हमारे पापा
आर0 के0 लाल
हमारे पापा एक आदर्श पापा हैं । वह सदैव हमें प्यार करते हैं। घुमाने हमेशा पैदल ही ले जाते हैं ताकि मेरा और मेरे भाई बहनों का स्वास्थ्य बना रह सके। बाजार भी ले जाते हैं। वहां खिलौने की दुकानें , शोरूम ,आइसक्रीम पार्लर आदि दिखाते हैं जिससे हम तरह-तरह की चीजों को देखकर मुक्त ही जी बहला लेते हैं। आइसक्रीम खा कर सेहत बिगाड़ने की जरूरत ही नहीं पड़ती और हम उसकी वैरायटी भी जान जाते हैं।
दूसरों के बीसीआर पर पिक्चर भी दिखा देते हैं और उनके यहां चाय भी पिलवा देते हैं । अपने घर किसी को आने का मौका कम ही देते हैं जिससे हमारी चीजें कोई छू नहीं पाता और दालमोट का पैकेट भी महीनों चल जाता है। वे हमारी फरमाइश पर तुरंत ध्यान देते हैं । किताबों की जरूरत पड़ने पर पड़ोसी दोस्त के घर भेज कर पढ़ने की इजाजत दे देते हैं । इससे किताबों का भोज भी कम हो जाता है और रखरखाव का झंझट भी नहीं होता।
हमारे आउटिंग का भी वे साल भर प्रोग्राम बनाते हैं। अगली गर्मी की छुट्टियों में कहां कहां जाना है, सारी योजनाओं से हमें अवगत कराते हैं। विभिन्न पर्यटन स्थलों की जानकारी भी देते हैं कि वहां कैसे जाया जा सकता है, कहां ठहरा जाए, वहां कौन से दर्शनीय स्थल है और हम सपरिवार बिना किसी तकलीफ के बिना कष्ट सहे घर में ही रहकर सारी छुट्टियां उन बातों को दोहराते रहते हैं। फिर वास्तव में लगता है कि हम भ्रमण कर आए। हम दोस्तों को जब वहां की बातें बताते हैं तो उन्हें शक की कोई गुंजाइश नहीं रहती कि इस बार भी पापा की मजबूरियों के कारण हम कहीं नहीं जा सके। जिस दफ्तर में पापा काम करते हैं वह भी तो उनके चले जाने से बंद हो जाता ।
पापा की जान भाई जान पहचान भी बहुत ज्यादा है वे हांकते रहते हैं कि चाहे नेता हो या अभिनेता आईएस अफसर हो या चपरासी, सभी से उनकी अच्छी दोस्ती है । रेलवे वालों से तो विशेष रूप से चिपकने की कोशिश करते हैं। इसीलिए तो हम कभी-कभार रेलगाड़ी का आनंद सपरिवार ले लेते हैं। कोई टिकट लेने के लिए भी नहीं कहता । पापा को भगवान में पूरा विश्वास है। रेल के सफर में भगवान को याद करते रहते हैं और मनाते रहते हैं कि कोई टिकट मांगने वाला ना आ जाए।
पापा कहते हैं कि रेलवे स्टेशन के मेन गेट पर बड़ी भीड़ होती है, जेब कट जाने का डर रहता है इसलिए हम थोड़ी दूर तक रेलवे लाइन के किनारे किनारे तेजी से जाते हैं और फिर सड़क पर आ जाते हैं। वहां टीटी की मनहूस सूरत काली बिल्ली की तरह रास्ता भी नहीं काटती और रिक्शेवाले भी नहीं रहते हैं कि उन से मोलभाव करने में हमारा समय नष्ट हो। हम सब तंदुरुस्त तो हैं ही फिर अपना सामान उठा कर चलना तो गौरव की बात होती है। यह बात गांधी जी कह गए हैं। हमारे पापा सदैव गांधी के अनुयाई रहे हैं और हमें उन्हीं की राह पर चलाते हैं । अब तो आदत सी हो गई है कि हम अपना दूसरा गाल पहले ही आगे कर देते हैं।
हमारे पापा सदैव पढ़ाई पर जोर देते हैं ।बताते हैं कि स्कूल में वे पिछली बेंच पर ही बैठते थे । अपना समय कभी खराब नहीं करते थे। सोने का काम स्कूल में ही पूरा कर लेते थे ताकि घर पर दोस्तों के साथ कुछ और काम कर सकें। खेल भी उन्हें बड़ी सफलता मिली है। ताश खेलते समय ऐसा पता बदलते हैं मानो एक गड्डी में पांच छ इक्के होते हों।
