प्रकृति के प्रति मानवी संघर्ष ALOK SHARMA द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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प्रकृति के प्रति मानवी संघर्ष

पृथ्वी पर समस्त जीवों मे मानव प्राणी सबसे ज्ञानी और उत्तम प्रकृति का है तथा मनुष्य मानव सभ्यता के शुरूआत से ही अपने जीवन जीने से संबंधित साधनो को जुटाने  के लिये संघर्ष करता चला आ रहा है। कहीं न कहीं पिछले कई वर्षों में  वह प्रकृति से अप्रत्यक्ष रूप में सामना करता चला आ रहा है  और उसके साधनो का किस प्रकार प्रयोग किया जाये इसके बारे मे निरन्तर प्रयास जारी  रहा है। समस्त जीव जन्तु और मानवी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मात्र प्रकृति ही है जो इसे पूरा करती आ रही है तथा प्रकृति के विभिन्न तत्वों में भूमि,वायु,जल वनस्पति मुख्य रूप से ऐसे तत्व है जिनके आधार पर ही समस्त जीवों का जीवन निर्भर है। इनमे से दो तत्व वायु और जल जो प्रकृति के प्राण है यदि इनका ही अस्तित्व न रहे तो सब खत्म। स्पष्टतः प्रकृति के बिना मानव सभ्यता के विकसित होने का कोई अन्य साधन है ही नही, परन्तु ज्ञात है कि इस पृथ्वी पर उपलब्ध प्राकृतिक साधन सीमित है ,तथा मानव प्राणी इन उपलब्ध साधनो का प्रयोग करना अच्छे से सीख गया है  और इनका प्रयोग दिन प्रतिदिन हो भी रहा है । दूसरे शब्दो मे इस प्रयोग को मानव प्राणी द्वारा प्रकृति का दोहन करना कहते हैं । आज के युग मे प्राकृतिक साधनो का इस प्रकार से दोहन हो रहा है कि इसका रूकना असम्भव है, क्योंकि यह दोहन  बढ़ती जनसंख्या के कारण मानवी आवश्यकता का सबसे बड़ा कारण बन गया है। प्राकृतिक तत्वों के संरक्षण की प्रक्रियायें उतनी नही है जितने अनुपात मे इनका दोहन हो रहा है ,और ये भलीभांति ज्ञात है कि प्राकृतिक तत्वो को किसी प्रकार से निर्मित नही किया जा सकता है, बस जो है उसको संरक्षित ही किया जा सकता है। शायद आज जो स्थिति है वह आगे नही रहेगी क्योंकि पहले जो स्थिति थी आज वह नही है। इसके बारे में हमे हमारे पुर्वजो से अक्सर पता चलता रहता है। 
              प्रकृति मे जो बदलाव आज हुआ है कल कुछ और हो सकता है, और आगे होता रहेगा परन्तु यह किस दिशा मे होगा इसको ठीक प्रकार से बताना कठिन जान पड़ता है , इसके अलावा आज के परिवेश को देखते हुए ये अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाला समय हम प्राणियों के लिए आज की अपेक्षा बदल चुका होगा और यही बदलाव मानव के संघर्ष मे वृद्धि करते हैं। हलाकी हो सकता है कि विज्ञान की सहायता से मानव सभ्यता को बचाये रखने के ढेरों साधन कृत्रिम रूप से बना लिए जाए पर मानव सभ्यता का इन साधनों के अनुरूप जीवन प्राकृतिक साधनों के अनुरूप जीवन में बहुत अंतर होगा। यदि ध्यान दिया जाए तो मानवी संघर्ष इतना प्रबल हो चुका है कि इसका प्रकृति से सीधे सम्पर्क होने लगा है और यदि प्रतिकूल स्थिति रही तो आगे चलकर मानवप्राणी प्रकृति के सामने घुटने टेक सकता है। बाढ़,भूकम्प,चक्रवात,सूखा,भुचाल,आदि इसके मुख्य उदाहरण हैं। जैसे अभी हाल ही मे आया नेपाल मे भूकम्प मानव प्राणी के लिये भयावय था। इससे पहले गुजरात मे आये भुकम्प से हुयी जन सम्पदा की  तबाही बड़ी दुखद थी।  दूसरी तरफ जापान एक ऐसा देश जिसने इस प्राकृतिक आपदा से संघर्ष करते-करते अपने आप को उसके अनुरूप ही ढाल लिया है वहाँ आये दिन भूकम्प के झटके आते रहते है। ऐसे कई भूकम्पित क्षेत्र हैं इस पृथ्वी पर । इसे मानवी भाषा मे प्राकृतिक आपदा की संज्ञा दी गयी है। परन्तु प्रकृति के नज़रिये से यह मात्र एक प्राकृतिक क्रिया है। हो कुछ भी सभी जीव जन्तु और वनस्पतियों के लिये यह एक जटिल घटना है ।
