आधी नज्म का पूरा गीत - 4 Ranju Bhatia द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आधी नज्म का पूरा गीत - 4

आधी नज्म का पूरा गीत

रंजू भाटिया

Episode 4

अलका चरित्र में खुद से मिलना

अमृता के लिखे नावल में मुझे ३६ चक बहुत पसंद है। यह उपन्यास अमृता ने १९६३ में लिखा था जब यह १९६४ में छपा तो यह अफवाह फैल गई कि पंजाब सरकार इसको बेन कर रही है। पर ऐसा कुछ नही हुआ। यह १९६५ में हिन्दी में नागमणि के नाम से छपा और १९६६ उर्दू में भी प्रकाशित हुआ। जब इस उपन्यास पर पिक्चर बनाने की बात सोची गई तो रेवती शरण शर्मा ने कहा की यह उपन्यास समय से एक शताब्दी पहले लिखा गया है. हिन्दुस्तान अभी इसको समझ नही पायेगा। और बासु भटाचार्य जी ने कहा की यदि इस पर पिक्चर बनी तो यह हिन्दुस्तान की पहली एडल्ट पिक्चर होगी। बाद में इसको १९७४ में अमृता जी की एक दोस्त ने इसको अंगेरजी में अनुवाद किया

यह पूरा उपन्यास दो तरह से दृष्टिकोण पेश करता है। कुमार का पात्र अपनी शारीरिक आवश्यकता को अपने समूचे व्यक्तित्व से तोड़ कर देखता है। और अलका का पात्र उसे स्वयं की पहचान में से और स्वयं के मूल्यों और कद्रों से जोड़ कर। इस में अलका दोनों ही पहलुओं के टकराव में अडोल.सहज हो कर अपने बल पर अडिग रहती है और कुमार अपनी पहचान खोजता हुआ टूट टूट कर जुड़ता है और जुड़ जुड़ कर टूटता है। इस उपन्यास की कुछ पंक्तियाँ इस उपन्यास के स्त्री चरित्र अलका और कुमार दोनों की सोच बताती हैं। कुमार मेज पर कागज को ध्यान से देख रहा था। आज इतनी खुशबु कहाँ से आ रही है ? कुछ इस तरह से उसने पूछा जैसे वह खुशबु को कागज पर तलाश रहा हो।

अलका ने भी तस्वीर की और गर्दन घुमाई और फिर तस्वीर की लड़की के बालों में टंगे हुए फूलों की और देखती हुई बोली। इन फूलों से आ रही होगी खुशबु

अलका के हाथ से काफी पकड़ते हुए कुमार ने हंसते हुए कहा अभी मैंने अपना होश इतना नहीं खोया है कि कागज पर बनाए हुए फूलों से मुझे खुशबु आने लगे

अलका चुप साधे रही। उसने दीवान के पाए के पास पड़ी हुई चौकी की और देखा जैसे कह रही हो कि इतना होश जरुर जाता रहा है कि कमरे में पड़े हुए ताजे फूल अभी तक न दिखाई दिए हों। यह फूल अलका ने सुबह आते हो कमरे में सजा दिए थे।

ओह्ह!! कुमार ने होश में होने का दावा वापस लिया और काफी का गर्म घूंट भरते हुए कहने लगा। पर यह आदत नहीं डालनी चाहिए थी।

कैसी आदत ?

काफी की आदत। फूलों की आदत। और ? पैसों की आदत। शोहरत की आदत। औरत की आदत और अपने आप की आदत ?

क्या मतलब ?

