छूटी गलियाँ - 17 Kavita Verma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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छूटी गलियाँ - 17

  • छूटी गलियाँ
  • कविता वर्मा
  • (17)

    असफल होने का अवसाद मुझे डुबोने लगा मैंने अंतिम बार सतह पर आकर फिर कोशिश की। अपना हाथ राहुल की ओर बढ़ाया उसका हाथ अपने हाथ में लेकर गर्मजोशी से हिलाया और कहा "आपसे बात करके बहुत अच्छा लगा बेटा आप बहुत अच्छे बच्चे हो कभी कभी पार्क में आया करो मुलाकात होती रहेगी।" मैंने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा। "गॉड ब्लेस यू बेटा।" मैंने नेहा को नमस्ते किया "बहुत प्यारा बेटा है आपका। आशा करते है फिर मुलाकात होगी।"

    मैं कुछ कदम ही चला था कि राहुल की आवाज़ आई "मम्मी इन अंकल का बात करने का स्टाइल पापा से कितना मिलता जुलता है न?" आज इस बात से डर नहीं लगा मुझे, बल्कि आशा की एक किरण सी दिखी शायद इसी बहाने वह मुझसे दोस्ती कर ले शायद अब हम राहुल को संभाल पायें।

    "हाँ मुझे भी ऐसा लगा बिलकुल पापा की तरह बात करते हैं।"

    "कौन थे वो अंकल आप उन्हें जानती हो?"

    "नहीं पार्क में ही देखा है उन्हें, शायद आस पास कहीं रहते हों।"

    "मुझे ऐसा लगा जैसे मैं पापा से ही बात कर रहा हूँ।"

    इसके बाद मैं उनकी बातें सुन पाने के दायरे से बाहर हो गया। मन डूबते डूबते फिर उतराने लगा ओह मतलब मैं इतना असफल भी नहीं रहा। मैं अब वहीँ रुक जाना चाहता था राहुल की बातें मुझमें हौसला भर रही थीं लेकिन वापस जाना ठीक नहीं लगा। मैं धीमे लेकिन उत्साहित कदमों से वापस आ गया।

    सनी बाहर के कमरे में बैठा हुआ था उसकी आँखें लाल थीं। वह गीता की तस्वीर को देख रहा था। न जाने कैसा दुःख कैसा खालीपन था था उसके चेहरे पर। मैं कमरे में आया उसने मेरी तरफ देखा तक नहीं। "सनी" मैंने पुकार, "कैसा है तू क्या हुआ है तुझे तेरी आँखें इतनी लाल क्यों हो रही हैं?" उसने कोई जवाब नहीं दिया। "सनी क्या बात है कुछ बोलता क्यों नहीं?" फिर अचानक मुझे याद आया और मैंने पूछा "तू आज पार्क आया था क्या?"

    इतना सुनते ही वह झटके से उठ खड़ा हुआ चेहरे पर खिंचाव नथुने फड़क रहे थे लग रहा था जैसे किसी गहरे मानसिक तनाव में है। मैं कुछ पूछता या समझता इसके पहले ही वह तेज़ी से अपने कमरे में चला गया और दरवाज़ा बंद कर लिया।

    मैं बुरी तरह आहत हुआ सनी का व्यवहार समझ से परे था। मैं जोर से चीखा सनी लेकिन आवाज़ दरवाजे के उस पार नहीं पहुँची। मुझे बहुत गुस्सा आया कितना बद्तमीज़ है ये लड़का। दरवाजा मेरे मुँह अपमान का तमाचा था मैं अंदर तक काँप गया। मैं इसके लिए अच्छे से अच्छा करने का सोच रहा हूँ और ये है कि सीधे मुंह बात ही नहीं कर रहा है। क्या हुआ है कुछ बताये तो?

