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बहूधन



सेठ खेलावनदास अपने गाँव में बहुत जाने-माने पहुँचे हुये व्यक्ति थे धन-दौलत किसी भी प्रकार की कोई कमी न थी। उनके एकलौता ही पुत्र था। दुनिया समाज को देखते हुये उन्हे ये डर था कि पुत्र का विवाह करने पर यदि बहू ठीक न मिली तो बुढ़ापा नर्क समान हो जायेगा इसलिये वो अपने पुत्र का विवाह एक ऐसी कन्या से कराना चाहते थे जो उनके घर को स्वर्ग बना दे।

सेठ खेलावन दास अपने बड़े से बंगले में चिंताजनक स्थिति में बैठे थे कि उसी समय उनका खानदानी पंडित आ पहुँचा । सेठ जी को ऐसी स्थिति में पाकर पंडित ने सेठ की चिंता का कारण पूछा -‘‘सेठ जी क्या बात है आजकल,जब भी मैं आपसे मिलता हूँ मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आप किसी गम्भीर समस्या से परेशान हैं परन्तु यदि उचित समझे तो उस समस्या को हमारे समक्ष प्रस्तुत करें शायद मैं आपकी सहायता करने में सक्षम हो पाऊँ।‘‘
क्या कहें पंडित जी, कुछ समझ में नही आ रहा हैं अपने पुत्र के विवाह के लिये कहाँ कहाँ नही गये परन्तु कोई ढंग का रिस्ता मिला ही है, मन का बोझ दिन पर दिन भारी ही हो रहा है।‘‘
सेठ जी अपनी बात को आगे बढा़ते कि पंडित जी ने झट से बोला -बस इतनी सी बात को लेकर आप चिंतित हैं अरे आप चिंता का स्वयं कारण बने हैं।‘‘पर मैं कैसे हो सकता हूँ ?‘‘ सेठ जी ने भावना में आकर कहा। सेठ जी के मुख पर प्रश्न चिन्ह भाव देख कर पंडित जी बोले कि आप अपने पुत्र का विवाह करने के लिये अपनी बराबरी का ही क्यों खोज रहें यदि कन्या सर्वगुण सम्पन्न हैं पर उसके परिवार वाले आपसे धन-दौलत में छोटे हैं तो विवाह कर लीजिये क्या हर्ज है कमसे कम आपकी और सेठानी जी की सेवा सतकार तो अच्छे से होगी । और उस कन्या का भाग्य एक बड़े घराने में आकर चमक जायेगा जिससे आपका सम्मान भी होगा।
सेंठ जी थोड़ी देर तो सोंच में पड़ गये लेकिन अंतताह बोले पंडित जी से,मेंरी कितनी बड़ी बेज्जती होगी समाज में कि इतने बड़े धनवान सेठ खेलावन दास को कोई नही मिला तो ग़रीब परिवार से अपने पुत्र का विवाह किया और बात ये भी है कि ग़रीब परिवार की कन्या से विवाह कर भी लिया जाये तो सारी रिस्तेदारी में मेंरी तो नाक कट जायेगी न ढ़ग का भोजन मिलेगा न अच्छे से हमारे बरातियें को स्वागत ही होगा और उसके साथ-साथ दहेज तो मिलना ही नही हैं। "नही नही पंडित जी, हम तो अपने पुत्र का विवाह करेंगें तो किसी बड़े खानदान से ही ताकि हमारे पुत्र के विवाह की दूर-दूर तक एक मिशाल कायम हो जाये। वैसे भी आप घर-घर पूजा कराने जाते हैं आप ही कोई रिस्ता बताईये।"
