मन्नू की वह एक रात
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग - 13
यह सोचते-सोचते मुझे हर तरफ से ज़िंदगी में अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा था। ऐसा लग रहा था कि जैसे वह चुड़ैल मुझ पर हंस रही है कि देख तेरा आदमी मेरे तलवे चाट रहा है, छीन लिया मैंने उसे तुझसे, तू मूर्ख है, हारी हुई बेवकूफ औरत है।
मैं बेड पर एक कोने में बैठी घुटने में सिर दिए यह सोचते-सोचते रोने लगी। भावनाओं में डूबती-उतराती मेरे रोने की आवाज़़ कब तेज होकर ऊपर चीनू तक पहुँचने लगी मैं जान नहीं पाई। पता मुझे तब चला जब वह आकर आगे खड़ा हो गया और चुप कराते हुए बोला,
'‘चाची बेकार रो रही हो, पापा भी अम्मा को ऐसे ही कह देते हैं, अम्मा भी कह कर चुप हो जाती हैं। ऐसे रोती थोड़े ही हैं।'’
मगर उस दिन मैं इस क़दर आहत थी कि उसकी बात पर ध्यान दिए बिना रोती रही, हिचकती रही। चीनू को कैसे बताती कि तुम्हारी मां और पिता के बीच झगड़ा उस तरह का नहीं है जैसा हमारा है। वह एक पति-पत्नी के बीच की नोक झोंक है, तकरार है जिसमें कहीं गहरे प्यार भी है। जबकि हमारे बीच नफ़रत की आग है। मज़बूरी में जैसे ढो रहे हैं एक दूसरे को और कि अभिशप्त हैं एक छत के नीचे रहने को। फिर अचानक चेहरे पर चीनू के हाथों का गर्म स्पर्श महसूस किया। उसने दोनों हथेलियों के बीच मेरा चेहरा लेकर मुझसे कहा,
‘'चाची इतना रोने से क्या फायदा। तबियत खराब हो जाएगी। चाचा जब आएं तो उनसे बात कर लीजिएगा।'’
ऐसी ही न जाने कितनी बातें वह बोलता जा रहा था। और मैं एक बच्ची की तरह उसकी बांहों में ढेर होती जा रही थी। और अंततः बेड पर एक तरफ लेट गई, मगर मैं रोना रोक न पा रही थी। रह-रह कर ज़िंदगी मुझे अपमान तिरस्कार के कांटो से भरी बड़़ी भयावह लग रही थी। उसकी चुभन मेरे आंसू रुकने नहीं दे रहे थे। चीनू भी बेड पर बैठ चुप कराने की कोशिश में लगा था कुछ इस तरह कि चुप कराए बिना हिलेगा नहीं। मेरी पीठ उसकी तरफ थी, वह पीछे से झुका चुप कराने के क्रम में बोले जा रहा था, लेकिन मैं कहां मानने वाली थी। क्योंकि मैं अपने वश में नहीं थी। मैं यह भी भूल चुकी थी कि मेरा आँचल कब का मेरी छाती का साथ छोड़ बेड पर फैला हुआ था। और ब्लाउज का बड़ा गला भी मेरे भारी स्तनों को ढकने में पूरा साथ नहीं दे पा रहा था।। मैं यह भी नहीं सोच पा रही थी कि यह वही चीनू है जो महिलाओं के अंगों को देखने का अवसर ढूढ़ता ही रहता है, और सड़क छाप अश्लील किताबें पढ़ कर अपने शरीर के अंगों से भी खिलवाड़ करता है।
