आधी नज्म का पूरा गीत - 3 Ranju Bhatia द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आधी नज्म का पूरा गीत - 3

आधी नज्म का पूरा गीत

रंजू भाटिया

Episode 3

अमृता और आधी आबादी की बात

अमृता प्रीतम खुद में ही एक बहुत बड़ी लीजेंड हैं और बंटवारे के बाद आधी सदी की नुमाइन्दा शायरा और इमरोज जो पहले इन्द्रजीत के नाम से जाने जाते थे, उनका और अमृता का रिश्ता नज्म और इमेज का रिश्ता था. अमृता की नज्में पेंटिंग्स की तरह खुशनुमा हैं फिर चाहे वह दर्द में लिखी हों या खुशी और प्रेम में वह और इमरोज की पेंटिंग्स मिल ही जाती है एक दूजे से। अमृता जी ने समाज और दुनिया की परवाह किए बिना अपनी जिंदगी जी उनमें इतनी शक्ति थी कि वह अकेली अपनी राह चल सकें.उन्होंने अपनी धारदार लेखनी से अपने समय की समाजिक धाराओं को एक नई दिशा दी थी।

उनके लेखन की प्रमुख विशेषता यह है कि उसमें स्त्री मन को, उसके दर्द को, उसकी भावनाओं को भरपूर अभिव्यक्ति मिली है। स्त्रीवाद के जितने भी पहलू हैं, वे सभी उनकी रचनाओं में मौजूद हैं। उनके यहाँ स्त्री अबला नहीं बल्कि सशक्त नारी के रूप में दिखती है जो परिस्थितियों से हार नहीं मानती है और स्वयं के साथ दूसरों का जीवन भी सँवारती है, यही तो है पारिस्थितिक स्त्रीवाद की अवधारणा जहाँ अमृता की रचनाओं की नायिकाएं स्वयं को सार्थक करती हैं।

यहाँ पर उनकी ऐसी ही एक रचना ‘पिंजर’ नामक उपन्यास की नायिका के बारे में बात करते हैं, आज के जो हालात हैं इसको हम "इको फेमिनिज्म" कह सकते हैं .जिस में औरत को पुरुष से महान दिखाना नहीं बलिक पुरुष केंद्रित समाज में स्त्री को सामनता का दर्जा दिलाना है जहाँ स्त्री पुरुष का भेद भाव नहीं इंसान की इंसान से पहचान हो और जो सबको एक सी सुरक्षा दे । ‘पिंजर’ की कथा-नायिका पूरो इस कसौटी पर बिल्कुल खरी उतरती है। वह स्वयं शोषित है किंतु न केवल स्वयं को संभालती है बल्कि अपने जैसे कई शोषितों का सहारा भी बनती है, उन्हें सुरक्षा प्रदान करती है। वैसे तो इस उपन्यास की कथा-वस्तु सन् १९४७ के भारत-पाक विभाजन की त्रासदी पर आधारित है किंतु इसके माध्यम से लेखिका ने स्त्रियों पर हुए अत्याचार, अन्याय एवं शोषण की ही दास्तान बयां की है जिसमें कथा-नायिका पूरो एक सशक्त नारी के रूप में प्रस्तुत है। पिंजर उपन्यास का यह चरित्र, औरत के उस रूप को दिखाता है जिसने बंटवारें की त्रासदी और दर्द को झेला.