अपने आप की भी आदत नहीं डालनी चाहिए कभी किसी माइकल एन्जेलों को माइकल एन्जेलों रहना चाहिए। और कभी उसको किसी बाजार के एक कोने में बैठा हुआ हलवाई भी बन जाना चाहिए.कभी नमक तेल बेचने वाला बनिया और कभी पान बीडी बेचने वाला।

कुमार हंस दिया. तुम समझ नहीं पायी हो अलका ! एक अपने आपकी आदत भर के लिए बाकी कोई आदत नहीं डालनी चाहिए। मैं सोचा हूँ कि अपने आपकी पूरी आदत केवल तभी पड़ सकती है जब आदमी बाकी आदतों से मुक्त हो जाय

यह मैं मानती हूँ पर मेरे विचार में शोहरत और औरत में बहुत फर्क होता है

किसी आदत और आदत में कोई अंतर नहीं मैं एक बार।

चुप क्यूँ हो गए ?

तुम्हारी जगह अगर कोई दूसरी लड़की होती तो मैं शायद चुप रहता किसी को भी कुछ बताने की मुझे कोई जरूरत नहीं पड़ी। जरूरत अब भी नहीं है बताने की। शायद बताने में कोई हर्ज भी नहीं। तुम मुझे गलत समझोगी ष्

मुझे खुद पर भरोसा है

मैं यह बताने चला था कि एक बार मुझ में ऐसी भूख जगी कि मैं कई दिन तक सो ना सका। यह सिर्फ जिस्म की भूख थी, एक औरत के जिस्म की भूख। पर मैं किसी भी औरत के साथ अपनी जिन्दगी के साल बंधने को तैयार नहीं था। कभी भी तैयार नहीं हो सकता.इस लिए मैं एक ऐसी औरत के पास जाता रहा जो रोज बीस रूपये लेती थी और मेरी स्वंत्रता कभी नहीं मांगती थी।

अलका ने कुछ नहीं कहा.सिर्फ नजरे गढा कर कुमार के चेहरे को देखती रही।

तुम मेरे मन की बात समझी हो क्या ?

हाँ

या तुम सोचती हो कि मैं अच्छा आदमी नहीं हूँ ?

नहीं मैं ऐसा कुछ नहीं सोचती हूँ

पर तुम कुछ सोच रही हो।

हाँ

क्या ?

कि मैं वह औरत होती जिसके पास आप रोज बीस रूपये दे कर जाया करते थे

अलका !!

कुमार के हाथ में पकडा हुआ काफी का कप कांप गया पर अलका उसी तरह निष्कम्प खड़ी रही जिस तरह से पहले खड़ी थी। कुमार घबरा कर दीवान पर बैठ गया।

हाँ तो मैं कह रही थी कि औरत और शोहरत में बहुत बड़ा फर्क होता है।

मैं समझा नहीं ?

शोहरत किसी को अपने आपको समझने में मदद नहीं करती और न ही ऐसा पैसा करता है पर औरत किसी को अपने आपको समझने में उसी तरह मदद करती है किस तरह से किसी की कला उसकी मदद करती है

कला व्यक्ति का ही एक अंग होती है अपनी आँखों की तरह या अपनी जुबान की तरह शायद इस से भी अधिक यह आँखे नहीं आँखों की नजर होती नजर भी नहीं एक नुक्ता नजर होती हैं।

मेरा नुक्ता नजर बिलकुल अलग है अलका !

वह मैं जानती हूँ।

यह तुम्हारे नुक्ता नजर से मेल नहीं खा सकता

शायद

शायद नहीं यह सच है

मैंने यहाँ कहा भी नहीं कि यह कभी मेल खा जाए

फिर

मैंने कुछ नहीं कहा।

पर तुमें यह क्यों कहा कि तुम।

रुपये कमाने के लिए।

यह कह कर अलका हंस पड़ी पर कुमार की हंसी उसके गले में अटक कर रह गयी

क्यों यह क्या काम है बीस रुपये रोज के

तुम सी गंभीर लड़की

मैं सच मुच गंभीर हूँ

हाँ अपने काम में सच ही।

मैं जिन्दगी में भी वैसी ही हूँ

फिर तुमने यह बात कैसे कही

इस लिए कि मैं बहुत गंभीर हूँ

वह गंभीर बात है ?

