कंधा Amita Joshi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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कंधा

"कितनी डरपोक हो तुम ,तुम्हें छोड़ कर मैं कहीं नहीं जा सकता ।अच्छे भले बन्द घर में भी डर लगता है तुम्हे ,ऐसा कब तक चलेगा ",सोमेश की आवाज़ में एक खीज थी ।

"क्या करूं ये मेेेरा खानदानी डर है ,इससे बाहर निकलना बहुुत कठिन है ", सुमित्रा ने बड़े प्यार से सोमेश के कंधे पर सिर रख कर कहा । ।प्रौढ़ावस्था में किए गए विवाह को सुमित्रा छोटी छोटी बातों से टूटने की दिशा में नहीं ले जाना चाहती थी । इसलिए वह बहुत सी बातो को सुना अनसुना कर देती थी ।

सोमेश से अपनी पहली मुलाकात सुमित्रा कैसे भूल सकती थी ।वो दिन जब उसके पापा का ओप्रेशन था और पहली बार मुम्बई जैसे शहर में आकर उसको बहुत बेचैनी थी ।खासकर ऐसे क्षण में अपने पापा से अत्यधिक स्नेह करने वाली सुमित्रा के मन को अनेक आशंकाओं ने घेर लिया,।कैसे होगा सब कुछ ,पापा को फिर से सबल होकर अपने पैरों पर खड़े होता कब देख पाएगी वो ।

"मां कल पापा का आपरेशन है ,अब हम दोनों को सो जाना चाहिए ,तभी हम सुबह समय पर उठकर अस्पताल पहुंच पाएंगे ",मन ही मन
घबराई हुई मां से सुमित्रा ने कहा ।अड़तीस वर्ष से अपने मम्मी पापा के साथ रह रही सुमित्रा के लिए मम्मी का मन पढ़ना बहुत आसान था । अतः वह बिना कुछ बोले ,सब कुछ समझ जाती थी । दीदी के विवाह के बाद तो सुमित्रा का मम्मी के साथ मित्र का रिश्ता हो गया था।अपने पापा की लाडली सुमित्रा को कभी किसी ने फूल से भी नहीं छुआ था ।
सुबह सवेरे जल्दी तैयार होकर सुमित्रा मां के संग जब अस्पताल पहुंची तो उसने देखा पापा को ओ टी में ले जाने की पूरी तैयारी है ।ओ टी के बाहर सोमेश और मां के साथ बैठी सुमित्रा को लगा जिन भाई और मित्रों के लिए उसने अपने बचपन का समय ,स्नेह और युवा वस्था का विशुद्ध प्रेम दिया ,आज इस ऊहापोह की घड़ी में उसे उनमें से कोई भी नज़र नहीं आ रहा। क्या उसके स्नेह में,प्रेम में कहीं कोई बहुत बड़ी कमी तो नहीं रह गई थी ।वहीं कमी आज वह अपने आसपास महसूस कर रही थी ।
बचपन से अन्तर्मुखी स्वभाव की सुमित्रा ने कभी अपने भावों को खुलकर अभिव्यक्त नहीं किया ।शायद अपनी एकमात्र ,अति साहसी और सामाजिक रूप से व्यवहारिक ,मोहिली दीदी की छत्रछाया में रहकर , सुमित्रा को कभी ऐसी कमी का सामना ही नहीं करना पड़ा ।दीदी के विवाह के बाद मां ने वो जिम्मेदारी लें ली ।आज भी दीदी के सिवा कहां कोई था जिसे सुमित्रा सहारे के रूप में देखती ।समय के साथ दीदी ने सही निर्णय लेकर कस्बे की नौकरी छोड़ बड़े शहर की ओर प्रस्थान किया । सुमित्रा को अब भी याद है वो गाना जो दीदी अक्सर गुनगुनाती थीं " छोटे छोटे शहरों से ,खाली बोर दोपहरों से हम तो झोला उठा के चले" और सचमुच दीदी ने झोला उठाने का सही समय पर सही तरीके से साहस किया।वरना आज पापा का आपरेशन हम कभी भी इतने बड़े अस्पताल में नहीं करा सकते थे ।