जवानी की दहलीज के सामने खड़ा एक ऐसा किशोर जो किशोरावस्था को छोड़ युवावस्था की उफनती भावनाओं की दुनिया के करीब खड़ा शख्स है। जो मेरे जिस्म के खुले हिस्से पर नजर डाले होगा। उस दिन की उनकी ठोकर ने मुझे कुछ इस कदर हिला के रख दिया था कि मैं भूल सी गई थी सब कुछ। मैं अपमान की ज्वाला में दहक रही थी। शायद विक्षिप्त सी हो गई थी तिरस्कार को सहते-सहते। और चीनू जैसा शख्स मुझे चुप कराने, मुझे संभालने की कोशिश कर रहा था। उसके हाथ कभी कंधों पर, कभी मेरे गाल, मेरे माथे पर पड़ रहे थे। और उसका स्पर्श मुझे उस वक़्त न जाने क्यों राहत या यह कहें कि शीतलता प्रदान कर रहा था। अपनत्व की शीतलता का अहसास दे रहा था।
एक बार जब उसका हाथ मेरे आंसुओं को पोछनें लगा तो मैंने उसे पकड़ लिया। उसका हाथ मेरे गाल से चिपका हुआ था और उसके हाथ के ऊपर मेरा हाथ था। जब मैंने उसका हाथ पकड़ लिया तो वह पीछे से घूम कर सामने आ गया। बैठ गया बगल में, उसका समझाना-बुझाना चालू रहा और मेरा बिसुरना बढ़ता रहा, साथ ही चीनू के हाथ और ज़्यादा सुकूनकारी लगने लगे। मैं कहीं गहरे डूबने उतराने लगी, उसका हाथ ही नहीं शरीर का काफी हिस्सा मेरे शरीर को छू रहा था। मैं खुद पर दबाव महसूस कर रही थी। फिर अचानक ही मैं टूट गई, फट पड़ी, मैंने जकड़ लिया उसे अपनी बाहों में। यह तो उसके मन की बात हो गई थी। फिर आवेग, या कहें कि मैं विक्षिप्तता की आग में राख हो गई। और तूफान में बह गई चीनू के साथ। जो अभी यूवा भी न हो पाया था मैं उसके सामने बिखर गई, सब कुछ कर दिया उसके हवाले। उसका तपता तूफानी लावा मेरे अंदर बरसों से जमती आ रही काई की मोटी परत को बहा ले गया। मैं खुद को फूल सा हल्का महसूस करने लगी। विक्षिप्तता मेरी कहीं टुकड़े-टुकड़े हो रही थी। मेरी चेतनता लौटी तो उससे छिपाने के लिए मेरे पास कुछ बचा ही नहीं था। चीनू अपने कपड़े लेकर भाग गया था ऊपर अपने कमरे में। और अब मैं पश्चाताप की बढ़ती जा रही तपन में झुलसने लगी थी।’
‘तो! क्या तुम उसके साथ हम-बिस्तर हुई थी। बिब्बो का मुंह आश्चर्य और नफरत से खुला ही रहा।’
‘हुई नहीं थी ...... हो गया था सब कुछ। न जाने ऐसा कौन सा तूफान आ गया था उस वक़्त जिसके झोंके में बह गए थे हम दोनों। हम दोनों नहीं बल्कि सिर्फ मैं। चीनू की नजरें तो स्त्री शरीर की भूखी हर क्षण उसकी तलाश में भटकती ही रहती थीं। उसके लिए तो इससे बेहतर और कुछ हो ही नहीं सकता था।’
