आधी नज्म का पूरा गीत
रंजू भाटिया
episode 20
रिश्ते जो दिल की बात
किस तरह अमृता अपने लिखे से अपना बना लेती है....मैं तो एक कोयल हूँमेरी जुबान पर तोएक वर्जित छाला हैमेरा तो दर्द का रिश्ता..
यह वर्जित छाला कैसे, कब अमृता के जीवन में आ गया कोई नही जानता... लेकिन जब यह आया तो अमृता को इमरोज़ से मिल कर लगा कि कभी हम दोनों ही आदम और हव्वा रहे होंगे..जिन्होंने आदम बाग़ का वर्जित फल खाया था..पर उस फल को आख़िर वर्जित किसने कहा कौन जाने...क्यूँ मिली वह इमरोज़ से.क्या क्या ख्याल उस वक्त उनके जहन से हो कर गुजरे.वह उनके लिखे कई लफ्जों से ब्यान हुआ है..उनकी हसरत एक ही थी कि कभी सहज से जीना नसीब हो जाए.लेकिन वह राह उन्हें उस वक्त बहुत मुश्किल दिखायी देती थी क्यूंकि उस वक्त उनके पास कुछ कारण भी थे..एक बार वह एक फ़िल्म देख कर इमरोज़ के साथ वापस लौट रही थी.रास्ते में एक जगह उनकी चाय पीने की हुई, सो वह वही पास के एक होटल में वह चले गए...पर थोडी देर बाद नोटिस किया कि सबकी गर्दनें टेढी हो गई उन दोनों को देखने के लिए..दोनों का मन उखड गया..और वह वहां से उठ कर एक रोड साइड ढाबे में चले गए..वहां उन्होंने आराम से चाय पी.उसके बाद वह किसी अच्छे दिखते रेस्टोरेंट में नही गए...पर इस तरह की घटनाओं से अमृता शुरू शुरू में परेशान हो जाती और इमरोज़ से कहती...""देख इमरोज़ तेरी तो जीने बसने की उम्र है.तुम अपनी राह चले जाओ..मैंने तो अब बहुत दिन नही जीना है.""इमरोज़ जवाब देते --"तेरे बगैर मैंने जी कर मरना है...."पर दर्द की लकीर कभी कभी अपना ख़ुद का आपा भी खो देती है और वह यूँ लफ्जों में ब्यान होती है..सूरज देवता दरवाजे पर आ गयाकिसी किरण ने उठ करउसका स्वागत नहीं कियामेरे इश्क ने एक सवाल किया थाजवाब किसी भी खुदा सेदिया न गया..…
एक बार वह करोल बाग़ गयीं, वहां एक ज्योतिष के नाम की तख्ती देख कर अन्दर चली गयीं..और वहां बैठे पंडित जी से पूछा, कि बताइए यह मिलना होगा होगा या नही होगा..पंडित ने न जाने कौन से ग्रह नक्षत्र देखे और कहा कि सिर्फ़ ढाई घड़ी का मिलना होगा...अमृता को गुस्सा आ गया..उन्होंने कहा नही यह नही हो सकता है..तो पंडित बोले कि चली ढाई धडी का नहीं तो ज्यादा से ज्यादा सिर्फ़ ढाई बरस का होगा..अमृता ने जवाब दिया कि यदि यह कोई ढाई का ही चक्कर है तो..यह भी तो हो सकता है कि ढाई जन्म का हो..आधा तो अब गुजर गया..दो जन्मों का अभी हिसाब बाकी है..पंडित जी ने शायद कभी इश्क की दीवानगी नही देखी थी..और वह दीवानों की तरह उठी वहां से उस राह पर चल पड़ी जिसे दीवानों की राह, इश्क की राह कहा जाता है...और उन्ही दिनों उन्होंने लिखा कि..उम्र के कागज परतेरे इश्क ने अंगूठा लगायाहिसाब कौन चुकायेगा !किस्मत के इक नगमा लिखा हैकहते हैं कोई आज रातवही नगमा गायेगाकल्प वृक्ष की छांव में बैठ करकामधेनु के छलके दूध सेकिसने आज तक दोहनी भरी !हवा की आहें आज कौन सुने, चलूँ आज मुझेतकदीर बुलाने आई है..उठूँ चलूं तकदीर मुझे बुलाने आई है !!!किसी से मिलना क्यूँ कर होता है..जन्मों का नाता क्या सच में होता है..? पंडित तो अपनी बात कह कर भूल गया होगा. पर अमृता न भुला पायी अपना कहा...जाने किस जन्म से वह इमरोज को तलाश कर रही थी.यह भी उनके सपनों की एक हकीकत थी कि एक सपना वह बीस बरस लगातार देखती रही.... कोई दो मंजिला मकान है जिसके ऊपर की खिड़की से जंगल भी दिखायी देता है, एक बहती हुई नदी भी और वहीँ कोई उनकी तरह पीठ किए कैनवस पर चित्र बना रहा है..वह सपना वह बीस बरस तक देखती रहीं और इमरोज़ से जब मिली तो उसके बाद नही देखा वह सपना उन्होंने..यह इश्क के नाते हैं, जन्मों जन्मो साथ चलते है.किसी से मिलना यूँ अकारण नहीं होता है..इमरोज़ से मिलना, साहिर से मिलना उनका शायद इसी कारण के तहत रहा होगा.अमृता के बारे में कई लोग ऐसा मानते हैं कि अमृता अपने लेखन में निरे भावुकस्तर पर ठहर गयीं हैं... और उनका पूरा लेखन प्लेटोनिक लव और उस से जुड़ी इमोशंस के इर्द गिर्द ही घूमता रहा है.... और उस में निरी भावुकता होती है..