"क्या सोच रही हो ,पापा का आपरेशन हो गया है , सुमित्रा चलो कमरे में ",मां की आवाज़ से सुमित्रा की विचारश्रृंखला टूटी
। सोमेश ,जो कि दीदी जीजाजी के सामाजिक दायरे की लम्बी सूची का एक हिस्सा था ,वो अब धीरे धीरे सुमित्रा के जीवन का भी हिस्सा बन गया था । अस्पताल मे रात को रुकना हो ,दवाई लानी हो या उन टेढ़े मेढे गलियारों से गुजर कर रिपोर्ट लानी हो ,सब जिम्मेदारी सोमेश की ही होती थी ।अपने पापा की सेवा में तन्मयता से लगे अपरिचित सोमेश को देखकर सुमित्रा के मन में उन सभी परिचितों के चेहरे घूमने लगते जिन्हें वो आजतक‌ बहुत‌ अपना‌ मानती‌ आई थी ।वो चाहे उसके परम मित्र हो या‌ मुंह‌बोले‌ भाई ।उसकी आंखें और कमजोर मन सदा एक चिरपरिचित कंधे की तलाश में रहते ।

"क्या सोच रही हो ,डाक्टर साहब आए हैं ,इन्हें पापा की रिपोर्ट दिखाओ । और आगे के लिए सभी बातें पूछ लो सुमित्रा ।" सुमित्रा के कमजोर मन की असमंजस से अंजान सोमेश ने बहुत अपने पन से कहा ।
डाक्टर से कोई भी बात करनी हो, रिपोर्ट ,दवाई‌ समझनी हो तो सुमित्रा का रसायन विज्ञान का ज्ञान ही काम आता था ।अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले पापा मम्मी की लाडली सुमित्रा के लिए यह काम बहुत आसान था ।और वो सहर्ष इसे कर भी लेती थी ।
लेकिन अस्पताल में कहीं जाना हो या घर से अस्पताल की दूरी तय करनी हो,इन सबके लिए सुमित्रा की आंखें एक कंधा ही ढूंढती और अक्सर वो सोमेश का कंधा होता ।
"सुमित्रा ,पापा को देखो, बाथरूम‌ मे गिर गए हैं ,कहीं आपरेशन वाले पैर में फिर से चोट तो नहीं आई है ",एक‌ रात‌ मां ने चिल्ला कर कहा
सुमित्रा को कुछ न सूझा और वो साथ वाले कमरे से सोमेश को बुला लाई ।जल्दी से दीदी ने अस्पताल में व्यवस्था करवाई और उसी समय दिल का आपरेशन कर दिया । दीदी-जीजा ,सोमेश सब के प्रयासों से पापा घर आ गए और सुमित्रा की जान में जान आई ।
"सुमित्रा ,इस बार मैं भी तेरे साथ मेरठ जाऊंगा ",पापा पिछले चार सालों में बीमारी से जूझ जूझ कर बच्चों की तरह मचल कर जिद करने लगे थे । मां के संग अक्सर उनकी मीठी सी नोकझोंक हो जाती , डाक्टर दीदी से भी मीठी सी बहस हो जाती पर सुमित्रा के लिए पापा एक ऐसा कंधा थे जिसपर वो खड़ी होकर सबसे ऊंची दिखती थी । अतःउनसे कभी बहस नहीं कर पाई । उनकी हर इच्छा का मान करना उसे उतना ही सकून देता जितना कभी उसकी इच्छा पूरी करके पापा को लगता होगा ।
"सुमित्रा क्या तुम सोमेश में अपना जीवन साथी देखने लगी हो ",एक दिन मां ने सुमित्रा से पूछ ही लिया ।वो कहते हैं,इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपता ।अब बयालीस की उम्र में इश्क,यह सोचकर ही सुमित्रा को कुछ अटपटा सा लगा ।कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने पापा के कमजोर होते कंधे के एहसास से घबराकर सुमित्रा का झुकाव सोमेश के कंधे की तरफ हो गया हो ।कहीं ऐसा तो नहीं बियालीस साल जो निस्वार्थ सेवा और प्रेम के भाव अपनी मां के लिए उसने अपने पापा में देखें, वो ही गुण सुमित्रा को सोमेश में दिखे हो ।
सोमेश के संग विवाह के बाद जब सुमित्रा विदा होने लगी तो पापा की नम आंखों को देखकर सुमित्रा ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा "रोइए मत ,जल्दी आ जाउंगी ,फिर हम साथ ही रहेंगे "।
पिछले पांच वर्षों में ऐसा ही हुआ,वो सोमेश के साथ सदा ही मम्मी पापा के साथ रही ।