‘मन्नू तुम्हारे लिए भी इससे अच्छा और क्या हो सकता था। मैं तुम्हारी गोलमोल बातों को कुछ देर तो समझ ही नहीं पाई थी। मगर पति से मनमुटाव का तुम ऐसे बदला लोगी, ऐसे धोखा दोगी, उससे नफरत के चलते खुद को एक लड़के को सौंप दोगी। और अय्याशी की ऐसी घुट्टी पिला दोगी जो बरबाद कर देगी उसे। यह सब मेरी कल्पना से भी परे है। मन्नू माफ करना मन्नू तुम्हारा ऐसा गलीच सच सुनने के बाद मेरी जुबान पर तुम्हारे लिए दीदी जैसा पवित्र शब्द नहीं आ पा रहा है। तुम दोपहर से ही अनर्थ-अनर्थ कहती आ रही हो, तब मेरे दिमाग में यही बात आती रही कि गुस्से या उतावलेपन में हो गया होगा कुछ ऐसा-वैसा। लेकिन तुम्हारा अनर्थ ऐसा होगा कल्पना भी न कर पाई थी। और तुम्हारा यह अनर्थ मेरी नजर में तो इतना बड़ा है कि दुनिया के सारे अनर्थ एक तरफ कर दो तो भी तुम्हारा एक अनर्थ सारे अनर्थों पर भारी पड़ेगा।’
कहते-कहते बिब्बो उठी और एक गिलास पानी लेकर पीने लगी थी। आवेश के कारण वह हांफने लगी थी। मन्नू उसके क्रोध को देख कर विचलित न हुई। शायद वह इस अंजाम के लिए तैयार थी पहले से।
गुस्से से भुनभुनाती बिब्बो आकर बेड पर फिर बैठती हुई बोली,
‘हे! भगवान और क्या-क्या दिन दिखाओगे। अब यही सब सुनना रह गया था। अच्छा होता जो तुम यह सब दिखाने से पहले मुझे उठा लेते। ....... अब सवेरे तक तो हूं ही यहां ......। सुना डालो और भी जो अनर्थ बाकी रह गया हो। बहन तुम ऐसी होगी परिवार में किसी ने कल्पना भी न की होगी। न जाने हॉस्टल में भी तुमने क्या-क्या गुल खिलाए होंगे, जीजा की हर बात गलत ही हो यह भी तो संभव नहीं। ..... खैर सुनाओ और जो अनर्थ हों आज सब सुना डालो। हां बहन बार-बार मुंह से अब भी इसलिए निकल रहा है कि मैं तो यही मानती हूं कि रक्त संबंध लाठी मारने से भी खत्म नहीं होते। खैर बताओ कुछ और बाकी हो तो।’
बिब्बो का गुस्सा उसका व्यंग्य देख, सुन कर मन्नू ने कुछ देर चुप रहने के बाद कहा,
‘तुम्हारे गुस्से ..... तुम्हारी नफरत से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ बिब्बो, तुम्हारी जगह मैं होती तो निश्चित ही मैं भी यही करती। क्योंकि आदमी जैसे वक़्त, जैसे हालात से गुजरता है उसकी प्रतिक्रियाओं पर उनका असर होता है। इसी लिए कहते हैं वक़्त का हर शै गुलाम है।’
‘इन बड़ी-बड़ी बातों में कुछ नहीं रखा है। मैं तो इतना जानती हूं कि हमने पाप किया है तो हम पापी हैं बस। तुमने तो जो किया है वह इतना बड़ा पाप है जिसकी कोई सीमा ही नहीं है। मैं यही नहीं समझ पा रही कि इतना कर डालने के बाद तुम कहां से इतनी हिम्मत जुटा पाई कि न सिर्फ़ जीजा का जीवन भर सामना करती रही बल्कि दुनिया के सामने बेधड़क जीती रही। किसी को कानों -कान खबर तक न होने दी। और आज इतना हौसला कर बैठी कि सब कुछ बेहिचक बता भी रही हो। मैं तो दंग रह गई तुम्हारे इस अनर्थ को जान कर।’
‘बिब्बो दरअसल यह अनर्थ नहीं था।’
‘क्या .......?’
