आधी नज्म का पूरा गीत
रंजू भाटिया
Episode ८
ज़िन्दगी के चटख रंग हो हर स्त्री के जीवन में
अगला चरित्र उनकी एक कहानी बृहस्पतिवार का व्रत’ व्रत पूजा को ले कर है इसके बारे में अमृता लिखती हैं बृहस्पतिवार का व्रत’ कहानी उस ज़मीन पर खड़ी है, जिससे मैं वाकिफ नहीं थी। एक बार एक अजनबी लड़की ने आकर मिन्नत-सी की कि मैं उसकी कहानी लिख दूँ। और एक ही साँस में उसने कह दिया—‘मैं कॉलगर्ल हूँ। ’ उसी से, तन-बदन बेचने वाली लड़कियों के रोज़गार का कुछ अता-पता लिया, और उसके अंतर में पलती हुई उस पीड़ा को जाना, जो घर का एक स्वप्न लिए हुए, मन्नत-मुराद माँगती हैं किसी आने वाले जन्म के लिए....
आज बृहस्पतिवार था, इसलिए पूजा को आज काम पर नहीं जाना था…
बच्चे के जागने की आवाज़ से पूजा जल्दी से चारपाई से उठी और उसने बच्चे को पालने में से उठाकर अपनी अलसाई-सी छाती से लगा लिया, ‘‘मन्नू देवता ! आज रोना नहीं, आज हम दोनों सारा दिन बहुत-सी बातें करेंगे...सारा दिन....’’
यह सारा दिन पूजा को हफ्ते में एक बार नसीब होता था। इस दिन वह मन्नू को अपने हाथों से नहलाती थी, सजाती थी, खिलाती थी और उसे कन्धे पर बिठाकर आसपास के बगीचे में ले जाती थी।
यह दिन आया का नहीं, माँ का दिन होता था…
कन्धे से कसकर चिपटे हुए मन्नू को वह हाथ से दुलारती हुए कहने लगी, ‘‘हर रोज तुम्हें छोड़कर चली जाती हूँ न...जानते हो कहाँ जाती हूँ ? मैं जंगल में से फूल तोड़ने नहीं जाऊँगी, तो अपने देवता की पूजा कैसे करूँगी ?’’
और पूजा के मस्तिष्क में बिजली के समान वह दिन कौंध गया, जब एक ‘गेस्ट हाउस’ की मालकिन मैडम डी. ने उसे कहा था—‘‘मिसिज़ नाथ ! यहाँ किसी लड़की का असली नाम किसी को नहीं बताया जाता। इसलिए तुम्हें जो भी नाम पसन्द पसन्द हो रख लो। ’’
और उस दिन उसके मुँह से निकला था—‘‘मेरा नाम पूजा होगा। ’’
गेस्ट हाउस वाली मैडम डी. हँस पड़ी थी—‘‘हाँ, पूजा ठीक है, पर किस मन्दिर की पूजा ?’’और उसने कहा था—‘‘पेट के मन्दिर की। ’’क्या तुम जानते हो, मैंने अपने पेट को उस दिन मन्दिर क्यों कहा था ? जिस मिट्टी में से किसी देवता की मूर्ति मिल जाए, वहाँ मन्दिर बन जाता है—तू मन्नू देवता मिल गया तो मेरा पेट मन्दिर बन गया....’’
और मूर्ति को अर्ध्य देने वाले जल के समान पूजा की आँखों में पानी भर आया, ‘‘मन्नू, मैं तुम्हारे लिए फूल चुनने जंगल में जाती हूँ। बहुत बड़ा जंगल है, बहुत भयानक, चीतों से भरा हुआ, भेड़ियों से भरा हुआ, साँपों से भरा हुआ...’’