‘‘मैं क्या बाताऊँ,सेठ जी आप ने तो कसम ही खा रखी है कि करेंगें तो धनवान से अन्यथा नही। वैसे मेंरी मानें तो आपके पड़ोस के गाँव में एक सुन्दर सुषील पढ़ी लिखी कन्या है और मैं उस कन्या को देख भी चुका हूँ आपके पुत्र के लिये इससे अच्छी कन्या मेंरी नज़र में नही आ रही बस बात वही है ग़रीब होने की माँ बड़े कोठियों में चौका बासन करती है और बाप बेचारा अपनी छोटी सी किराना की दुकान पर बैठता है उस कन्या से दो छोटे भाई बहन भी हैं पूरा परिवार एक झोपड़ी में रहता है जो इतनी कमजोर है कि बारिस में टपकती है गर्मी में जलती है और शीत में ठिठूरती है। झोपड़ी के चारो तरफ बैठने उठने की पर्याप्त जगह है लेकिन परिवार का सिर्फ भोजन ही हो जाये इतनी आमदनी हो पाती है जब दोनों प्राणी मेहनत से कमाते हैं तब जाके अपना और अपने बच्चों का पेट भरतें हैं । अपनी पुत्री का विवाह वो भी करना चाहते हैं ताकि उनके सिर से एक बोझ हल्का हो सके। पूरे गाँव में उस परिवार की ईमानदारी का ढोल बजता है न किसी से उधार लिया आज तक और नही किसी से बेईमानी की और यहाँ तक यदि कोई भिक्षुक उनके द्वार पर आ भी जाये तो अपने हिस्से का भोजन उठाकर दे देते है।‘‘ पंडित जी अपनी बातों में मग्न थे लेकिन सेठ जी का तो हाल देखने लायक हो गया था आँसूओ नें सेठ जी की आँखों को भिगो कर रख दिया हृदय में एक तीव्र और उस परिवार के प्रति दया रहित भावना उत्पन्न हो रही थी सेठ जी का मन इतना कोमल हो गया मानो अभी जाकर उस परिवार का दुःख हर लेंगे और उसकी कन्या से अपने बेटे का विवाह कर लेंगे। आँसूओं को अपने रूमाल से पोंछते हुये बोले ‘‘बस करो महराज, अब और नही सुना जाता है ये बाताओ कन्या देखने में कैसी प्रतीत होती है।‘‘
‘‘कन्या बहुत ही सुन्दर सुशील है और मुख पर ऐसा तेज मानो स्वर्ग से देवी ने इस धरती पर जन्म लिया हो भले ग़रीब है तो क्या।‘‘ पंडित ने एक उत्साह भरे भाव से कहा।
सेठ जी को एकान्त में छोड़ कर पंडित जी अपने कार्य से चले जाते हैं। पंडित जी के द्वारा कही हुयी बातें सेठ जी के मस्तिष्क में तीव्र वेग से चल रही थी मन में उस कन्या और परिवार के प्रति दया आ रही थी तभी सेठानी जी एक गरम चाय की प्याली हाथ में लेकर आयी और सेठ जी से बोली ‘‘अजी क्या बात है कोई रिस्ता मिला या फिर नहीं।‘‘ सेठ जी एक लम्बी सांस लेते हुये कहा ‘‘मिलेगा क्यों नही।‘‘ चाय का प्याल हाथ में देते हुये सेठानी जी ने अपनी इच्छा जाहिर करते हुये कहा कि मुझे भले ही दहेज न मिले लेकिन मेरी बहु में कोई कमी नही होनी चाहिये। कहकर सेठानी अपने रसोई के तरफ चली जाती हैं ।
सेठ जी अपना मन हल्का करने के लिये कुछ देर घर से बाहर अपने बगीचे में टहलने चले गये कुछ देर तक टहलने के बाद एकांत में बैठे और सोंचने लगे अपने आगे के जीवन के बारे में।
सेठ जी अक्सर जब भी कभी अपने रिस्तेदारों या मित्रों के साथ होते थें तो यही कहते कि जब भी कभी अपने पुत्र का विवाह करेगें तो बड़े घराने से ही होगा जिसके पास किसी भी प्रकार की कोई कमी नही होगी
हालाकि सेठ जी किसी भी प्रकार से धन-दौलत सौहरत नाम में कम नही थें और न ही घमण्ड था इस बात का लेकिन एक सोंच थी कि जिस घर से अपने पुत्र का विवाह करें वो धनवान हों ताकि जो भी रिस्तेदार देखे एक बार नाम जरूर ले। यदि किसी ग़रीब से रिस्ता जोड़ते हैं तो बदनामी होगी ।
