छूटी गलियाँ - 18 Kavita Verma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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छूटी गलियाँ - 18

  • छूटी गलियाँ
  • कविता वर्मा
  • (18)

    नेहा

    कितना मुश्किल भरा था आज का दिन। आज का दिन ही क्या पिछले कुछ दिन अजीब सी उहापोह में गुजर रहे हैं। हर दिन क्या करें, कैसे करें, क्या होगा की बैचेनी। परिस्थितियाँ तो अभी भी जस की तस हैं लेकिन फिर भी आज सुकून सा है मानों कुछ हासिल कर लिया हो मैंने। अब हासिल किया या गँवाया ये तो वक्त ही बताएगा।

    राहुल को खुश देखने के लिये शुरू किया गया एक झूठ आज झूठों का पुलिंदा बन गया है। पहले वह बैचेन था अब तो वह बैचेन और परेशान दोनों है। पहले सिर्फ एक दुःख था पापा से दूर रहने का उनसे संपर्क ना होने का लेकिन अब तो चिंता है कि वह इस सच का सामना कैसे करेगा कि उसके पापा ने हम लोगों को हमेशा के लिये छोड़ दिया है, और इस झूठ का सामना कैसे करेगा कि जिसे वह पापा समझ कर बात कर रहा है वह कोई अनजान व्यक्ति है। जिससे वह इतनी नज़दीकियाँ महसूस कर रहा है उससे उसका कोई संबंध ही नहीं है। कैसे सहेगा वह इतनी बड़ी बात। वह यह भी तो पूछेगा मैं उस व्यक्ति को कैसे जानती हूँ? क्या कहूँगी उससे? क्या वह सामान्य तरीके से ले पायेगा? कहीं वह मुझे ही तो गलत नहीं समझने लगेगा?

    ये बातें उसके और मेरे बीच होती तो भी शायद बात संभल जाती लेकिन दोनों भाई आने वाले हैं वो लोग क्या सोचेंगे मेरे बारे में?

    मैंने गलती की उनसे विजय की बात छुपा कर, लेकिन बताती भी तो क्या? चाहे मेरी कोई गलती ना हो लेकिन फिर भी छोड़ दी गई, परित्यक्ता जैसी बातें तो होती हीं। क्या भाभियाँ समझ पातीं? एक से दूसरे तक होते ये बात सभी रिश्तेदारों तक पहुँचती। राहुल को बहुत पहले पता चल जाता। तब ये झूठ ही नहीं बोलना पड़ता कि पापा फोन करते हैं लेकिन तब, थोड़े समय की ही सही ये ख़ुशी भी उसे हासिल नहीं हो पाती, वह कभी जान ही नहीं पाता पिता का प्यार क्या होता है।

    ओह्ह सब कुछ कितना उलझा हुआ है क्या ये कभी फिर सीधा सरल हो पायेगा या इन्हीं उलझे प्रश्नों को सुलझाने में मेरी जिंदगी उलझ कर रह जाएगी। राहुल आजकल बहुत खोया खोया रहता है उसका चुलबुलापन उसकी मानसिक बैचेनी में दब गया है। आजकल तो वह टीवी के सामने बैठा रहता है लेकिन उसका मन कहीं और होता है किसी गहरे सोच में गुम । कई बार अपने कमरे में अकेले बैठे छत ताकता रहता है। उसके मन में बहुत कुछ घुमड़ रहा है, बहुत सारे प्रश्न जिज्ञासाएँ आशंकाएँ लेकिन मेरे पास इनका समाधान नहीं है। हाँ कुछ प्रश्नों के जवाब हैं लेकिन वे उसे दुखी ही करेंगे इसलिए उन प्रश्नों को उसके बाहर आने देने से डरती हूँ मैं।