इसपर अमृता ने जवाब दिया कि यह भावुकता नही है कोरी..इसको इमोशंस की रिचनेस कह सकते हैं..एहसास की अमीरी.."'रिचनेस प्लस इन्टेलेक्ट "'..जो खाली इटेलेक्ट है वह खुश्क हो जाता है और खाली भावुकता एक बहाव की तरह है, जो आपको बहा कर ले जाती है..आपके पैरों के नीचे जमीन नहीं रह जाती है.खाली भावुकता उड़ते पत्ते की तरह है, जो कहीं भी बह जाए...प्लेटोनिक लव का मतलब मोहब्बत को जिस्म से माइनस करना है और यदि जिस्म को माइनसकर दिया मोहब्बत से और खाली रूह की बात की तो पूर्णता उस में कहाँ बचेगी ?इसी पर एक नज़्म कही थी उन्होंने..मेरी सेज हाजिर हैपर जूते और कमीज की तरहतू अपना बदन भी उतार देउधर मूढे पर रख देकोई ख़ास बात नहीं --यह अपने अपने देश का रिवाज हैयह एक व्यंग था यानी खाली मूर्ति को छूना.यहाँ मैं एक और उनके घटना का जिक्र करना चाहूंगी.. एक इंटरव्यू में उनसे पूछा गया कि आपके उपन्यास की नायिकाएं बिना विवाह किए संतान पैदा करके उसको पालती पोसती हैं...आप विवाह संस्था की सामाजिक जरुरत के बारे में क्या सोचती है..? अमृता का जवाब था..कि हमारी श्रेणियां इतनी बनी हुई है कि एक ही चीज सब पर लागू नही होती है.कुछ लोग इसको पहचान का रिश्ता मानते हैं..उसके लिए एक सेरेमनीहो या न हो उस से कोई फर्क नही पड़ता है..लेकिन कुछ लोग हैं जिन्हें कानून की पनाह चाहिए..सरंक्षण चाहिए अदरवाइज दे विल वीएक्स्प्लोइड..मेरिज का बेसिक कांसेप्ट है एक दूजे का पूरक होना..एक दूजे की आजादी गुलामी नही..मुश्किल तो यह है कि मेरिज शब्द के अर्थ कही खो गए हैं.. विवाह होते हैं टूटते हैं..फ़िरसे विवाह होते हैं..इस तरह से अभी कहीं भी सकूननही मिल पा रहा है..न विवाह के भीतर और न ही बाहर क्यूंकि विवाह के सही अर्थ कोई समझ ही नही पाता है अब....और इस में मुश्किल यह है कि..मर्द और औरत ने पूरा मिलन कहाँ देखा है..? उसने अभी औरत में एक दासी, वेश्या और देवी देखी है..इवोल्यूशन आफ ह्यूमन बीइगन्स में औरत, औरत कहाँ है..? मर्द, मर्द कहाँ है ? सिर्फ़ छीनना और लूटना जानते हैं सब..
शायद इस लिए उनके लिखे उपन्यासों का मसला उस औरत और मर्द के रिश्ते पर रहा, जो इंसान को इंसान के रिश्ते तक पहुंचाता है और फ़िर एक देश से दूसरेदेश के रिश्तों तक..पर यह रिश्ता अभी उलझा हुआ है..क्यूंकि अभी दोनों अधूरे हैं दोनों ही एक दूजे को समझ नही पाए हैं..उनके अनुसार हम लोग जवानी.खूबसूरती की कोशिश को कुछ सुखों और सहूलियतों की कोशिश को मोहब्बतका नाम दे देते हैं..लेकिन मोहब्बत जैसी घटना सिर्फ़ एक किसी पूरे मर्द या पूरी औरत के बीच घट सकती है..पूरी औरत से यहाँ उनका मतलब पूछा गया तो जवाब बहुत खूबसूरत दिया उन्होंने..वह औरत जो आर्थिक तौर पर, जज्बाती तौरपर और जेहनी तौर पर स्वंतंत्र हो..आजादी कभी किसी से मांगी या छीनी नही जासकती है..न ही यह पहनी जा सकती है, यह वजूद की मिटटी से उगती है..उनको अपने एक हिन्दुस्तानी औरत होने का फक्र था.क्यूंकि ईसा से भी चारहजार साल पहले इस धरती की औरत ने वह चिंतन दुनिया को दिया था जो आज कई सदियों के बाद भी किसी मुल्क की तहजीब में शामिल नही हुआ..ऋग्वेद की एक ऋचा में सूर्या सावित्री ने कहा था कि... सुबह की रोशनी जब सूरज से मिलेतो उसकी आंखों में ज्ञान का काजल हो, हाथों में अपने प्रिय को सौगात देने केलिए वेदमंत्र हो..दुनिया के विद्वान पुरोहित हों और स्वंत्रता उनकी सेज हो.. और अमृता को अपने ख्यालों की तसकीद आज की किसी हकीकत से नहीं मिली..बलिक इसी साठ सदियों पुराने चिंतन से मिली...तभी वह अपने वक्त से आगे चली और बिना डर के बिना भय के चली..अमृता जैसा होना एक हिम्मत का काम है..तभी इमरोज़ मिलता मिलता है..और इमरोज़ जैसी मोहब्बत करना भी मायने रखता है.
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