"चलो,घूमने नही चलना,जल्दी जूते पहनो ,"सोमेश की गरजती आवाज़ ने सुमित्रा को अचानक से वर्तमान में ला पटका। ।
"पांच साल से घुमा रहे हो ,पर मैं एक इंच भी दुबली नहीं हुई, " सुमित्रा ने आंसुओ को थामते हुए हंसकर कहा ।

"कौन सी घड़ी में शादी कर ली ,समझ नहीं आता ।हिली हुई आत्मा लगती हो तुम ",सोमेश ने उसके मन के भावों को पढ़ते हुए कहा ।
सोमेश को सुमित्रा को हंसाना आता था ।
कई बार सुमित्रा को भी लगता कि सचमुच उसमें नारी सुलभ गुण बहुत कम है और उसका व्यवहार आत्मा जैसा ज्यादा है । उसने कहीं विवाह करके कोई गल्ती तो नहीं कर दी । कभी कभी सोमेश को इस बंधन से आजाद करने के बारे में भी सोचती ।

"क्या सोच रही हो , जल्दी से सामान रख लो ,सुबह सात बजे की ट्रेन से मुम्बई की रिज़र्वेशन करवा दी है", सोमेश ने लगभग चिल्लाते हुए कहा ।"इस बार पापा के साथ तुम भी अपनी हड्डियों की जांच करव लेना । पिछले पांच साल से देख रहा हूं,हर सर्दी में तुम्हारी किसी न किसी हड्डी में दर्द हो जाता है , और तुम गांव नहीं जा पाती हो ",सोमेश ने कुछ खीजते हुए कहा ।

सुमित्रा समझ नहीं पा रही थी कि सोमेश चाहता क्या है ,।शायद इस भरी गर्मी में वो अपने गांव की ,चीड़ के पेड़ों की ठंडी हवा खाना चाहता है और मजबूरी वश उसे मुम्बई जाना पड़ रहा है "।
सुमित्रा ने रात के समय ज्यादा बहस करना ,बात को बढ़ाना उचित नहीं समझा।वो जानती थी रात को बिना सोमेश के कंधे के वो सो नहीं पाएगी , अतः अपनी विवशता से परिचित सुमित्रा ने चुप रहना ही उचित समझा ।पर मन ही मन उसने तय किया कि इस बार वो सोमेश को मुम्बई में ज्यादा दिन नहीं रोकेगी और उसे गर्मियां गांव में ,चीड़ की हवा में,मां के संग काटने के लिए कहेंगी ।
ऐसा दृढ़ निश्चय कर सुमित्रा को कब सोमेश के कंधे पर नींद आ गई ,पता ही नहीं चला । मुम्बई पहुंच कर ,पापा की आंखों में वो निश्छल बालक सा प्यार देखकर , सुमित्रा की आंखें भी डबडबा गई।