रात्री का समय था सेठ जी अपने शयन कक्ष में मखमली विस्तर पर लेटे थे नींद मानो कोसो दूर चली गयी हो रिस्ता खोजते खोजते थक से गये थे सेठ जी लेकिन आज जो बात पंडित जी न कही उस बात को लेकर नींद का आना तो असम्भव था। यदि व्यक्ति को धन और प्रेम में से कोई एक चीज चुननी हो तो जिनके पास वास्तव में प्रेम का अभाव होगा वो प्रेम को स्वीकार करेंगा लेकिन इसके विपरीत धनलोभी धन को ही चुनेगा। सेठ जी को तो धनवान के साथ-साथ ऐसी वधु की तलाश थी जो परिवार में सदैव प्रेमपूर्वक परिवार के साथ रह सके ताकि बुढापे पर कोई दिक्कत न आये क्योंकि एकलौती औलाद का ही सहारा था धन तो सिर्फ जीवन यापन के लिये साधन मात्र होता है न कि उसके हाथ पैर होते हैं जो समय आने पर सेवा करेगा। हर एक व्यक्ति को वृद्धा अवस्था में अपने ही पुत्रो का सहारा होता है। यदि घर में व्याही गयी कन्या विवेकपूर्ण और समझदार हो तो घर स्वर्ग हो जाता है यदि कपटी और स्वार्थी है तो वही घर नर्क समान हो जाता है। क्योंकि अगले दिन सेठ जी यात्रा के लिय अपने घर से निकले और उन्होनें अपने मन में नये जोश और दृढ़ विश्वास के साथ निश्चय किया कहीं न कहीं कोई अच्छा सा रिस्ता मिल ही जायेगा।
लगभग आधे दिन चलने के बाद सेठ जी बहुत ही थक चुके थे गर्मी अधिक होने के कारण प्यास के मारे बुरा हाल हो रहा था रास्ते में एक पीपल का पेड़ था सोंचा थोड़ा सा विश्राम कर लें और कुछ पेट पूजा कर लिया जाये लेकिन जल का प्रबन्ध कहाँ से हो जो कुछ जल पास में था वो रास्तें में ही खत्म हो चुका था। पीपल के पेड़ के नीचे हवाआें के मस्त झोंको ने सेठ जी को अपने आगोश में इस क़दर लिया कि मानो वहाँ की धरती उस मखमली विस्तर के समान हो गयी थी जिस पर सेठ जी अपने घर अराम करते थें। थका शरीर था वायू ठण्डी थी और सेठ जी पिछले कई दिनों से ठीक प्रकार से सो भी नही पायें थें नींद का पलड़ा प्यास से भारी था पीपल की छांव ने सेठ जी की आँखों को धीरे से बंद कर दिया और सेठ जी जमीन पर पेड़ के तने का सहारा लेते होए दुनिया की चिंताओं को छोड़ते हुये गहरी नींद में चले गये ।
लगभग शाम होने को आ रही थी लेकिन सेठ जी तो घोड़े तबेले बेच कर वेशुध अवस्था में उस पेड़ के नीचे ऐसे सो रहे थे मानो कोई शिशु अपनी माँ की गोद में चिंताओं से मुक्त सो रहा हो।
रास्ते से गुजरती एक कन्या जिसका नाम था सुनीता एक ग़रीब परिवार से थी लेकिन विवेकपूर्ण और अति सुन्दर थी उसे अपने ग़रीब होने का जरा सा भी दुःख नही था मुख पर प्रश्न्नता का भाव था। उसने सेठ जी को जिस अवस्था में देखा उसे थोड़ी हैरानी हुयी सेठ जी का झोला अलग पानी का पात्र अलग और थोड़ा बहुत समान जो झोले में था विखरा पड़ा था। शायद कोई पथिक हैं इनकी मदद करनी चाहिये सुनीता ये सोंच कर पास गयी सेठ जी को नींद की दुनिया से बाहरी दुनिया में लाने का