दुनिया की आठ भाषाओं में प्रकाशित होने वाला उपन्यास जिसकी कहानी भारत के विभाजन की उस व्यथा को लिए हुए है, जो इतिहास की वेदना भी है और चेतना भी...‘पूरो’ इसी उपन्यास की किरदार है, जो घटनाओं की आग में जलती-बुझती इस चेतना को पा लेती है, ‘कोई भी लड़की जो ठिकाने पहुँच रही है, वह हिन्दू हो या मुसलमान, समझना कि मेरी आत्मा ठिकाने पहुँच रही है। ’’इस कहानी की शुरुआत सन् १९३५ से होती है। पूरो का विवाह होने वाला है किंतु रशीद अपनी जातिगत दुश्मनी के कारण विवाह से पहले ही पूरो का अपहरण कर लेता है और वह अपने माता-पिता द्वारा ठुकरा दी जाती है। रशीद उससे प्रेम भी करता है, इसलिए उससे निकाह कर लेता है जिससे पूरो को एक बच्चा होता है किंतु अपने लड़के को देखकर पूरो को उसके पिता के किये गए बुरे कर्मों की याद आती है और उसके मन में समस्त पुरुष जाति के लिए घृणा का भाव उत्पन्न होता है। उसे लगता है, “ यह लड़का...उस लड़के का पिता...सब पुरुष जाति...पुरुष...पुरुष जो स्त्री के शरीर को कुत्ते की हड्डी की भाँति चूसते हैं, कुत्ते की हड्डी की भाँति चबाते हैं। अमृता ने यहाँ पुरुषों की उस पाशविक प्रवृत्ति की ओर ध्यान दिलवाया है, जहाँ वह अपने सामान स्त्री को नहीं समझता उसका अनादर करता है उसको छोटा समझता है उपन्यास की एक अन्य पात्र तारो लड़कियों की स्थिति पशुओं के समान मानती है जिसके स्वामी जब चाहें उसे किसी के भी हाथों सौंप दें। वह पूरो से कहती है, ’’ लड़कियों का क्या है, माँ बाप चाहे जिसके हाथ में उसके गले की रस्सी पकड़ा दें। ’ एक अन्य स्थान पर वह कहती है, ’’ मेरे मुँह पर ताला डाल दिया गया, मेरे पैरों में बेड़ी डाल दी गयी उसका क्या बिगड़ा। भगवान ने उसे बंधन में न डाला। उसे बाँधने के लिए भगवान जन्मा ही नहीं। सारी रस्सियाँ भगवान ने मेरे पैरों में ही डाल दीं। ’’ यहाँ रस्सियाँ उन सामाजिक मान्यताओं की सूचक हैं जिसके आधार पर लड़कियों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। तारो के माध्यम से अमृता ने सभी स्त्री जाति की वास्तविकता का चित्रण किया है। अमृता प्रीतम के स्त्री-पात्रों की यही तो विशेषता है कि वे शोषित भले ही हों किंतु अपने अधिकारों को समझती हैं और विरोध का साहस भी रखती हैं। तारो भी जानना चाहती है कि स्त्री‌-पुरुष सभी तो भगवान की समान संतान हैं, फिर समाज में इतना भेदभाव क्यों?

पूरो स्वयं शोषित है किंतु अन्य शोषितों के लिए उसके हृदय में अपार स्नेह है। तारो के प्रति भी उसकी विशेष सहानुभूति है। वह दूसरों की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहती है। अनाथ लड़की कम्मो को वह एक माँ की तरह स्नेह करती है, बटलोई में पानी ढोने में उसकी सहायता करती है, जूती नहीं होने पर उसे नयी जूती सिलवा कर देती है, अर्थात् दूसरों के सुख में अपना सुख तलाशती है। उसका जी चाहता है जी चाहता है कि वह सब अनाथों की माँ बन जाए। उसके मन में विचार आता है, ’’ वह जावेद (उसका पुत्र) की माँ है, वह कम्मो की माँ भी बन जाए, वह सब अनाथों की माँ बन जाए...। वह एक अच्छी पुत्री नहीं बन सकी थी, वह एक अच्छी माँ बन जाए...’’ मातृत्व का यही भाव एक स्त्री को पुरुष से श्रेष्ठ सिद्ध करता है। उसको इस धरती पर रहने वाले सबसे प्यार है।