                        इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं में दूसरी मानव की सबसे बड़ी समस्या जल संकट की है जो कई क्षेत्रों मे प्रकृति के असन्तुलित होने से उत्पन्न हो रही है। जल अमूल्य है जल ही जीवन है जल अमृत है आदि ऐसे कई सुनहरे वाक्य मनुष्य के मानष पटल पर  अपनी छाप बनाये हुये हैं। एक समय अन्न न हो तो चल जायेगा परन्तु जल के बगैर तो प्राण ही निकाल जायेंगे। यह सभी जानते है परन्तु इसका अहसास और वास्तविक दर्शन वही लोग करते है जहाँ जल संकट जैसी स्थिति उभरकर सामने आती है।  गत वर्षों में अपने भारत मे 306 जिलों मे जल संकट की समस्या सामने  आयी थी  केवल उत्तर प्रदेश मे ही 58  क्षेत्रों को सूखा प्रभावित घोषित किया गया था और इन क्षेत्रो में ऐसी समस्या से उभरने के लिये प्रयास जारी हैं। महाराष्ट्र के साथ साथ भारत के अन्य प्रदेशों में भी कई ऐसे क्षेत्र हैं जो जलसंकट की समस्या से जूझ रहे हैं और कई ऐसे क्षेत्र जो सूखा प्रभाव की चपेट में इस तरह से आ गये हैं कि यहाँ के लोग पानी की एक बूंद की कीमत अच्छे से जानते है और अपने जीवन को बचाये रखने के लिये प्रभावी रूप से संघर्ष कर रहें हैं । क्या हालत है उन लोगो की इसका दर्द वही जान सकते हैं जो उन क्षेत्रों मे मौजूद है। दिल्ली बम्बई जैसे बड़े शहरो मे पानी की पूर्ति करना बेहद ही कठिन होता जा रहा है । जल संकट से जन-जीवन बहुत प्रभावित हो रहा है और इस समस्या से समस्त जीव प्राणी  निरन्तर लड़ रहैं हैं परन्तु कब तक यह लड़ाई जारी रहेगी , यदि समय रहते इस समस्या का कोई उचित और असरदार उपाय न खोजा गया तो इसमे किसी एक को तो हारना ही पड़ेगा । बात सिर्फ इतनी नही है जल संकट कि स्थिति आने वाले समय में बढ़ सकती है क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा मिल रहा है। बढ़ती जनसंख्या के कारण तीव्र शहरी करण हो रहा है और पेड़ पौधो के स्थान कम होते जा रहे है जिससे तापमान मे निरन्तर वृद्धी हो रही है और भूजल का स्तर घटता जा रहा है, अवैध अन्धाधून्ध वनो के कटने से वायुमण्डल के तापमान मे परिवर्तन होना, मृदा अपरदन होना और शु़द्ध वायु के तीव्रता मे कमी होना बारिश का कम होना या असमय होना आदि समस्यायें उत्पन्न हो रही है यही कारण है अधिक गर्मी अधिक सर्दी और सूखा प्रभाव होने का, और यदि यह क्रिया ऐसी ही चलती रही तो समस्याये तो बढ़ेंगी ही इसके साथ मानव का जीवन अति संकट में पड़ सकता है फिर अर्थिक विकास तो दूर मानव जीवन बचाये रखना जटिल हो जायेगा। जिस प्रकार से आज प्राकृतिक का दोहन हो रहा उस प्रकार से उसके सरंक्षण की नीतिया कम है,क्योंकि जब वनस्पति की मात्रा जनसंख्या से कम होगी और आस पास का वातावरण अशुद्ध होगा तो वायु की प्रवाह मात्रा भी कम होगी और गर्मी बढ़ने  तथा कई तरह के मानवी प्रदूषण के कारण वायूमण्डल मे अक्सीजन की कमी भी हो सकती है जिससे सांस लेना भी कठिन होगा आरै शरीर का तापमान इतना होगा कि उसे अधिक जल की आवश्यकता होगी और जल तो उस समय सीमित होगा । और तो और जो शीतलता उपवनो ओर वनो के द्वारा क्षेत्र विशेष मे होती है पेंड पोधों के न रहने से वह भी नही रहेगी। जल संकट की समस्या के होने से ही आज नदियो की क्या स्थिति है और जो है वो भी दूषित हैं। इसी के चलते भूमि की उर्वरा शक्ति कम होने से कृषि पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। साथ में भुखमरी महामारी और न जाने क्या क्या मानवी समस्यायें कई क्षेत्रों में  उभर का सामने आयीं हैं। मनुष्य के साथ-साथ जंगली जीव जन्तुओं का भी जीवन संकट में होगा बल्कि आज है भी । यदि ऐसा भयावय मंजर सोंच के ही भय से मालूम होता है जब ऐसी स्थिति होगी  उस समय मनुष्य का संघर्ष अपने चरम पर होगा वह अपने जीवन को बचाये रखने मे प्रभावी रूप से प्रयासरत होगा, और सामने मात्र स्वछ जल शीतल शुद्ध वायु और सन्तुलित तापमान की ही अपेक्षा करेगा। यदि जल वायु और वनस्पति का अभाव रहा तो कृषि से अन्न उपजाने में कठिनाईयो का सामना करना पड़ सकता है । समस्त मानव जीवन शैली से सम्बंधित वस्तुओं के उत्पादन में कमी हो सकती है। और भी समस्यओं का सामना करना पड़ सकता है। 
