कॉलेज गर्ल से ज़्यादा बिंदास है। ख़यालों में पूरी तरह खो भी न पाई थी कि अचानक उसकी बेहद उत्तेजक प्रणयी आहें सुनाई देने लगी। मैं उसकी ढिठाई, बेशर्मी से दंग रह गई। साथ ही डर गई कि कोई आ गया तो। मैं रोक न पाई खुद को और चली गई ऊपर कमरे में उसे ठीक करने।’
‘उसे ठीक करने या यह भी तो हो सकता है तुम बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी कि जिस कमरे में, जिस बिस्तर पर तुम जिस जवान लड़के के शरीर को भोगती थी आज वहीं पर उसी जवान लड़के को एक दूसरी लड़की भोग रही है । जो तुम्हारी छाती पर मूंग दलने जैसा था। अपने हाथ से तुम्हें सब निकलता दिखा तो तुम न रुक पाई और पहुंच गई अपने राज पर कब्जा करने। क्यों यह बात नहीं थी क्या ?’
बिब्बो की इस बात से मन्नू तिलमिला उठी लेकिन किसी तरह स्वयं पर नियंत्रण कर बोली ‘चलो जो तुम कहो वही सही। यही मान लेते हैं।’
‘अच्छा ...... फिर क्या रोक पाई उसे।’
‘नहीं ...... । कमरे के अंदर नजर पड़ते ही मैं खुद शर्म से गड़ गई। उन दोनों के तन पर एक कपड़ा न था। दोनों दुनिया से एकदम बेपरवाह कमरे के खुले दरवाजे से बेखबर अपनी दुनिया में मस्त थे। संभोगरत थे। लड़की का आक्रामक तेवर देख कर मैं हैरान थी। मैंने भी अपना गुस्सा रोकने का प्रयास नहीं किया। दरवाजे को एक झटके से बंद कर वापस आ गई। जानबूझकर दरवाजा इतनी तेज बंद किया कि वह मेरा विरोध दर्ज कर सकें। मैं नीचे आ गई। करीब आधे घंटे बाद दोनों नीचे आए, मैं बैठी रही सोफे पर, चीनू ने बड़े अधिकार से कहा,
‘'चाची चाय बनाई क्या ?’'
मैंने कोई जवाब नहीं दिया। दूसरी तरफ देखती रही। इस पर वह लड़की बेहद शोख अंदाज में बोली,
‘'ए ..... अभय इतनी गर्मी में चाय कौन पीएगा। चलो चलते हैं।'’
इतना कहने के साथ ही उसने चीनू जिसका स्कूली नाम अभय था के हाथ को पकड़ा और बाहर खींच ले गई। मैं दंग थी उस लड़की की हिम्मत और ढिठाई से। मेरी आंखें खुली की खुली रह गईं। मुझे लगा यह तो रुबाना की नानी है। दो दशकों में ही जमाना कहां से कहां चला गया। इसी बीच स्कूल से अनिकेत आ गया। मैं उसे खिलाने-पिलाने में व्यस्त हो गई। मगर इस घटना ने मुझे हिला कर रख दिया था। फिर इस उठा-पटक के साथ जीते कुछ और बरस कट गए। इस बीच एक सुकूनकारी बात सिर्फ़ यह रही कि चीनू दुबारा किसी लड़की को लेकर नहीं आया। मगर उस घटना के बाद करीब तीन महीने नहीं आया। मुझे यकीन था कि वह एक दो हफ्ते बाद खुदी आएगा। लेकिन समय बीतने के साथ-साथ मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। मैं लाख कोशिश करती कि मेरा दिमाग उसकी तरफ न जाए लेकिन जितना कोशिश करती घूम फिर कर दिमाग वहीं टिक जाता।
‘फिर तुम उसको बुलाने गई।’
‘नहीं। घटना के तीन महीने बाद ज़िया अचानक बीमार पड़ गईं । उन्हें हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा। उनके हार्ट में बड़ी समस्याएं आ गई थीं। चालीस दिन भर्ती रहीं। वहीं पर वह फिर मिला। तब बात की। तो वह बोला,