हमारे पापा से कोई भी विषय पढ़ा जा सकता है एक सवाल को कराने में कई दिन भले लग जाए परंतु वह कब हार मानने वाले हैं ।कहते हैं सवाल लगाने के लिए कलम कागज लेकर बैठो सवाल के वाक्यों को पढ़ते जाओ और फार्मूला लगाते जाओ। हम अभी बाथरूम से आते हैं ।बाथरूम से सीधे पान की दुकान पर चले जाते हैं । पान खाकर आने पर वह सवाल अवश्य पूरा कर देते पर उनके दोस्त आ जाते हैं। पापा कितना ख्याल रखते हैं हमारी पढ़ाई का। कहते हैं किताबें खुली रखो। पहले अंकल को चाय पिलाओ, मम्मी से पूछो चीनी है या मंगा दूं । अच्छा तुम अंकल से सवाल समझ लो।अब तो या अंकल के प्रेस्टीज का प्रश्न हो गया ना। वे पूरी कोशिश से सवाल लगाने में जुट जाते हैं और मौका पाते ही भाग खड़े होते हैं। इस प्रकार चाय भी बच जाती है और मेरे कुछ पन्ने भी भर जाते हैं।
कहानी हम मम्मी से ही सुनते हैं मगर कभी कभार पापा भी कहानी सुनाते हैं जब मम्मी गुस्सा होती है या उसके सिर में दर्द होता है । मम्मी की तरह पापा की कहानी पैसेंजर गाड़ी नहीं होती । वह तो सुपर फास्ट ट्रेन की तरह नॉनस्टॉप अंतिम स्टेशन तक पहुंचती है ,जैसे एक था राजा एक थी रानी, दोनों मर गए खत्म कहानी । कभी-कभी तो कहते हैं बेटा जल्दी सो जाओ ताकि मैं कहानी सुनाना शुरू करूं।
हमारे पापा के कपड़े भी खूब चलते हैं। वे बताते हैं कि उनकी शादी के समय जिस सूट में मां का साथ जीवन पर्यंत निभाने की कसम खाई थी उसे कैसे छोड़ सकते हैं । वह अपने इकलौते स्वेटर को कैसे धुलवा सकते हैं कहते हैं कि धुलवाने से उसकी गर्मी चली जाती है।
हमारे पापा शहर में लगने वाले सर्कस भी दिखाने ले जाते हैं । चाहते हैं कि हम पास लेकर जाएं। पास वालों का रुतबा ही अलग होता है । महीने भर घर में ही भगवान से प्रार्थना करते रहते हैं कि कोई सांता क्लाज आ जाए और खिड़की से चार पांच पास डाल जाए । प्रत्येक सुबह खिड़की के पास कुछ ढूंढते हुए पाए जाते हैं ।सर्कस के अंतिम दिन हम सब को तैयार करा के मैदान पर ठीक शो प्रारंभ होने के वक्त पहुंच जाते हैं ।आखरी शो का मामला टिकट की लंबी लाइन में में सबसे पीछे लग जाते हैं और हम सब पोस्टरों में बने शेर चीते, भालू बिल्ली, करतब दिखाते जोकरो और जगमगाते पंडाल को निहारते पूरे 1 घंटे मजे लेते हैं ।अंत में होने के कारण बिचारे पापा टिकट नहीं पाते तो उनका क्या कसूर। हम भी कुछ निराश नहीं होते। सर उठाए वापस चल देते हैं घर की ओर। सर्कस की घूमती लाइट तो रास्ते भर दिखती ही है। उसका कितना मजा आता है । है ना?
अनेकों ऐसे उदाहरण है जहां हमारे पापा हमारे लिए जी जान से लगे रहते हैं । उनकी सफलता अथवा असफलता तो तकदीर का मामला है । जरा सोचिए इस महंगाई के समय हमें अंग्रेजी स्कूलों में कैसे पढ़ाते होंगे जबकि वहां की फीस एवं चंदा तथा रिक्शे का खर्च इतना है कि उनकी आधी तनख्वाह चली जाती है। इसका पता तो हमें तब चला जब एक दिन उनकी पे स्लिप हाथ लग गई। नौकरी ऐसी है जिसमें न ओवरटाइम है और ना ऊपरी आमदनी। नियमित खर्चों के अलावा कभी हमारी बर्थडे है तो कभी हम में से कोई बीमार। रिश्तेदारी में शादियां भी कुछ कम नहीं पड़ती । त्यौहारों में नया ड्रेस पहनना है वरना पाप लगने का भय हम सबको लगता है। हमारी किताबें ना जाने क्यों हर साल बदल जाती हैं जबकि सिफारिशों के बावजूद भी पापा की पोस्टिंग और पदोन्नति की फाइल टस से मस नहीं होती। वह बताते हैं कि इस बार डी ए बढ़ने पर कुछ राहत मिलेगी अगर उसकी धनराशि पीएफ अकाउंट में ना जमा हो जाए । बढ़ती उम्र में बहन की शादी के लिए दहेज का जुगाड़ करने की चिंता में कुछ बढ़ोतरी हुई तो वह है उनका हाइपरटेंशन । फिर भी वह खुद जीवित हैं, हम जी रहे हैं और फल-फूल रही है हमारी शान शौकत ,उन्हीं की बदौलत। हैं ना हमारे पापा महान।
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