    आज कितनी मुश्किल से उसे पार्क ले जा पाई थी ताकि वह मिस्टर सहाय से मिल ले ये उन्ही का प्लान था। राहुल की मिस्टर सहाय से दोस्ती हो जाये, बड़ी मुश्किल से तो वह उनसे बात करने को तैयार हुआ, बार बार ऐसा लग रहा था कि अब आगे शब्द ही ख़त्म हो गए हैं। मिस्टर सहाय भी मायूस से हो गए थे लेकिन बड़ी होशियारी से उन्होंने बात को संभाला। राहुल को भी उनसे बात करके अच्छा लगा वह उनके बात करने की स्टाइल पहचान गया। कितनी जल्दी और सूक्ष्मता से वह बात पकड़ता है, सच में वह बहुत तेज़ और होशियार है। बस वह किसी उलझन में भटके बिना पढाई में मन लगाये तो बहुत कुछ कर सकता है। हे भगवान मेरे बेटे पर कृपा बनाये रखना।

    मिस्टर सहाय को भी मानना पड़ेगा कितनी संजीदगी से वे ये झूठ निभा रहे हैं। जब बात शुरू हुई थी सनी रिहेबिलिटेशन सेंटर में था वे अकेले और भावुक थे, लेकिन इतने महीनों बाद भी राहुल के प्रति उनकी जिम्मेदारियों में कोई कमी नहीं आई बल्कि अब तो वे और ज्यादा संजीदा हो गये हर बात का बारीकी से ख्याल रखने लगे हैं, बहुत भले आदमी है वो।

    समय कम है जल्दी ही राहुल से दोस्ती बढ़ाना होगी ताकि उसे सच्चाई बताई जा सके। सिलसिला तो शुरू हो चुका था। दो तीन दिन बाद मैं नेहा के घर की तरफ निकल गया। राहुल सड़क पर ही खेल रहा था मुझे देख कर दौड़ कर मेरे पास आया।

    "हाय अंकल कैसे है आप? आप यहाँ पास में ही रहते हैं क्या? अंकल मेरा घर सामने ही है आइये ना।"

    "नहीं बेटा फिर कभी आऊँगा अभी आप खेल रहे हैं खेलिए।"

    "अंकल मेरा खेल ख़त्म ही होने वाला है आइये ना।" वह मुझे हाथ पकड़ कर घर ले गया।

    नेहा मुझे देख कर चौंक गई।

    "आपका बेटा माना ही नहीं पकड़ कर ले आया मुझे।" फिर मैं ने उससे पूछा "बेटा आपका नाम क्या है?"

    "राहुल"

    "मैं दीपक सहाय" मैंने नेहा को अपना परिचय दिया।

    "मैं मिसेज शर्मा, नेहा शर्मा" बैठिये।

    आप कहाँ रहते हैं क्या करते हैं की औपचारिकता राहुल के लिए करके हम सामान्य बातें करते रहे। एक घंटा कैसे निकल गया पता ही नहीं चला। वापस आने का मन तो नहीं था लेकिन आना तो था। नेहा राहुल के साथ बिताया हुआ समय मुझे वक्त में छह साल पीछे ले गया जब मैं गीता सनी और सोना हर शाम ऐसे ही गपशप करते थे। गीता चाय पकौड़े ले आती बच्चों की मासूम बातें और खिलखिलाती शरारतें उठने ही नहीं देती थीं तब गीता ही सबको उठाती थी पढ़ने के लिए। जब बच्चे पढ़ने बैठ जाते तब मैं और गीता संतुष्टि से एक दूसरे की आँखों में देखते। अपने प्यारे परिवार और इतने सारे प्यार के लिये एक दूसरे का शुक्रिया करते और उनके सुनहरे भविष्य की योजनाएँ बनाते।

    सनी अपने कमरे में था। पिछले चार दिनों से उसने मुझसे बात नहीं की थी, मुझे चिंता होने लगी थी। कहीं उसने फिर से पीना तो शुरू नहीं कर दिया? लेकिन किससे पूछूँ? मन बहुत बैचेन होने लगा, मैं देर तक बाहर बगीचे में चहल कदमी करता रहा। आसमान पर चाँद चमक रहा था मैं चाँद की खूबसूरती निहार रहा था। राहुल के चेहरे की चमक उसमे दिखाई देने लगी तभी बादल के एक टुकड़े ने चाँद को ढँक लिया। सनी मुझे फिर सनी का ख्याल आ गया। थोड़ी देर पहले की ख़ुशी कश्मकश में बदल गई।