    उस रात मैंने अकेले ही खाना खाया सनी को आवाज़ दी लेकिन उसने मना कर दिया।आज साथ वाली खाली कुर्सी मुझे मुँह चिढ़ा रही थी। बहुत दिनों बाद सनी के वापस आने के पहले वाला भयावह सन्नाटा आज फिर भाँय भाँय कर रहा था। घर आकर भी सनी मुझसे फिर दूर जा रहा था और अब भी मैं नहीं जानता था कि कारण क्या है ? लेकिन अब मैं इतना तो जानता था कि कुछ तो है और उसे मैं पता करके रहूँगा। सनी के अलावा अब मेरा और है भी कौन उसे अपने से दूर नहीं होने दे सकता।

    मन बेहद क्षुब्ध था। राहुल के शब्दों से मिली ख़ुशी काफूर हो गई थी। अपने कमरे में बिस्तर पर लेटे लेटे बहुत देर तक सनी के व्यवहार के बारे में सोचता रहा। आज फिर खुद को बेहद अकेला महसूस करने लगा। कुछ समझ ना आया तो मैंने करवट बदली और अपना ध्यान राहुल की ओर किया। उसके शब्द मुझे गुदगुदाने लगे "इन अंकल के बात करने का स्टाइल पापा की तरह है ना?"

    सनी

    मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा है लेकिन मैं बहुत परेशान हूँ। ऐसा लग रहा है मानों किसी घने जंगल में भटक रहा हूँ जहाँ से बाहर निकलने के लिए जो राह पकड़ता हूँ वह और घने जंगल में ले जाती है।कितनी मुश्किल से मैंने खुद को संभाला था नशे की आदत पर काबू किया, पापा को पाया उनके साथ इतनी नज़दीकियाँ बनीं। इतना सब होने के बाद फिर कुछ करने कुछ बनने की इच्छा जगी है लेकिन अब मन बहुत हताश है ऐसा लग रहा है जैसे फिर से सब कुछ खो गया है। मन नहीं करता कि मैं किसी ऐसी वैसी बात पर विश्वास करूँ लेकिन जो मैंने खुद देखा और सुना है उस पर अविश्वास भी कैसे करूँ?

    उस दिन जब मैं आखिरी पेपर दे कर घर आया था पापा किसी से फोन पर बात कर रहे थे ऐसा लगा जैसे वह किसी बच्चे से बात कर रहे थे, वे बार बार बेटा बेटा कह रहे थे, कौन था वह? हमारे जान पहचान या रिश्तेदारी में तो कोई ऐसा छोटा बच्चा नहीं है जिससे पापा इतने खुश होकर इतनी सारी बाते करें।

    ऐसा लग रहा था मानों बरसों पहले के पापा मुझसे बात कर रहे हों। वही ख़ुशी वही उत्साह वही प्यार जैसा मेरे लिए था, उस दिन उनकी आवाज़ से छलक रहा था। वे इतने मगन थे कि उन्हें मेरे घर आने का एहसास तक नहीं हुआ। ऐसा लगा मानों उस समय में वे सब कुछ भूल गए थे और फोन पर वह जो भी था सिर्फ और सिर्फ उसके साथ थे।

    तीन चार दिन से सोच सोच कर मेरा दिमाग ख़राब हो गया। पापा आखिर बात किससे कर रहे थे? कौन था वो बच्चा? कहीं पापा का ही तो? छी छी मैं ऐसी बातें क्यों सोच रहा हूँ, लेकिन मन में बार बार यही ख्याल क्यों आ रहा है? पापा का उसे बेटा बेटा कहना, इतने प्यार से बातें करना और फिर आज शाम पार्क में उस औरत और बच्चे के साथ । कौन थे वे लोग? क्या रिश्ता है पापा का उनसे? क्या हमसे दूर रहते हुए पापा ने एक दूसरा संसार बसा लिया था? क्या इसीलिए वे अपने आप में इतने मगन रहते थे कि कई बार उन्हें फोन करने का भी समय नहीं मिलता था? क्या मम्मी इस बारे में जानती थीं? क्या इसीलिए वे इतनी खामोश रहती थीं? वह लड़का जो पार्क में उनके साथ बैठा था वह तो काफ़ी बड़ा था। पापा को बाहर गए तो पाँच छह साल ही हुए हैं तो क्या जाने के पहले से ही .... ? नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता। पापा के बाहर जाने से पहले तो हम सब कितने खुश थे, मम्मी पापा के बीच भी कितना प्यार था। दूसरे घरों जैसे हमारे यहाँ कभी कोई झगडे भी नहीं होते थे। हाँ मैं और सोना लड़ते थे लेकिन मम्मी पापा तो कभी नहीं।