प्रयास किया सेठ जी नींद से तो उठे परन्तु आधे उठे उठते ही आत्मा में जो प्यास दोपहर सो रही थी वो आँखों के खुलते ही इतनी तीव्र हो उठी कि पानी पानी का शब्द मुख से निकलने लगा। सुनीता झट से गयी और पास के घर से सेठ जी के लिये पानी लायी। सेठ जी ने जल को एक बार में ग्रहण किया और अपने सोये हुये चेहरे को जल से धुल कर जगाया पूर्ण रूप से होश में आने पर जो चेहरा सामने था उसको देखते ही रह गये शाम हो रही थी सूर्य अपना प्रकाश मध्यम कर रहा था फिर भी सुनीता के मुख का तेजस्व स्पष्ट दिख रहा था सेठ जी बोलते इससे पहले सुनिता ने कहा ’‘चाचा जी कहाँ जाना है और कहाँ से आए हैं आप क्या मैं आपकी कोई सहायता कर सकती हूँ‘‘ सेठ जी तो उसकी मधुर आवाज़ में इस तरहा तल्लीन थे कि क्या पूछा जा रहा सब अनसूना जा रहा था । उत्तर न मिलने पर सुनिता ने प्रेम पूर्वक फिर से दोहराया अचानक सेठ जी ने कहा बेटी ‘‘मैं अधिक थक गया था सोंचा कि थोड़ा सा विश्राम करलू और समय का पता नही चला मैं गहरी नींद में सो गया करीब दो कोश मेंरा गाँव हैं वहाँ जाना। ‘‘पर चाचा जी आपके जाना अभी दूर है आधे रास्तें में ही रात हो जायेगी यदि आपको हर्ज न हो आज रात हमारे घर पर रूक जाईये।‘‘ सुनिता का विवेकपूर्ण व्यवहार देख कर सेठ जी गदगद हो उठे मन में जो तलाश थी एक बहू की शायद वो पूरी होने को थी सेठ जी को सुनिता बहुत ही पसन्द आयी सुनिता को अब सेठ जी मन में अपनी बहू मान चुके थें इसलिये उन्होनें उसके साथ घर जाने का निर्णय किया ।
सुनिता सेठ जी को अपने घर ले गयी सूरज की किरणों का आगमन पूर्ण रूप से खत्म और रात का तकाज़ा हो चुका था। जाते ही घर पर झट से एक चारपाई सुनिता ने लाई और सेठ जी से बैठने का आग्रह किया सेठ जी बैठ गये । अपनी झोपड़ी से निकलते हुये सूनिता कि माँ ने पूछा कौन आए हैं बेटी । सुनीता ने अपनी माँ को सेठ जी के बारे बताया। अच्छा ठीक है जा उनको पानी पिला और छोटे से कह दे अपने बापू को बुला लाए।सुनिता का भाई अपने बापू नारयण दास को बुला लाया।
आते ही नारयण दास द्वारे पर बैठे सेठ जी से प्रणाम किया और चारपाई के पास नीचे बैठ गये एक दूसरे का परिचय हुआ।नारणदास सेठ जी का नाम सुनते ही भावभिवोर हो उठे अपने आप को धन्य बाताया कि इतने बड़े व्यक्ति के चरण आज हमाने घर पर पड़े हैं शायद किस्मत हमारा दरवाजा खटखटा रही है। सेठ जी ने कहा नारयण जी से ‘‘कि क्या वो अपनी कन्या का विवाह कहीं देखा हैं ’’इस पर नारयण जी ने कहा ‘‘देखा तो एक दो जगह लेकिन हमारे पास इतना धन नही जो ठीक प्रकार से अपनी पुत्री का विवाह कर सकें जहाँ भी जाओ मांग इतनी ज्यादा है कि दिल दहल जाता है सब कुछ यदि बेंंच भी दू तब भी शायद पूरा न हो पाये।‘‘ इन सब बातों के साथ भोजन बना जो भी रूखा-सूखा था घर में सेठ जी ने खाया और रात गुजारने के लिये वहीं पर रूक गयें ।