    थोड़ी देर बाद मैंने नेहा से बात की, उसने बताया राहुल बहुत खुश है आपमें अपने पापा की छवि ढूँढ रहा है।

    "आज उसे सब कुछ बता देना चाहिए।" मैंने कहा।

    उधर नेहा अचानक चुप हो गई, थोड़ी देर बाद धीमी सी आवाज़ आई "मुझे डर लग रहा है, उसकी सारी ख़ुशियाँ आँसुओं में बदल जाएँगी।"

    "हाँ लेकिन बताना तो होगा ना, अच्छा होगा कि पहले आप उसे बताएं फिर मैं उससे बात करूँगा।"

    "कैसे संभालूँगी उसे मैं? वह यह सदमा बर्दाश्त भी कर पायेगा?"

    "एक न एक दिन तो करना ही होगा। आपके भाई आने वाले है तब तो पता चलेगा ही, उसके पहले ही बता दे तो ठीक रहेगा।"

    "मैं कोशिश करती हूँ।"

    "हाँ जब बता दें तो मुझे फोन करियेगा।"

    कह तो दिया लेकिन एक उदासी ने मुझे घेर लिया। क्या इस छोटे से बच्चे को खुश होने का अधिकार नहीं है? आज वह इतना खुश है आज ही उसे ये कड़वा सच बताना जरूरी है क्या?

    उस दिन नेहा का फोन नहीं आया शायद वह भी राहुल की ख़ुशी को कुचलने की हिम्मत नहीं जुटा पाई।

    अगले दिन नेहा से बात हुई उसने बताया भैया का फोन आया था वो इसी सन्डे को आ रहे है। सन्डे यानी पाँच दिन बाद।

    इतने जल्दी राहुल को सब बताना और उसे संभालना सब कैसे होगा, कुछ समझ नहीं आ रहा है।

    "सच में समय बहुत कम है आप ऐसा करिये आज ही उसे बताइये शाम को मैं उसे फोन करता हूँ उसके बाद आपके घर आता हूँ।"

    "ठीक है।"

    ***

    नेहा ने फोन रखा ही था कि राहुल ने आकर पीछे से पकड़ लिया। "मम्मी अभी मेरी छुट्टियाँ हैं न तो मैं ऐसा करता हूँ अपने फोटोज का एक कोलाज़ बना लेता हूँ। मम्मी मुझे कम्प्यूटर दिलवा दो ना उस पर अपने फोटोज का कोलाज़ मैं पापा को भेजूंगा। पापा देख कर कितना खुश होंगे ना? कम्प्यूटर पर कैमरा लगा कर मैं उन्हें देख कर बात भी कर सकता हूँ। पापा से कहा था अपना फोटो भेजने का लेकिन शायद वो भूल गये।

    मेरे दिमाग में बवंडर उठ रहा था, पापा खुश होंगे किस बात पर? राहुल को देख कर, मुझे देख कर क्या वो हमें देखना चाहते हैं? इतने दिनों का तनाव भैया का सामना करने और उनके गुस्से की आशंका के साथ खुद के अकेले रह जाने का डर, राहुल की खुशियाँ छिन जाने का दुःख, राहुल को असलियतई बताने का तनाव लावे की तरह खदबदा रहा था, जो बाहर आने का रास्ता ढूँढ रहा था। मैं जोर से चीखी 'राहुल' और उस लावे को राह मिल गई। "राहुल बस करो पापा पापा, तुम्हारे पापा तुम्हे देखना भी नहीं चाहते, वो वापस नहीं आना चाहते और कभी आएंगे भी नहीं। हम दोनों को यहाँ छोड़ कर उन्होंने वहाँ अपनी अलग दुनिया बसा ली है। शादी कर ली है उन्होंने वहाँ, अब वे कभी भी नहीं आएँगे।" मैं फूट फूट कर रोने लगी। उसे सीने से लगा कर कहने लगी "तुम्हारे पापा मुझे नहीं चाहते मेरे साथ वे कभी खुश नहीं थे इसलिए वे दुबई चले गए हमेशा के लिए।"

    ***