इतनी कि इस से अधिक गंभीर कोई और बात हो ही नहीं सकती है ष्

मैं इसको यूँ नहीं समझ पाऊंगा अलका ! नहीं तो दिल में दुखी होता रहूँगा.

फिर भूल जाये कि मैंने यह बात कही थी

तुम भूल सकोगी इस बात को ?

मैं कभी याद नहीं दिलाउंगी

हम रोज वैसे ही काम करेंगे जैसे करते हैं

हम रोज वैसे ही काम करेंगे जैसे करते हैं

हम कभी व्यक्तिगत बाते नहीं करेंगे

हम कभी व्यक्तिगत बाते नहीं करेंगे

हम सिर्फ अपने काम से वास्ता रखेंगे

हम सिर्फ अपने काम से वास्ता रखेंगे

तुम मेरी जिन्दगी में कोई दखल नहीं दोगी

मैं आपकी जिन्दगी में कभी कोई दखल नहीं दूंगी

विशेषकर मोहब्बत की कोई बात नहीं करोगी

विशेषकर मोहब्बत की कोई बात नहीं करुँगी

अलका !

जी !

तुम यूँ क्यों बोलती जा रही हो जैसे कोई बच्ची मास्टर के सामने दो दुनी चार का पहाडा पढ़ रही हो.तुम सीरियस क्यों नहीं हो ?

मैं बिलकुल सिरियस हूँ। मैं सारे वचन इस तरह से दोहरा रही हूँ जैसे गुरु से कोई मन्त्र लेते समय गुरु के शब्दों को दोहराता है

कुमार ने परेशान हो कर अपने माथे को मला और कहा कि मैं तुम्हे बिलकुल नहीं समझ सका हूँ अलका !

पर मैं आपको समझ सकती हूँ !

और उस रात से पहले जब भी कुमार को किसी औरत का सपना आता था तो उसका कोई चेहरा नहीं होता था पर उस रात जो सपना आया उस में उसको औरत का चेहरा दिखाई दिया उसने उस चेहरे को पहचाना था और उसको डर था कि कहीं यह पहचान उसकी तलाश ना बन जाये। तलाश हमेशा रिश्ते को बांधती है और वह अपनी कला के सिवा किसी चीज से कोई रिश्ता नहीं बांधना चाहता था।

जब कुमार अलका को बताता है की वह सिर्फ अपने शरीर के लिए बाहर जाता है जो रोज बीस रूपये लेती थी.तो अलका कहती है की सोच रही की काश वह औरत मैं होती। जब यह उपन्यास लिखा अमृता ने तो यह पंक्ति वही थी जो कभी इमरोज ने अमृता से कही थी। उनके लिखे में ख़ुद से जुड़े लम्हों की बात होती थी, तभी वह सहज रूप से हर बात कह जाती थी। जो शब्द अलका ने उपन्यास में कहे। वह लफ्ज अमृता ने इमरोज को कहे थे। और यह लफ्ज सिर्फ अमृता ही कह सकती है अस्वाभाविक हालत की स्भाविकता शायद और किसी औरत के लिए संभव नही हो सकती.अलका ही सिर्फ अमृता हो सकती है और अमृता ही सिर्फ अलका। हर पात्र लेखक के साथ गहरा जुडा होता है। अलका का पात्र रचते हुए वह अमृता के साथ जुड़ी रही। उसी को संबोधित करते हुए अमृता ने एक कविता लिखी.यही एक ऐसी कविता है जो अमृता ने अपने किसी पात्र को संबिधित करके लिखी। इसका नाम रखा उन्होंने पहचान।

कई हजार चाबियाँ मेरे पास थी

और एक -एक चाबी एक एक दरवाजे को खोल देती थी

दरवाजे के अन्दर किसी की बैठक भी होती थी

और मोटे परदे में लिपटा किसी का सोने का कमरा भी

और घरवालों का दुःख

जो उनके होते थे, पर किसी समय मेरे भी होते थे

मेरी छाती की पीड़ा की तरह

पीड़ा, जो दिन के समय जागूं तो, जाग पड़ती थी,

और रात के समय सपनों में उतर जाती थी,

पर फिर भी

पैरों के आगे, रक्षा की रेखा जैसी.एक लक्ष्मण रेखा होती थी

और जिसकी बदौलत में जब चाहती थी

घरवालों के दिख घरवालों को दे कर

उस रेखा में लौट जाती थी

और आते समय लोगों के आंसूं लोगों को सौंप आती थी।

देख जितनी कहनियाँ और उनके पात्र हैं !