"आ गई सुमित्रा,कितने दिन की छुट्टी है ",पापा को उसके जाने की फ़िक्र पहले हो जाती ।

"बहुत दिन छुट्टी है,जब तक आपकी बड़ी डाक्टर बिटिया नहीं आ जाती ,विदेश से आपके लिए दवा नहीं ले आती,तब तक यह छोटी टीचर सुमित्रा ही आपको पढ़ाएगी ,रामायण याद करवाएगी ", सुमित्रा अपनी मां की तरह टीचर वाले लहज़े में बोली । और हमेशा की तरह पापा हंस पड़े ।
पापा को अस्पताल में इस बार जब भर्ती किया तो सबकुछ सामान्य सा था । डाक्टर दीदी जीजाजी के रहते अस्पताल में कहीं कोई दिक्कत नहीं आती थी। बिल्कुल किसी पांच सितारा होटल का सा इंतज़ाम होता ।दिन भर सुमित्रा पापा मम्मी के साथ अस्पताल में रहती और रात को सोमेश रुक जाता ।पापा कुछ खाना चाहे या न चाहे , सुमित्रा की मनुहार के आगे ,उनकी एक न चलती ।
"दही में चीनी डाल दी है ,जल्दी से मुंह खोलो ,हां, आ गप ",बिल्कुल बच्चों की तरह पापा को खिलाने में सुमित्रा की सोई ममता जाग जाती ।
"बहुत गन्दी दवा है ,नहीं पीऊंगा",पापा अक्सर ये ज़िद करते ,पर सुमित्रा अपना सारा रसायन शास्त्र का ज्ञान उड़ेल कर ,उनको दवा पिला ही देती ।
"इस बार मैं ठीक होकर तेरे साथ मेरठ जाऊंगा,"।
पापा का यह वाक्य सुमित्रा को जोश से भर देता। वह मन ही मन चहक उठती,उसे लगता पापा साथ चलेंगे तो वो उनके कंधे पर फिर चढ़ कर निश्चिंत होकर ऊंचाई से संसार देखेगी ।

"हां,हां आपको चलना ही पड़ेगा ,नहीं तो मेरी फाईलों और नौकरी का क्या होगा,"सुमित्रा ने पापा पर अपनी ४७ साल की निर्भरता को जाहिर किया ।

पापा अस्पताल से ठीक होकर दीदी के घर आ गए और सुमित्रा अत्यधिक निश्चिंत हो गई । सोमेश के प्रति उसकी कृतज्ञता बढ़ गई ।दो दिन कहां पंख लगा कर उड़े ,पता ही नहीं चला । पापा को ठीक देखकर सुमित्रा का आत्मविश्वास बढ़ गया,उसे लगा अब वो पापा को अपने संग मेरठ ले जा सकती है ।अभी बहुत सालों तक पापा उसे जीवन की सब ऊंचाइयां दिखा सकते हैं ।जिन कंधों पर बचपन में उसे दुर्गम पहाड़ की चढ़ाई हंसते हंसते चढ़ा देते थे,आज भी उसे वो जीवन के हर दुर्गम पहाड़ को पार कराने में सक्षम हैं।यह सब सोचकर उस रात सुमित्रा निश्चिंत होकर सो तो गई ,पर अगली सुबह उसके लिए अनिश्चितताओं का पहाड़ लेकर आई ।

आज उसे पापा को अपना कमजोर कंधा देना था ।उसने किसी कंधे पर सिर रखकर आंसू तो नहीं बहाए पर उन इष्ट मित्रों की अथाह भीड़ में वो सोमेश के कंधे के सहारे ही अपना कमजोर कंधा अपने सशक्त पापा को दे पाई ।अब पापा ऊंचाई से संसार को, सुमित्रा को देख रहे थे और सुमित्रा का कमजोर कंधा उसमें उनका कुछ सहायक हो रहा था ।