पूरो के गाँव में एक पगली भी रहती थी। जब स्त्रियों को उस पागल के गर्भवती होने का पता चलता है तो उसकी दशा देखकर वे अत्यंत दुखी होती हैं। वे कहती हैं, ‘‘वह कैसा पुरुष था, वह अवश्य ही कोई पशु होगा, जिसने इस जैसी पागल स्त्री की यह हालत बना दी’’ जिसके पास न सुंदरता थी, न जवानी थी, ना माँस का एक शरीर, जिसे अपनी सुध न थी, जो केवल हड्डियों का एक जीवित पिंजर...। ” एक पागल पिंजर था...चीलों ने उसे भी नोच-नोच कर खा लिया...सोच-सोच कर पूरो थक जाती थी। ” पागल में भी पूरो स्वयं को ही देखती है, उसके दुख को अपना समझती है, पगली की मृत्यु के बाद उसके पुत्र को अपना लेती है, अपना दूध पिलाती है और अपने छोटे पुत्र के रूप में उसको देख भाल उसकी माँ बनकर करती है। वह प्रत्येक दुखी स्त्री के साथ बहनापे का अनुभव करती है। उनके दुख को देखकर पारो का हृदय भी दुखी हो जाता है। यही तो एक स्त्री की विशेषता है जो सम्पूर्ण दुनिया के सब जीवो में अपनापन ढूंढती है और एक डोर में बाँध लेती है सिर्फ इस कारण की वह सिर्फ दिल की भाषा समझती है और वही भाषा बोलती है। यहाँ पूरो का चरित्र बिल्कुल सार्थक है जो स्वयं शोषित होने के बावजूद आत्मविश्वास से भरपूर है तथा दूसरों के सेवा के लिए सहयता के लिए हमेशा तैयार है। १९४७ के विभाजन का दर्द सबसे अधिक औरतो ने ही झेला, चाहे वह स्त्री हिन्दू थी या मुस्लिम। विभाजन की त्रासदी की मार भी स्त्रियों पर ही अधिक पड़ी। हिंदुओं द्वारा मुसलमानों तथा मुसलमानों द्वारा हिंदुओं की स्त्रियों के साथ जबरदस्ती की गयी, कइयों को जान से मार डाला गया, कइयों को अपनी स्त्री बनाकर रख लिया गया, कइयों को नंगा करके गलियों और बाजारों में घुमाया गया, इस प्रकार विभाजन के दौरान स्त्रियों पर अनेक प्रकार के अत्याचार हुए। यह स्थिति सम्पूर्ण मानव जाति को शर्मसार करने वाली स्थिति रही है। ‘पूरो को लगता मानो इस संसार में जीना दूभर हो गया हो, मानो इस युग में लड़की का जन्म लेना ही पाप हो। ’पूरो की मनोभावना दर्शाते हुए अमृता लिखती है, ’’ पूरो के मन में कई प्रकार के प्रश्न उठते, पर वह उनका कोई उत्तर न सोच सकती। उसे पता नहीं चलता था कि अब इस धरती पर, जो कि मनुष्य के लहू से लथपथ हो गयी थी, पहले की भाँति गेहूँ की सुनहरी बालियाँ उत्पन्न होंगी या नहीं।.इस धरती पर, जिसके खेतों में मुर्दे सड़ रहे हैं, अब भी पहले की भाँति मकई के भुट्टों में से सुगंध निकलेगी या नहीं...क्या ये स्त्रियाँ इन पुरुषों के लिए अब भी संतान उत्पन्न करेंगी, जिन पुरुषों ने इन स्त्रियों के, अपनी बहनों के साथ ऐसा अत्याचार किया था...। ’’