रात तो जैसे-तैसे कट गयी।सूर्य की पहली किरण के साथ ही सेठ जी उठ गये और अपने मूख पर ठण्डे जल की बूंदो का स्पर्ष कराया।रात में तो ठीक प्रकार से दिखाई न दिया लेकिन दिन के उजालें में झोपड़ी ठीक प्रकार से दिख रही थी चारों तरफ का नज़ारा देख कर सेठ जी के मन में यही सवाल उठ रहा था कि कही ये वो ही जगह और वो ही कन्या तो नहीं है जिसकी हमारे पंडित जी बात कर रहें थें। सेठ जी ने चलते वक्त नारयण दास को कुछ मुद्रा देने का प्रयास किया परन्तु नारयण जी ने प्रेम पूर्वक उसे अस्वीकार कर दिया।
सेठ जी अपने घर आते ही सेठानी जी से प्रश्न्न भाव में कहा अरे हमारी खोज पूरी हो गयी जैसी बहू तुम चाहती हो वैसी ही मिली है। ‘‘क्या सच में‘‘ "हाँ सच में। आज ही मैं अपने पुत्र को पत्र लिखता हूँ और यहाँ आने को कहता हूँ।" सेठ जी अपने एक नौकर से पंडित जी को बुलावातें हैं।
पंडित जी आतें ही सेठ जी से बुलवाने का प्रायोजन पूछतें है। ‘‘प्रयोजन ये है कि जिस कन्या की बात कर रहें थे क्या आप उसके पिता का नाम जानते है‘‘।‘‘हाँ जानता हूँ‘‘ पंडित जी ने कहा उनका नाम नारायणदास हैं सेठ जी को अब यकीन हो गया था लेकिन सेठ जी नारायणदास के घर पर रात में ठहरने वाली बात को पंडित जी से गुप्त ही रखा। ‘‘परन्तु आप क्यों पूछ रहें सेठ जी‘‘। ‘‘मैं उस कन्या को देखना चाहता हूँ । यदि पसन्द आगयी तो अपने पूत्र का विवाह उसी से सम्पन्न करूगा।‘‘ पर आप तो धनवान के घर का रिस्ता चाहते थे फिर ऐसा क्या.. "
सेठ जी ने पंडित जी से सुनिता से अपने पुत्र का विवाह कराने के लिये नाराणदास के घर जाने को कहा ।
‘‘पर सेठ जी आपकी रिस्तेदारी का क्या होगा उसके पास तो खुद का खाने को तो है नही फिर आपके बरातियों को क्या खिलायेगा।‘‘ सेठ जी निर्भय होकर बोले यदि नारायण दास ने हाँ कर ली तो चाहे जितना धन खर्च हो हम उसकी तरफ से करेंगे आखिर हमारा धन किस काम आयेगा।सेठ जी को तो सुनिता पसन्द ही थी ।
पंडित जी नारायण दास के घर जाकर सारी कथा का सार बाताया नारायण दास का तो खुशी का ठिकाना न रहा। वो झट से सेठ जी से मिलने के लिये उनके घर गये । घर पहूँचतें ही नारायण दास सेठ जी के चरणों में अपना सिर रख कर फूट फूट कर रोने लगें आँसूओं से सेठ जी के चरण भीग गये इतनी खुशी थी की नारयण दास के आँसूओं का वेग बढ़ता ही जा रहा रहा था । सेठ जी नारयण दास को अपने गले से लगाते है और अपने हाथों से नारयण दास के आँसूओं को पोछतें हैं और कहतें ’आज से तुम्हारा हर दुःख हमारा दुःख है । अपनी बेटी के लिये जो सपना संजोये थें आज पूरा होने को था इस खुशी में आँसूओ का आना स्वाभाविक है। नारयण दास ने विवाह होने के लिये प्रस्ताव स्वीकार किया लेकिन सेठ जी ने एक शर्त रखी नारायण दास के समक्ष कि विवाह तभी हो सकता है जब वह अपनी झोपड़ी की जगह एक बड़े से घर के निर्माण करवाएगें। यह बात सुनकर नारायण दास सन्न रह गये मानो उनके पैरो तले जमीन खिसक गयी हो सेठ जी ने ऐसी बात कह दी कि नारयण दास का चेहरा उतर गया। लेकिन सेठ जी का आशय कुछ और ही था कहा ‘‘घबराईये मत मेंरे कहने का मतलब ये है कि मैं चाहता हूँ विवाह से पहले आपका एक सुन्दर सा घर बन जाये जिसका पूरा खर्चा मैं उठाऊंगा और आप इनकार भी न करना ताकि जब बरात आपके द्वार पर आये तो मेंरी इज्जत बच जाये क्योंकि मै नही चाहता कि हमारे रिस्तेदार बाद में हसी उड़ायें।