                  परिवर्तन संसार का नियम है। और परिवेश परिस्थिति के अनुसार प्राकृतिक परिवर्तन स्वतः होता ही रहता है  । एक समय था जब मौसम अनुकूल रहता था और ऋतु अपने समय से शुरू होती थी परन्तु आज स्थिति उसके विपरीत है। प्रकृति के पूर्ण रूप से असुन्तिल होने मे देर नही यदि आज इसका तीव्र और गहन उपाय न किया गया । यह तो सभी जानते है कि प्राकृतिक  तत्वों को बनाया नही जा सकता परन्तु उन तत्वो , साधनो को बचाया जा सकता है और उनका उचित प्रयोग किया जा सकता है। कुछ ऐसे उपाय जिससे प्रकृति सन्तुलन मे बनी रहे और मानव जगत के पृथ्वी पर निरन्तर बने रहने के लिये आवश्यक साधनो मे कमी भी न हो की खोज करना अतिआवश्यक है। प्रकृति का सन्तुलन वायु जल भूमि और वनस्पति पर ही निर्भर है और इनमे से किसी एक तत्व के अभाव मे सब नष्ट हो सकता है इसलिये हमे पहले प्रकृति के असन्तुलित होने के वास्तविक कारणों का पता लगाना होगा और प्राकृतिक समस्यायें न हो इस पर विचार करके उनका समाधान निकालना होगा।
        प्रकृति के असन्तुलित होने में वनस्पति का नष्ट होना मुख्य रूप से तथा वायु प्रदूषण ,जल प्रदूषण,मृदा प्रदूषण आदि कारक प्रभावी रूप से जिम्मेदार हैं इनको किसी प्रकार से नियंत्रण मे करना अति आवश्यक है। हर इंसान को पता है कि पेड़ पौधे लगाने से प्राकृतिक असुंतलन को कम किया जा सकता है । पर समस्या ये है कि जब शहरों में घर मकानो का स्थान ही इतना पर्याप्त नही हो पा रहा है तो पेंडो के लिए स्थान कहाँ  से लाये । और तो और जो सड़क के किनारे वृक्ष लगे भी थे उनको भी हटा दिया गया परिवहन अवरोध के चलते । कुल मिलाकर देश मे सरकार द्वारा वनस्पति के स्थान के लिए एक व्यवस्थित प्रावधान लाने की आवश्यकता है जिसमे मानव सभ्यता के विकास के साथ साथ वनस्पति के बारे में भी गहन सोंच विचार की अवधारणा बन सके । 
मेरे हिसाब से कही पर भी यदि 1 वृक्ष,पेड़ काटना आवश्यक हो तो रिक्त स्थान पर 5 पेड़,पौधे लगाना अतिआवश्यक हो जाए इससे बेहतर परिणाम मिलेगा। 
उदाहरण के तौर पे माना कि 1वर्ष मे किसी क्षेत्र विशेष मे 1000 पेड़ काटना पड़ता है तो उसके स्थान पर 5000 पेड़ नये किसी अन्य स्थान पर निरूपित किये जायें और इन पेंडो की सुरक्षा तथा रख रखाव तब तक करनी चाहिए जबतक ये मजबूत न हो जायें भले ही इस कार्य के लिए कोई अलग विभाग ही क्यों न बनाना पड़े जो नियमित भी हों । 
इसी तरह यदि आगे 10 वर्षो तक यही प्रक्रिया जारी रही तो 10 वर्षो में कुल कटे पेड़ 10 हज़ार और नये कुल निरूपित 50 हज़ार पेड़ होंगे जबतक अगले 10 वर्षो में और 10 हजार पेंड़ कटेंगे तबतक हमारे आस पास 50 हज़ार पेंड़ 10 साल बड़े हो चुके होंगे और 50 हज़ार नए पेड़ लग चुके होंगे तथा एक समय ऐसा आयेगा जब कटे पेड़ो  से कई हज़ार गुना पेड़ समुचित स्वैच्छिक नए स्थानों पर होगें  जिससे  चारो तरफ हरियाली ही हरियाली होगी और सबसे अहम बात यह है कि इन पेड़ो से शहरी करण के साथ साथ सौन्दर्यीकरण भी स्वतः हो जायेगा। फिर शुद्ध वायु की भरपूर मात्रा होगी और तापमान मे गिरावट आयेगी और जब वायु का वेग सन्तुलित पर्याप्त मात्रा मे होगा तो सन्तुलित बारिश होगी जिससे भूमि का जलस्तर बढ़ेगा और भूमि उपजाउ और मजबूत होगी इसके साथ साथ देश की आर्थिक स्थिति मे दृढ़ता आयेगी। जन-जीवन खुशहाल और वातावरण शान्त होगा। क्योंकि मात्र वनस्पति ही प्रकृति के सन्तुलन का एकाकी साधन है । और इसका सन्तुलन मे रहना बेहद जरूरी है अन्यथा मानव का प्रकृति के प्रति संघर्ष बढ़ता ही रहेगा।