'‘मैं आपके लिए सब कुछ करता रहता हूं पर उस दिन मेरी फ्रैंड के सामने आपने मेरी बात नहीं मानी, मेरी बेइज़्ज़ती की।'’
तब मैंने उसे समझाया देखो यह गलत है। ऐसी तमाम बातें हुईं उससे फिर वह नार्मल हो गया। हां मां के प्रति उसकी श्रद्धा उसका लगाव देख कर मैं बहुत प्रभावित हुई। जब हालत बहुत सीरियस थी तब मैंने उसे एक कोने में खड़ा रोते देखा था। उसे जाकर चुप कराया था। दरअसल वह अपने पूरे परिवार को बहुत चाहता था। यह कहें कि उसमें होम सिकनेस बहुत थी। हालत यह थी कि पढ़ाई पूरी करने के बाद उसके मामा ने कोशिश करके दिल्ली परिवहन विभाग में उसकी नौकरी लगवा दी। वह गया लेकिन दो महीने बाद ही छोड़ कर चला आया। घर में बड़ी हाय-तौबा मची लेकिन वह गया नहीं। मगर मामा ने फिर मदद की और यहां खुद उसकी थोड़ी बहुत कोशिश और फिर इनकी कोशिश कामयाब हो गई।
लखनऊ में ही परिवहन विभाग में उसे नई नौकर मिल गई। इस दौरान मैंने देखा कि वह सिर्फ़ शारीरिक भूख मिटाने ही नहीं बल्कि अब एक और रिश्ता कायम कर चुका था मुझसे, भावनात्मक रूप से बड़ा लगाव महसूस करने लगा था। जब घर में उठा-पटक मचती तो वह अब मेरे पास आकर बातें करता। कभी-कभी बच्चों की तरह मेरी गोद में सिर रख कर रो पड़ता था। यूनिवर्सिटी से अलग होने और नौकरी करने के बाद उसके व्यवहार में बड़ा परिवर्तन आ गया था। बड़ा परिपक्व हो गया था। वह अनिकेत की पढ़ाई के लिए बड़ा उत्साहित होकर पूछताछ करता। उसका एडमीशन वगैरह सब वही करवाता। फिर उसकी शादी की बात चली तो बड़ी मुश्किलें आईं सामने। वह शादी के लिए तैयार ही न हो। बात मेरे तक आई। ज़िया ने कहा,
'’तुम्हीं कुछ समझाओ आखिर मानता क्यों नहीं। अगर कहीं किसी लड़की से कोई चक्कर हो तो वही बताए। जहां कहे वहीं कर देते हैं।'’
मैंने कहा अच्छा समझाऊंगी। फिर एक दिन वह आया। तो मैंने बात चलाई। मगर वह बात टाल गया। उसका उखड़ा मूड देख कर मैंने कुछ नहीं कहा। दो-चार दिन बाद मैंने उसे फ़ोन करके बुलाया कि तुम आओ कुछ बात करनी है। और यह ध्यान रखना कि जल्दबाजी न करना। वक़्त लेकर आना। मुझे उम्मीद नहीं थी लेकिन वह उस दिन तय वक़्त पर आ गया। पहले मैंने समझा कि वह कुछ ही देर को आया होगा। लेकिन आने पर पता चला कि वह तो ऑफ़िस से आधे दिन की छुट्टी ले कर आया है। मैंने कहा आधे दिन की छुट्टी का क्या मतलब है।
तो वह बोला, '‘बस मन हो गया तो ले ली।'’
‘ये यूनीवर्सिटी में की जाने वाली नेतागिरी नहीं है समझे। नौकरी है, ईमानदारी से करो। किसी तरह मिल गई है तो उसकी अहमियत समझो। बेरोजगारी का दंश बहुत तीखा होता है। देखते नहीं आए दिन बेरोजगारों की आत्महत्याओं की खबरें छपती रहती हैं।’