‘‘ नारयण दास तो सेठ जी की इस भावना को जान कर बहुत ही खुश हुये जो कभी किसी का एहसान नही लेता था आज वो अपने ही समधी के एहसानो के तले दब गया था। सिर्फ अपनी बेटी सुनिता के लिये।
सेठ जी ने अपने नौकरो चाकरों को काम पे लगा दिया और नारायण दास का घर बनवाया फिर उसके बाद विवाह की तैयारी में जुट गयें।विवाह सम्बन्धित वो सारे रिवाज जो हिन्दू सम्प्रदाय में होते सेठ जी सब अपने खर्चे पर करवाए सेठ जी को दहेज में जो कुछ भी चाहिये था वो सब कुछ खरीद कर विवाह से पहले नारायण दास के घर पर भिजवा दिया इसके साथ-साथ विवाह के 2 दिन पहले ही भोजन से सम्बन्धित वो सारी सामग्री जो विवाह में प्रयोग होती है रात रात गाडि़यों से भर कर भिजवा दी ताकि किसी को पता भी न चले । सेठ जी एक तरफ अपनी व्यवस्था में लगे थे और दूसरी तरफ अपने समधी की भी व्यवस्था अच्छे से कर रहें थें हर प्रकार का भोजन अच्छे हलवाई पहरे दार शादी का मण्डप आदि मंहेगे से भी महंगे समान की व्यवस्था किया। ताकि जब बरात नारयण दास के घर पहुँचे तो सेठ जी के मेहमानो को कोई तकलीफ न हो। और तो क्या कहें सेठ जी ने नारयणदास से कहा कि पूरे गाँव को न्योता बाँट दो कोई बाकी न रहें। नारायण दास का खुशी का ठिकाना न था पूरे गाँव के लोग हैरान थे कि अभी तो खाने को नही था पर ऐसा क्या हुआ जो इतना बड़ा घर इतनी शीध्र बनवा लिया और अब अपनी बेटी की शादी भी धूम धाम से कर रहा है । गाँव वासियों को ये बातें पच नही रही थी लेकिन फिर भी किसी को क्या पड़ी जो नारायण जी से पूछे जाके यदि पूछेगा भी तो क्या जब नही था तो कोई नही पूछा आज है तो क्या पूछेगें । सूनिता और सेठ जी के पुत्र का विवाह भव्य तरीके से सम्पन्न हुआ । और दूर-दूर तक इनकी शादि की एक मिशाल कायम हो गयी। और ये बात किसी को पता भी नही चली कि सेठ जी ने ग़रीब परिवार से रिस्ता जोड़ा।
सेठ जी जैसे कई एैसे लोग आज भी हैं जो दूसरों की मदद करतें हैं लेकिन किसी को पता भी नही चलता वो मदद भले अपने स्वार्थ के लिये हो लेकिन हो ऐसी जिससे अपने स्वार्थ के साथ-साथ किसी का जीवन बदल जाये ऐसी सहायता का विवरण सिर्फ ईश्वर के पास ही लिखा जाता है। सहायता वही होती है जो गुप्त रखी जाये। सेठ जी भले ही एक सर्वगुण सम्पन्न बधु चाहते थे ये इनका स्वार्थ था लेकिन इसके चलते नारयण दास और उनका परिवा ग़रीबी के दलदल से जरूर बाहर निकला ये सब हुआ सेठ खेलावन दास की सहायता से ।

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बहूधन - कहानी और नाटक
आलोक कुमार शर्मा


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