    फिर कौन थे वे लोग और पापा कैसे जानते हैं उन्हें, क्या रिश्ता है उनसे? ओह्ह मैं पागल हो जाऊँगा। मेरा मन कर रहा है फिर से खुद को शराब में डूबा दूँ और सब कुछ भूल जाऊँ, छोड़ दूँ सब पढाई वढ़ाई, पापा क्या कर रहे हैं क्यों कर रहे हैं कुछ न सोचूँ। आज शाम पार्क से लौटते समय मन बहुत बैचेन था फिर से शराब पीने का मन हो रहा था। बड़ी मुश्किल से रोका मैंने अपने आप को। मैं वापस उस दलदल में नहीं जाना चाहता और सच्चाई जाने बिना तो बिलकुल ही नहीं। लेकिन मुझे सच्चाई कैसे पता चलेगी? क्या करूँ पापा से पूछू लेकिन क्या कैसे? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है।

    राहुल

    आज पार्क में जो अंकल मिले थे उनका बात करने का स्टाइल बिलकुल पापा की तरह था। पहले तो जब मम्मी ने मुझे पार्क चलने के लिए कहा मुझे बहुत गुस्सा आया था। मेरे दोस्तों ने भी कितनी आवाज़ें लगाईं लेकिन पता नहीं आज मम्मी को क्या हो गया पीछे ही पड़ गईं 'मेरे साथ पार्क चलो।' कितना बोरिंग था वहाँ, बस एक चक्कर लगा कर बेंच पर बैठ गए। वहाँ सब छोटे छोटे बच्चे खेल रहे थे, फिर वो अंकल हमारी बेंच पर आ कर बैठ गये। मुझे तो बड़ा गुस्सा आ रहा था जब उन्होंने पूछा यहाँ बैठ जाऊँ, मन तो हुआ मना कर दूँ लेकिन मम्मी ने हाँ कर दिया, फिर वो बातें करने लगे। मैं तो जवाब भी नहीं देना चाहता था लग रहा था जबरन बातें कर रहे हैं लेकिन क्या करता?

    थोड़ी सी बातचीत के बाद मुझे लगने लगा कि वो बिलकुल पापा के स्टाइल में बोल रहे हैं फिर मुझे अच्छा लगने लगा। मम्मी ने भी कहा कि वो पापा जैसे बात कर रहे थे। ओह्ह गॉड अगर पापा यहाँ होते तो कितना मज़ा आता। मैं पापा को ये बात बताऊँगा।

    वैसे मेरा मन हो रहा था कि वे थोड़ी देर और रुकें मैं थोड़ी और देर उनसे बात करूँ पर वो अचानक ही चले गये। मैं उनसे फिर कब मिलूँगा, मिलूँगा भी या नहीं पता नहीं। आई मिस यू पापा।

    मिस्टर सहाय को भी मानना पड़ेगा कितनी संजीदगी से वे ये झूठ निभा रहे हैं। जब बात शुरू हुई थी सनी रिहेबिलिटेशन सेंटर में था वे अकेले और भावुक थे, लेकिन इतने महीनों बाद भी राहुल के प्रति उनकी जिम्मेदारियों में कोई कमी नहीं आई बल्कि अब तो वे और ज्यादा संजीदा हो गये हर बात का बारीकी से ख्याल रखने लगे हैं, बहुत भले आदमी है वो।

    ***