दे दे प्यार दे - फिल्म रिव्यू Mayur Patel द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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दे दे प्यार दे - फिल्म रिव्यू

कुछ फिल्में एसी होतीं हैं जिनको ‘ग्रेट’, ‘क्लासिक’ जैसे विशेषणो से नवाजा जा सकता है. जैसे की ‘दंगल’. और कुछ फिल्में एसी होती है जिनको ‘सुपरफ्लोप’, ‘हथोडा’ कहा जा सकता है. जैसे की ‘कलंक’. और फिर कुछ फिल्में एसी होती है जो ईन दो प्रकार की फिल्मों के बीच रखी जा सके. एसी फिल्में चुपके से रिलिज होतीं हैं, उनमें ज्यादा तामझाम, ज्यादा दिखावा नहीं होता, लेकिन फाइनल रिजल्ट इतना अच्छा होता है की एसी फिल्में दिल में बस जाती है. जैसे की ‘लुकाछुपी’. ‘दे दे प्यार दे’ एसी ही एक दिल में बस जानेवाली प्यारी सी, स्वीट सी फिल्म है.
कहानी इतनी मोटी-तगडी नहीं है. लंडन में रहेनेवाले सफल विजनेसमेन, पचास साल के आशिष महेरा (अजय देवगन) छब्बीस साल की जवान लडकी आयेशा खुराना (रकुल प्रीत सिंघ) से मिलते है और थोडी मीठी नोंक-झोंक के बाद दोनों में प्यार हो जाता है. उम्र के बडे फासले के बावजूद दोनों शादी के बंधन में बंधना चाहते है. लेकिन उससे पहेले आशिष अपनी जवान गर्लफ्रेन्ड को अपनी फेमिली से मिलाने के लिए इन्डिया ले जाते है. फिर होता है धमाल… और कमाल… 
 
सीधी सादी स्क्रिप्ट में कोई बडे, रोमांचक और रहस्यमय मोड नहीं आते है, लेकिन यहां पर परिस्थितियां एसी उलझती है की मजा आ जाता है. छोटी छोटी घटनाओं से बने सीन्स में राइटिंग इतनी जबरजस्त है की पूरी फिल्म में कहीं नहीं लगता की कहानी कमजोर है. पहेले सीन से लेकर आखरी सीन तक ‘स्मार्ट’ राइटिंग की गई है और यही इस फिल्म का सबसे बडा प्लस पोईंट है. डायलोग्स कम्माल के है. पंच के बाद पंच आते रहेते है और दर्शकों को हंसाते रहेते है. ज्यादातर हिन्दी फिल्मों में चीप लेवल की कोमेडी ही परोसी जाती है, विदेशी फिल्मों में जिस दरज्जे का ह्युमर देखने को मिलता है वैसा ‘इन्टेलिजन्ट ह्युमर’ हिन्दी फिल्मों में बहोत कम देखने को मिलता है. ‘दे दे प्यार दे’ में एसा ‘हाइ लेवल ह्युमर’ पेश किया गया है, जो दिल जीत लेता है. दो-तीन जगह एडल्ट लाइन्स है, लेकिन वो भी फेमिली ओडियन्स के दिलो-दिमाग को बिलकुल भी नहीं खटकता. एडल्ट ह्युमर में भी कहीं कोई सीमा क्रोस नहीं की गई है. जिंदगी की सिरियस फिलोसोफी भी बडे ही स्वाभाविक ढंग से कहानी में बुनी गई है.
 
क्यों हमारा समाज डिवोर्स को इतनी सिरियसली ले लेता है? क्यों दो प्यार करनेबालों के बीच की उम्र के फासले को इतना बडा मुद्दा बनाया जाता है? इन दो प्रश्नों को भी बडे ही संवेदनशील ढंग से फिल्म में दर्शाया गया है. ‘प्यार का पंचनामा’ और ‘सोनु के टिटु की स्वीटी’ जैसी सफल रोमेन्टिक-कोमेडी फिल्में लिखने और डिरेक्ट करनेवाले ‘लव रंजन’ ने तरुण जैन और सुरभी भटनागर के साथ मिलकर इतनी उमदा स्क्रिप्ट लीखी है की ‘दे दे प्यार दे’ स्किप्ट लेवल पर ही बाजी मार लेती है और कलाकारों का काम आसान कर देती है. जिनती बढिया लिखावट उतना ही मजेदार है फिल्म का डिरेक्शन और एडिटिंग. दोनों पतवार ‘अविक अली’ के हाथ में है और वो एक मौका नहीं देते की दर्शक कोई फरियाद करे. फिल्म कहीं ढीली नहीं पडती, बोर होने का तो सवाल ही पेदा नहीं होता. न तो उन्होंने कोई फिल्मी गिमिक्स किए है, न ही किसी अदाकार से ओवर-एक्टिंग करवाई है. यहां सब कुछ बहोत ही नपा-तुला, बेलेन्स्ड रखा गया है. जहां जितना नमक-मिर्ची चाहिए उतना ही डाला गया है, न कम न ज्यादा. यकीन नहीं होता की अविक ने पहेली बार डिरेक्शन की बागडोर संभाली है. इतना बढिया काम!! भई वाह!!!
 
