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चम्बा बाली

चम्बा बाली

" अम्मू नानी, इस छोटी डिबिया में क्या है ? मुझे पहनाओ जल्दी से|"

इसमें चम्बा बाली है मेरी प्यारी गुड़िया, जो मैंने 40 साल से संभाल कर रखी है, तुझे तेरी सगाई पर देने के लिए | बस दो दिन की तो बात है अब, इतना सब्र तो कर ले बिटिया|"नानी ने गुड़िया को प्यार से समझाया|

"नानी तुमने कैसे किया इतना सब्र, मैंने तुमको अक्सर इस डिबिया को खोलते देखा, बालियों को निहारते देखा, खरे सोने की चमक को तुम्हारी आँख की चमक बनते देखा, पर फिर भी तुमको इन्हें पहनते नही देखा अम्मू एक बार तो इनको पहनकर दिखाओ ", गुड़िया ने मचलते हुए जिद की |

अम्मू जानती थी की गुड़िया जब कोई ज़िद करती है तो फिर नानी नहीं, एक सहेली सा रिश्ता जोड़ लेती है अम्मू के साथ वो, और फिर अम्मू उसकी ज़िद पूरी करके अत्यंत आनंदित होती हैं|पिछले पंद्रह सालों से गुड़िया ही उसका संसार है. अब कुछ दिनों में वो भी चली जाएगी और वो अकेली फिर अपने यादों के बक्से में कैद हो जायेगी.

कांपते हाथों से अम्मू ने बाली को डिब्बे से निकाला तो आँखें सजल होगयी | चश्मे को साफ़ करते करते जाने कितनी पुरानी यादों की धूल भी जैसे उड़ कर अम्मू की आँखों में किरकिरी बन कर चुभने लगीं |सजल होने का यही कारण था शायद|

"क्या हुआ नानी, डिब्बे पर क्या पढ़ रही हो ?"

"चम्बा, हिमाचल प्रदेश ", गुड़िया ने झट से डिबिया नानी के हाथ से लेकर पढ़ा और जल्दी से नानी के कान में बाली डाल दी| कौन लाया था नानी आपके लिए, इतनी सुन्दर बाली ?" नानी को गुड़िया ने छेड़ते हुए कहा और फिर इधर उधर खुशी से फुदकने लगी और नानी खाली डिबिया में गुड़िया के प्रश्न का उत्तर ढूंढने लगीं |

अपनी सगाई से कुछ दिन पहले वह भी गुड़िया की तरह अत्यंत हर्षित थीं और घर भर में कूदती फुदकती अपनी माँ के संग सब काम करवा रही थी. शाम का समय था | उसके परम मित्र, और पथ प्रदर्शक, पंद्रह वर्षों से उसके परिवार के सुख दुःख में शरीक होने वाले सुरेश बाबू आने वाले थे|

" अम्मू ड्राइंग रूम सुव्यवस्थित कर दो, सुरेश बाबू को फ़ोन करके पूछ लो कितनी देर में पहुंचेंगे.और हाँ चाय का पानी भी रख देना."माँ ने अम्मू को हिदायत दी.

माँ की आदत थी जब भी घर में कोई प्रियजन आता तो अपने हाथ से उसके लिए पकोड़ी, चटनी, समोसे, सब बनाती.सुरेश बाबू को माँ के हाथ का बना खाना बहुत पसंद था.कई बार तो माँ उनकेलिए कूरियर से करेले, लड्डू, आम की खट्टी मीठी चटनी भी भेजती. वो भी माँ के संग अपने सब खट्टे मीठे अनुभव बांटा करते और माँ पिताजी भी अपने अनुभवों से उनका ज्ञान बढ़ाते. एक सच्चा सा निस्वार्थ सा, अनाम स्नेहसूत्र बनगया था, माँ, पिताजी, और सुरेश बाबू के बीच.