उतनी ही चाबियाँ मेरे पास थी

और जिनके पीछे

हजारों ही घर, जो मेरे नहीं, पर मेरे भी थे,

शायद वे अब भी है

पर आज एक चाभी का कौतुक

मैंने तेरे घर को खोला तो देखा

वह लक्ष्मण रेखा मेरे पैरों के आगे नहीं, पीछे हैं

और सामने, तेरे सोने के कमरे में.तू नहीं मैं हूँ।...

अमृता के जीवन में जो भी लम्हा गुजरा वह उनके लिखे में शामिल हो गया। कभी कविता बन कर। कभी कोई कहानी बन कर। इमरोज से मिलना और दोस्ती का प्यार में बदलना। हर लम्हा उनकी किसी न किसी वाकये में लिखा गया है। यह वाकया उन्होंने.३६ चक में लिखा। इन किरदारों में अमृता और इमरोज जैसे जीवंत हो उठे।.

जब इमरोज उनकी जिन्दगी में सिर्फ अभी दोस्त बन कर आए थे। तब एक बार और कई लोग शिमला गए थे, रास्ते में चंडीगढ़ के पिंजौर में रात बितायी। वहां से सुबह जब चलना शुरू किया तो एक रास्ते पर एक लम्बी पगडण्डी दिखायी दी। किसी ने कहा कि यहीं आगे एक नदी आएगी जिसका नाम कौशल्या नदी है उसका पानी बहुत शफाक है। और जब वो जगह सबने देखी तो देखते रह गए।. उसका पानी और चमकते सूरज में और भी चमक रहा था। सब ने नहाने का प्रोग्राम बना लिया। और जिस जगह इमरोज नहा रहे थे उसी सीध में थोड़ा नीचे पानी में उतर कर अमृता भी नहाने लगीं। वह पानी इमरोज को छू कर, परस कर आ रहा था। वह दूर से देख लेती और अगर इमरोज ने उस जगह से थोडी भी दूरी बना ली होती, दायें या बाएँ वह भी उतने ही दूर उसी की सीध में हो लेती।

यूँ किसी के बदन का पानी परसना क्या होता है..वही जानते हैं जो हवाओं को भी दिशा बदलने को कहते हैं ष्ष्बह री हवा पर। स्वार्थ से भरी हुई, तू जाना तख्त हजारे ष्ष् और हवाएं भी दिशा बदल कर चल देती है।

हर साँस इसके होंठों का आज बैचेन है

पर हर मोहब्बत गुजरती जिस राह से

वह शायद उसी राह से हो कर आई है।

और इस तरह कई बेरागी आत्माएं कागों के हाथो अपना संदेशा भेजती रही है सदियों से। वह सारी आत्माएं अपनी सी लगती है। कुछ कहती हुई। हवा के रुख को बदलती हुई। औरत जब प्यार करती है तो रूह से जुड़ जाती है, प्रेम में डूबी हर स्त्री अमृता होती है या फिर होना चाहती है. पर सबके हिस्से कोई इमरोज नहीं होता, शायद इसलिए भी कि इमरोज होना आसान नहीं. खासकर हमारी सामाजिक संरचना में एक पुरुष के लिए यह खासा मुश्किल काम है. किसी ऐसी स्त्री से से प्रेम करना और उस प्रेम में बंधकर जिन्दगी गुजार देना, जिसके लिए यह पता हो कि वह आपकी नहीं है.

***