जब राइटिंग इतनी शार्प हो तो कलाकारों का काम और भी नीखरके रंग लाता है. यही हुआ है ‘दे दे प्यार दे’ में. तकरीबन सभी कलाकारों ने एक नंबर परफोर्मन्स दी है. लम्बे समय के बाद अजय देवगन ‘सिंघम’ जैसे एक्शन और ‘गोलमाल’ जैसी बेतूकी कोमेडी से कुछ अलग करते नजर आए. उनका काम बहेतरीन है. पचास साल की ढलती उम्र में अपने से आधी उम्र की लडकी के प्यार में पडनेवाले अधेड की भूमिका में वो एकदम कन्विन्सिंग लगते है. अजय सर, प्लीज ऐसी रोमेन्टिक कोमेडी फिल्में ज्यादा करें. तबु के क्या कहेने? ये अभिनेत्री चाह कर भी खराब एक्टिंग नहीं कर सकती. आधी फिल्म के बाद उनकी एन्ट्री होती है और फिर वो फिल्म में छा जातीं हैं. अपनी उम्र की अन्य अभिनेत्रीओं के लिए उन्होंने भूमिकाओं के चयन का जो उदाहरण सेट किया है, उसे मानना पडेगा. उनके दो सीन एसे है जो सीधे दिल में उतर जाते है. अजय के सामने उनका ब्रेकडाउन और अजय के बचाव में उनकी स्पीच… क्या ब्बात..! इन दो मंजेहुए अदाकारों के बीच में बेचारी रकुल जैसी नई हिरोइन का तो क्या हाल हुआ होगा? अगर आप एसा सोच रहे है तो आप बिलकुल गलत है. रकुल प्रीत सिंघ ईस फिल्म की ‘जान’ है. उनकी खूबसूरती, उनकी सेक्स अपील, उनकी स्माइल, उनकी बोडी-लेंग्वेज और उनकी दमदार एक्टिंग… सब कुछ पर्दे पर बहोत ही सटिक ढंग से पेश किया गया है. बोलिवुड की हिरोइन चुलबुली हो, नखरेबाज हो तो मजा आ जाता है. यहां रकुल ने अपने किरदार का चुलबुलापन बेहद परफेक्शन के साथ दिखाया है. युवा पीढी को रिप्रेजन्ट करते हुए उन्होंने कुछ छीछोरी हरकतें भी की है, जो उन पर बहोत जचती है. वो इतनी परफेक्ट है इस रोल में की किसी और अभिनेत्री की कल्पना भी नहीं की जा सकती. रकुल जब भी स्क्रिन पर आती है, छा जाती है. भई, तमिल-तेलुगु फिल्मों की इस अभिनेत्री को और ज्यादा हिन्दी फिल्में मिलनी चाहीए. लडकी में वाकई में बहोत दम है. ईन तीन मुख्य कलाकारों के बीच की केमेस्ट्री, नोंक-जोंक देखने में मजा आता है.
 
तबु और रकुल के बीच की तानेबाजी भी खूब रंग जमाती है. उन दोनों के बीच पीसते रहेते अजय देवगन को देखने में भी मजा आता है. नई-पुरानी कार के बीच की कम्पेरिजन वाला जो सीन है, मेरे हिसाब से, वो ईस फिल्म का बेस्ट सीन है.
जावेद जाफरी और जिम्मी शेरगिल छोटे रोल्स में नजर आएं लेकिन फिर भी वो दोनों अच्छे लगे. बाकी के एक्टर्स भी अपनी अपनी भूमिकाओं में फिट लगे. फिल्म की एक ही कमजोर कडी है और वो है इसका म्युजिक. एक भी गाना याद रखनेलायक, गुनगुनानेलायक नहीं बना. इस रोम-कोम में अगर एक-दो गाने भी अच्छे होते तो मजा डबल हो जाता. गानों में भले ही कुछ खास न हो, पर फिल्म का बेकग्राउन्ड म्युजिक फिल्म के मूड के हिसाब से बिलकुल सही है. फन्नी डायलोग्स, कलाकारों की परफेक्ट टाइमिंग और उस पर बेकग्राउन्ड स्कोर का तडका… मनोरंजन की बहार तो आनी ही थी. ट्रेलर तो कुछ भी नहीं था दोस्त, फिल्म में उम्मीद से चौगुना मनोरंजन भरा पडा है.  
 
कुल मिलाकर ‘दे दे प्यार दे’ एक बहोत ही इन्टरटेनिंग फिल्म है जिसे पूरी फेमिली के साथ बैठकर देखा जा सकता है. इस प्यारी सी, स्वीट सी, दिल-जीत रोमेन्टिक-कोमेडी को मेरी ओर से 5 में से पूरे 4 स्टार्स. देखिएगा जरूर. वेकेशन का मजा दुगना हो जाएगा.