'‘जानता हूं। पर पता नहीं क्यों नौकरी में मेरा मन नहीं लग रहा। मगर और कोई रास्ता भी नहीं दिखता। मेरे तमाम दोस्त कोई बिज़नेस या ठेकेदारी करके खूब पैसा कमा रहे हैं। मैंने पापा से कहा था कि सिर्फ़ एक बार दे दो पैसा। मुझे ठेकेदारी करने दो मैं साल भर में दो गुना पैसा दे दूंगा। तो बोले नहीं किसी तरह लड़कियों की शादी के लिए पैसा इकट्ठा किया है। वह नहीं दे सकता।'’
‘अपनी जगह वो ठीक हैं। ठेके में ज़रूरी नहीं की पैसा मिल ही जाए। कहीं डूब गया तो लड़की की शादी रुक जाएगी। उसका जीवन बरबाद हो जाएगा। फिर ठेकेदारी में जिस तरह मारकाट होती है वह सब देखते हुए तो यही कहूंगी कि तुम्हारे पापा ने जो निर्णय लिया वह तुम्हारी भलाई के लिए लिया। और बहुत अच्छा किया। फिर उन्होंने चाहे जैसे हो नौकरी भी तो लगवा दी न। अब तो कोई दिक़्कत नहीं। आराम से अपनी जिंदगी ज़ियो। और अब तो तुम्हारी शादी भी करने जा रहे हैं। फिर क्यों तमाशा बना रखा है। क्यों शादी से इंकार कर रहे हो।’
‘'पता नहीं, मैं खुद ही नहीं समझ पा रहा हूं।’
‘क्या नहीं समझ पा रहे हो। अरे! अगर किसी और लड़की के साथ कोई चक्कर है, संबंध है, शादी उसी से करना चाहते हो तो बताओ उसी से कर दी जाए। तुम्हारे घर वालों को कोई एतराज नहीं है। तुम साफ-साफ बोलो तो।’
'‘साफ-साफ बोलूं।'’
‘हां ...... तभी तो पता चलेगा चाहते क्या हो।’
मेरे इतना बोलने के बाद वह काफी भेदभरी निगाहों से मेरी तरफ देखता रहा। ऊपर से नीचे तक ऐसे नजर डाल रहा था मानो मैं उसके सामने निर्वस्त्र ही बैठी हूं। उसकी इस हरकत से मैं अचकचा गई। इसके पहले इस नजर से उसने मुझे कभी नहीं देखा था। जब मैं उसकी नजरों का देर तक सामना न कर सकी तो फिर पूछा,
‘ऐसे क्या देख रहे हो, बोलते क्यों नहीं साफ-साफ।’
‘'ठीक है, सुनिए साफ़ साफ़ ,मैं.. मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ तुमसे शादी करना चाहता हूं।'’
इतना कहते-कहते उसने दोनों हाथों से मेरी दोनों बाहों को कस कर पकड़ लिया। अपना चेहरा एकदम मेरे चेहरे के करीब लाकर मेरी आंखों में एकटक देखने लगा। उसकी आंखों की लाल-लाल नशें साफ दिख रही थीं। आंखों में आंसू दिख रहे थे। उसका शरीर थरथरा रहा था। उसके इस रूप से मैं एकदम कांप ऊठी। सिहर गई। मैंने उससे अपने को अलग करने का प्रयास किया लेकिन टस से मस न हो सकी। उसकी बलिष्ठ भुजाओं में मैं फंस कर रह गई थी। यूं तो पहले भी बार-बार उसकी बलिष्ठ भुजाओं का अहसास मैंने किया था। मगर उस दिन जो ताकत थी वह पहले कभी महसूस नहीं की थी। वह बराबर मेरी आंखों में घूरे जा रहा था। मैं उससे नजर मिलाने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी। इस बीच कुछ ही क्षणों में उसकी आंखों से आंसू बह चले, और उसकी पकड़ भी ढीली पड़ने लगी। तभी मैंने कहा,
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