‘हां! यह अनर्थ नहीं था बिब्बो।’
‘हे! भगवान .......... । तो फिर अनर्थ किसको कहते हैं। अगर यह अनर्थ नहीं था तो फिर क्या था वह भी बता दो।’
‘बिब्बो मेरी नजर में तो अनर्थ वह था जो इसके बाद हुआ या होता रहा। मेरी नजर में तो यह आगे चल कर जो अनर्थ हुआ उसकी आधारशिला मात्र थी।’
‘अरे! ......... हे भगवान ...... इससे बड़ा भी कोई अनर्थ है क्या ? जो तुमने आगे किया।’
‘बिब्बो मैं तो सब बताने को तैयार बैठी हूं। ....... हां अगर सुनने को तैयार हो तो।’
‘सुनने को तो मैं तैयार हूं। यहाँ अपने लड़कों-बच्चों को छोड़ कर इस लिए आई थी कि उन सब की उपेक्षा ने जीना मुहाल कर दिया था। मगर यहां यह सब सुनने को मिलेगा यह तो सपने में भी नहीं सोचा था। मेरा तो यह सोच कर दिमाग फटा जा रहा है कि अम्मा-बाबू की आत्मा पर क्या बीत रही होगी यह सब जान कर कि जिस संतान पर वह सबसे ज़्यादा गर्व करती थीं वह ऐसी है। और इतना क्या अभी तो तुम कह रही हो कि यह अनर्थ था ही नहीं ...... अनर्थ तो कुछ और है जो तुमने आगे किया। मैं तो यही सोच कर पागल हो रही हूं कि आखिर वह अनर्थ क्या होगा जो अभी सुनने को बाकी है।’
‘बिब्बो जो तुम मेरी जगह होती तो तुम्हें पता चलता कि मेरी गलती कितनी है और कितनी नहीं है। मैं जानती थी कि तुम मुझ से बहुत गुस्सा होगी मगर बात तक करने से मना करने लगोगी, नफ़रत इतनी करोगी कि वापस जाने की तैयारी करोगी इसका अनुमान नहीं था। मैं तो समझ रही थी कि बहन होने के नाते बल्कि उससे पहले एक औरत होने के नाते तुम ही मेरा दर्द समझोगी। मेरा इंसाफ करोगी कि मैं कितनी गलत हूं और अन्य कितना गलत थे। या कि सारी गलती सिर्फ़ मेरी ही थी। मगर बात सुनने को कौन कहे तुम मुझे ही अपमानित करने लगी।’
‘तुम किस मान-अपमान की बात कर रही हो। जब उस छोकरे के सामने अपनी लाज का तमाशा बनाती रही, अपनी अय्याशी का जश्न मना रही थी उस समय तुम्हारे दिमाग में सम्मान की आग नहीं जली थी। सब इज़्जत लुटाने के बाद आज तुम्हें सम्मान याद आ रहा है। मुझे कह रही हो कि मैं तुम्हें अपमानित कर रही हूं। मगर तुम्हारा कर्म सुन कर तो मैं खुद अपने को अपमानित महसूस कर रही हूं कि मैं तुम्हारी बहन हूं।’
‘हां बहन हो। ...... मगर अब अपमानित महसूस कर रही हो इस बात पर। मैंने कहा था न कि आदमी की प्रतिक्रिया वक़्त के इशारे पर ही चलती है परिस्थितियों के सामने विवश हो कर उसी के अनुरूप होती है। तुम्हीं ने दिन में कहा था ‘हम सगी बहनें हैं, लाठी मारने से कहीं पानी फटता है क्या ?‘ लेकिन अब देखो परिस्थितियां बदलीं तो तुम्हारी प्रतिक्रिया भी बदल गई। लाठी से पानी फट गया। अब मेरी सुनने को कौन कहे बहन कहना भी तुम्हें गवारा नहीं।’
‘देखो तुम्हारी बातों से तो मैं जीत नहीं सकती लेकिन मैं इस बात पर अडिग हूं कि मैं सही हूं।’
‘तो मैंने कब कहा कि तुम गलत हो। मैं तो सिर्फ़ अपनी बात कहना चाह रही थी। तुम्हें बताना चाह रही थी वह सब जिसका बोझ बरसों से ढोते-ढोते मैं थक कर पस्त हुई जा रही हूं। बात ऐसी है कि सबको कह नहीं सकती। संयोग से तुम आ गई तो रोक न पाई खुद को क्योंकि तुम्हें देखकर लगा कि तुम्हारे अलावा और किसी से यह बातें की ही नहीं जा सकतीं।’
यह कहते-कहते मन्नू सिसक उठी। तो बिब्बो कुछ नरम पड़ गई बोली,
‘मैंने सुनने से कब मना किया। बताओ न जो बताना चाहती हो, वह बात बताओ न जो तुम्हारी नजर में अनर्थ था। दुनिया की नजर में जो अनर्थ है उसे तो तुम अनर्थ मान ही नहीं रही हो। खैर जब चीनू ऊपर भाग गया तब क्या हुआ?’