अमृता प्रीतम स्वयं भी इसी तथ्य को स्वीकारती हैंउन्होंने अपनी आत्मकथा रसीदी टिकटमें लिखा है, औरत-मर्द के फर्क में न पड़कर मैंने अपने आपको हमेशा इंसान सोचा हैअमृता जी के बारे में प्रभाकर श्रोत्रिय की यह टिप्पणी बिल्कुल सही है जिसमें वे कहते हैं, एक बहुमुखी प्रतिभा से भरी, संवेदनशील, विस्तृत फलक की मार्मिक सर्जक के उठ जाने का ग़म पाठक और लेखक समाज को सालता रहेगावे जितनी पंजाबी की थीं उतनी ही हिंदी की थींउन्हें मौलिक लेखक की तरह हिंदी पाठक ने पढ़ा और उनसे अभिभूत हुआवे अपनी रचना-देह में इस वक्त भी मौजूद हैंअपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण अमृता प्रीतम की अधिकांश रचनाओं की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. उनके लिखे चरित्र उनकी ज़िन्दगी से अलग नहीं, जैसे उनका लिखा यह यह पंक्ति दिल में गहरा असर छोड़ जाती है | और याद आती है उनकी लिखी वह घटना जहाँ उन्होंने लिखा कि आज से लगभग चालीस साल पहले की एक रात | मेरे विवाह की रात, जब मैं मकान की छत पर जा कर अंधेरे में बहुत रोई थी | मन में केवल एक ही बात आती थी, अगर मैं किसी तरह मर सकूँ तो ? पिता जी को मेरे मन की दशा ज्ञात थी, इस लिए मुझे तलाश करते हुए वह ऊपर आ गए | मैंने एक ही मिन्नत की, मैं विवाह नही करुँगी |

बरात आ चुकी थी रात का खाना हो चुका था कि पिता जी को एक संदेश मिला की अगर कोई रिश्ते दार पूछे तो कह देना कि आपने इतने हज़ार रुपया नकद भी दहेज़ में दिया है |

इस विवाह से मेरे पिता जी को गहरा संतोष था, मुझे भी पर इस सन्देश को पिता जी ने एक इशारा समझा | उनके पास इतना नकद रुपया हाथ में नहीं था इस लिए घबरा गए | मुझसे कहा | बस इसी कारण मेरे मन में यह विचार आया कि काश आज की रात में मर सकूँ |

कई घन्टों कि हमारी इस घबराहट को उस रात मेहमान के तौर पर आई मेरी मृत माँ की सहेली ने पहचान लिया और अकेले में हो कर अपने हाथ की सारी चूडियाँ उतार कर मेरे पिता जी के सामने रख दी | पिता जी की आँख भर आई | पर यह सब देखना मुझे मरने से भी ज्यादा मुश्किल लगा …

फ़िर मालूम हुआ, यह संदेशा किसी प्रकार का इशारा नही था, उन्होंने नकद रुपया नहीं चाहा था, सिर्फ़ कुछ रिश्तदारों की तस्सली के लिए यह बात फैला दी थी | माँ की सहेली ने वह चूडियाँ फ़िर हाथों में पहन ली | पर मुझे ऐसा लगा कि वह चूडियाँ उतराने का क्षण दुनिया की अच्छाई के रूप में वही कहीं एक प्रतीक बन कर ठहर गया है | विश्वास टूटते हुए देखती हूँ, परन्तु निराशा मन के अंत तक नही पहुंचती है | इधर ही कहीं राह में रुक जाती है, और उसके आगे मन के अन्तिम छोर के निकट दुनिया की अच्छाई का विशवास बचा रह जाता है...

चलते चलते आज की इस सीरिज में उनकी एक नज्म जो बहुत कुछ कह जाती है।

बरसों की आरी हंस रही थी

घटनाओं के दांत नुकीले थे

अकस्मात एक पाया टूटा

आसमान की चैकी पर से

शीशे का सूरज फिसल गया

आंखों में कंकड़ छितरा गए

और नजर जख्मी हो गई

कुछ दिखायी नही देता

दुनिया शायद अब भी बसती होगी

***