इस बार जब सुरेश बाबू आये तो बहुत से थैलों में बहुत कुछ भर लाये.थैलों को पकड़ाते हुए अम्मू से इतना ही बोले" माता ने भिजवाया है | किसी से ज़िक्र ना करें, इन वस्तुओं का| "इधर माँ रसोई से आवाज़ लगाती और उधर अम्मू थैलों को खोलने के लिए उत्सुक हो उठती.

जल्दी जल्दी थैलों को खोल कर अम्मू ने आखिरकार देख ही लिया, उनमें शनील के अलग अलग थैलों में पायल, अंगूठी, एक सोने का पेंडंट लाल धागे में, और दो पंजाबी सूट थे. एक लाल रंग का और एक बादामी. हर डिब्बे को अपनी आदत अनुसार सुरेश बाबू ने बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से पैक किया था.

सामान को वैसे ही छोड़ कर जब अम्मू ड्राइंग रूम में गयी तो सुरेश बाबू ने उसके हाथ में एक छोटी डिबिया रखी और कहा कि पिछले दिनों एक पुराने बैग में सफाई करते हुए ये मिली थी, इसे रख लो.

उसको खोला तो अम्मू को ध्यान आया कि एक बार जब सुरेश बाबू किसी काम से चम्बा गए थे तो उसने चम्बा बाली और चम्बा रुमाल का ज़िक्र किया था.

कितना भोला हठ था वो जिसमे हठ के पूरा होने की कोई इच्छा भी नही थी.बस अम्मू को अपनी छोटी छोटी मन की बातें कहने का अवसर चाहिए होता था और सुरेश बाबू कभी सुनने से इंकार नहीं करते थे.

बीसवें वर्ष में भी अम्मू एक गुड़िया, एक घड़ी, एक कहानी की किताब, ग्रीटिंग कार्ड की ज़िद दस और पांच वर्ष की बालिका के समान सुरेश बाबू से कर लेती थी. अम्मू का सुरेशबाबू के प्रति विशेष लगाव कभी किसी को बुरा नहीं लगा| उस अनाम से रिश्ते में एक माधुर्य, निष्कपट स्नेह और अपनापन था जिसे कभी बहुत जग जाहिर होने की आवश्यकता भी नही पड़ी. अम्मू की भाभी जो सुरेश बाबू के दफ्तर में ही काम करती थीं, उन्होंने भी कभी इस विषय पर कोई आपत्तिजनक सवाल नही उठाये.

समय के साथ अम्मू की भी नौकरी उसी संस्था में लग गयी और सुरेश बाबू का भी उस शहर से स्थानांतरण होगया.फिर भी पत्र व्यवहार और शुभ अवसरों पर आना जाना बना रहा. समय के साथ सुरेश बाबू के परिवार से भी घनिष्ठता बढ़ गयी हालांकि सुरेश बाबू ने कभी स्वयं आगे बढ़ कर अपने परिवार की कोई बात नही की पर चुलबुली शैतान बेसब्री अम्मू ने सब कुछ जान लिया था | सुरेश बाबू एक साधारण से सरकारी घर में अपने माता पिता, बुआ, भाई, भाभी के संग रहते थे.

उन दिनों लैंडलाइन फ़ोन ही होते थे, अतः अम्मू जब भी फ़ोन करती तो कोई न कोई नया परिचय हो ही जाता. और माताजी की शिकायतों की पोटली जब खुलती तब तो अम्मू के कानों में दर्द होने लगता

"सुरेश के लिए कितने ही अच्छे रिश्ते आरहे हैं पर ये कुछ बोलता ही नही, तू क्यों नही समझाती इसको.", हर दुसरे दिन माता की यह शिकायत होती.

अम्मू बेचारी अपने से कई वर्ष बड़े, आदरणीय सुरेश बाबू से इस विषय पर कुछ भी कहने से कतराती | आठ दस साल वर्ष बाद जब इस निस्वार्थ अपनेपन में एक गहराई का एहसास होने लगा तब एक बार अम्मू ने हिम्मत करके पूछा था "कोई गुड़ मैडम क्यों नहीं लाते आप"

उस दिन का सुरेश बाबू का जवाब अम्मू को ताउम्र चुप करने के लिए काफी था "आई डोंट वांट टू एंटर िन्टू ऐनी काइंड ऑफ़ रिलेशनशिप "

उस दिन के बाद से अनेक वर्षों तक अनेक बातें की अम्मू ने पर इस एक विषय पर विराम लग गया था.