बिब्बो को मुद्दे की बात पर आते देख मन्नू ने उसके व्यंग्य का जवाब देने के बजाय खुद भी सीधे मुद्दे पर आकर बोली।
‘जब चीनू चला गया ऊपर तो मैं हतप्रभ सी सोचने लगी यह क्या हो गया ? यह बात दिमाग में आते ही मैं पसीने-पसीने हो गई कि अगर इस संबंध से मैं प्रिग्नेंट हो गई तो क्या होगा ? दिमाग में यह बात इसलिए आई क्योंकि तब तक मेरे दिमाग में यह बात कूट-कूट कर भर चुकी थी कि कमी इनमें है इसी लिए मैं मां नहीं बन पा रही हूं। और चीनू का तपता लावा इस सूखे को खत्म कर देगा। इसका मुझे न जाने क्यों यकीन हुआ जा रहा था। ऐसी अनहोनी ऐसी विकट स्थिति में भी मैं बच्चा ही जी रही थी।’
‘तो इसमें घबराने की क्या बात थी नाम तो जीजा का ही होता।’
‘दिक़्क़त तो सब से बड़ी यही थी। क्योंकि पिछले छः सात महीनों से हमारे संबंध नहीं हुए थे। और यदि तब मैं प्रिग्नेंट होती तो बात खुल जाती कि अब कहां से हुआ। अब यह ज़रूरी हो गया था कि इनके आते ही मैं इनके साथ तुरंत संबंध बनाऊं। एकाध महीने की भी देरी इनके जैसे तेज-तर्रार आदमी के सामने बातों को खोल कर रख देगी। यह बात दिमाग में आते ही मैं परेशान हो उठी। दिमाग बिल्कुल गडमड हो गया।’
‘मानती हूं तुम्हारी हिम्मत और दिमाग को। ऐसी परिस्थितियों में भी इतना जोड़-तोड़ तुम्हारी जैसी औरत ही कर सकती है।’
‘हालात बनने पर बातें दिमाग में आने ही लगती हैं। .... यह कोई आश्चर्य नहीं था। बच्चे की बात हावी होते ही मेरे दिमाग में तरह-तरह की बातें आने लगीं। एक बात और मन को सताने लगी कि यह मनचला टाइप का चीनू कहीं बात फैला न दे। अक्सर ऐसे लड़के अपने दोस्तों के बीच डींगें हांकने लगते हैं और फिर वह क्या कह डालेंगे इसका कोई ठिकाना नहीं होता। इसी उलझन में मैं चीनू के कमरे के पास चुपचाप जाकर आहट लेने लगी। उसने कमरे की लाइट आफ कर रखी थी। नाइट बल्ब भी नहीं जल रहा था। कुछ देर तक जब जरा भी आहट न मिली जुंबिश तक न हुई तो मैं खिड़की के पास जाकर धीरे से बोली चीनू ......। लेकिन कोई उत्तर न मिला। ऐसा कई बार हुआ तो मैंने दरवाजे पर हल्का सा धक्का दिया, वह खुल गया। मैं एक क़दम अंदर जाकर धीरे से फिर बोली चीनू ...... चीनू ? दूसरी बार आवाज़़ थोड़ी तेज थी तब उसने दबी आवाज़़ में कहा '‘हूं'’.....?
‘नीचे कमरे में आओ कुछ बात करनी है।’
वह कुछ न बोला तो मैंने फिर दोहराया
‘मुझे कुछ बात करनी है थोड़ी देर को नीचे आ जाओ’
तब वह धीरे से बोला
' ‘आप चलिए मैं आ रहा हूं।''
***