आज अपनी सगाई से कुछ दिन पहले पहले आशीर्वाद के रूप में चम्बा बाली पाकर अम्मू खुशी से फूली नहीं समा रही थी|अपने विवाह का पहला कार्ड उसने मंदिर में रखकर , सबसे पहले सुरेश बाबू को ही भेजा था और वो भी तुरंत पहली भेंट लेकर आगये थे.

उसके बाद अनेक व्यस्तताओं में भी उसका संपर्क सुरेश बाबू से बना रहा.

उसे पूर्ण विश्वास था की जिस जीवनसाथी को उसने चुना है, उसके साथ मिलकर वह इस स्नेहपूर्ण सम्बन्ध को और भी अच्छे से निभा सकेगी |

पर जैसा हम सोचते हाँ वैसा कहाँ होपाता है |

अम्मू को विवाह के कुछ दिन पश्चात ही समझ में आगया की उस खरे सोने जैसे पंद्रह वर्ष के लम्बे रिश्ते में भी खोट आ गयी थी और जिन अपमान भरे शब्दों को अम्मू ने सुरेश बाबू से सूना, वो शब्द जीवन भर के लिए एक बड़ी कड़वी सीख बनकर रहगए अम्मू के लिए.

उस दिन जो चम्बा बाली हाथ से छूटी तो आज भी चालीस साल बाद भी उन बालियों को उठाने में वैसे ही कांपते हैं अम्मू के हाथ |

"नानी चलो, कब तक ऐसे बक्से में रखी चीज़ो को देखती रहोगी ", जवानी की देहलीज़ पर कदम रखती गुड़िया ने मानों उसकी छलछलाती आँखों को पढ़ लिया था.

अम्मू नानी ने जीवन भर उन कड़वे शब्दों को, उस तिरस्कार और अपमान को अपने अंदर दबा कर रखा, समय भी अपना मलहम उन घावों पर नही लगा पाया | अपने जीवनसाथी से भी, जो दुःख वो नही कहपायीं, आज गुड़िया ने उसको कुछ कुछ समझा है|जब नानी अपने ख्यालों में खोयी थी तब गुड़िया ने चुपचाप नानी के उस बक्से में से निकाल कर वो डायरी पढ़ ली थी जिसको आज तक नानी ने ताले में ही रखा था.

संवेदनाओं से भरी नानी के निश्छल निस्वार्थ प्रेम को जब सुरेश बाबू ने बाली और अन्य उपहार देने के बाद असंवेदनहीन और वेदनापूर्ण परिचय का नाम देकर समाप्त किया होगा तब नानी पर जो पहाड़ टूटा होगा, उसे कोई नही समझ सका और नानी ने भी जीवन भर उस दुःख को परिवार के संग सांझा नही किया.

आज गुड़िया अपनी सगाई से पहले नानी का दुःख सांझा कर उनको यादों के बक्से से आज़ाद करना चाहती है.

"नानी चलो न, बक्से को खाली करके सबकुछ मुझे दे दो "नानी को गले लगाकर गुड़िया भी फूट फूट कर रो पड़ी और उसने नानी की पसंदीदा चम्बा बाली झटपट अपने यादों के बक्से में डाल दी |

नानी भी पहली बार इतना रोयी की सारा अपमान, तिरस्कार, मन का भार सब गुड़िया के कंधे पर बह गया. नानी के चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान बिखर गयी और बक्सा खाली कर के नानी अब सब यादों से आज़ाद हो गयीं.

अमिता जोशी

प्रवक्ता रसायन विज्ञान

राजकीय महाविद्यालय पौंटा साहिब

हिमाचल प्रदेश

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