और पूजा के शरीर का कंपन, उसकी उस हथेली में आ गया, जो मन्नू की पीठ पर पड़ी थी...और अब वह कंपन शायद हथेली में से मन्नू की पीठ में भी उतर रहा था।
मन्नू जब खड़ा हो जाएगा, जंगल का अर्थ जान लेगा, तो माँ से बहुत नफरत करेगा—तब शायद उसके अवचेतन मन में से आज का दिन भी जागेगा, और उसे बताएगा कि उसकी उस हथेली में आ गया, जो मन्नू की पीठ पर पड़ी थी...और अब वह कंपन शायद हथेली में से मन्नू की पीठ में भी उतर रहा था।
मन्नू जब खड़ा हो जाएगा, जंगल का अर्थ जान लेगा, तो माँ से बहुत नफरत करेगा—तब शायद उसके अवचेतन मन में से आज का दिन भी जागेगा, और उसे बताएगा कि उसकी माँ किस तरह उसे जंगल की कहानी सुनाती थी—जंगल की चीतों की, जंगल के भेड़ियों की और जंगल के साँपों की—तब शायद....उसे अपनी माँ की कुछ पहचान होगी।
पूजा ने राहत और बेचैनी का मिला-जुला साँस लिया। उसे अनुभव हुआ जैसे उसने अपने पुत्र के अवचेतन मन में दर्द के एक कण को अमानत की तरह रख दिया हो....पूजा ने एक नज़र कमरे के उस दरवाजे की तरफ देखा—जिसके बाहर उसका वर्तमान बड़ी दूर तक फैला हुआ था.…
शहर के कितने ही गेस्ट हाउस, एक्सपोर्ट के कितने ही कारखाने, एअर लाइन्स के कितने ही दफ्तर और साधारण कितने ही कमरे थे, जिनमें उसके वर्तमान का एक-एक टुकड़ा पड़ा हुआ था....परन्तु आज बृहस्पतिवार था—जिसने उसके व उसके वर्तमान के बीच में एक दरवाज़ा बन्द कर दिया था।
बन्द दरवाज़े की हिफाजत में खड़ी पूजा को पहली बार यह खयाल आया कि उसके धन्धे में बृहस्पतिवार को छुट्टी का दिन क्यों माना गया है ?
इस बृहस्पतिवार की गहराई में अवश्य कोई राज़ होगा—वह नहीं जानती थी, अतः खाली-खाली निगाहों से कमरे की दीवारों को देखने लगी…
इन दीवारों के उस पार उसने जब भी देखा था—उसे कहीं अपना भविष्य दिखाई नहीं दिया था, केवल यह वर्तमान था...जो रेगिस्तान की तरह शहर की बहुत-सी इमारतों में फैल रहा था....और पूजा यह सोचकर काँप उठी कि यही रेगिस्तान उसके दिनों से महीनों में फैलता हुआ—एक दिन महीनों से भी आगे उसके बरसों में फैल जाएगा।
और पूजा ने बन्द दरवाज़े का सहारा लेकर अपने वर्तमान से आँखें फेर लीं।
उसकी नज़रें पैरों के नीचे फर्श पर पड़ीं, तो बीते हुए दिनों के तहखाने में उतर गईं। तहखाने में बहुत अँधेरा था....बीती हुई ज़िन्दगी का पता नहीं क्या-क्या, कहाँ-कहाँ पड़ा हुआ था, पूजा को कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।
परन्तु आँखें जब अँधेरे में देखने की अभ्यस्त हुईं तो देखा—तहखाने के बाईं तरफ, दिल की ओर, एक कण-सा चमक रहा था।
पूजा ने घुटनों के बल बैठकर उसे हाथ से छुआ।
उसके सारे बदन में एक गरम-सी लकीर दौड़ गई और उसने पहचान लिया—यह उसके इश्क का ज़र्रा था, जिसमें कोई आग आज भी सलामत थी। और इसी रोशनी में नरेन्द का नाम चमका—नरेन्द्रनाथ चौधरी का जिससे उसने बेपनाह मुहब्बत की थी।
और साथ ही उसका अपना नाम भी चमका—गीता, गीता श्रीवास्तव।
वह दोनों अपनी-अपनी जवानी की पहली सीढ़ी चढ़े थे—जब एक-दूसरे पर मोहित हो गए थे। परन्तु चौधरी और श्रीवास्तव दो शब्द थे-जो एक-दूसरे के वजूद से टककरा गए थे
उस समय नरेन्द्र ने अपने नाम से चौधरी व गीता ने अपने नाम से श्रीवास्तव शब्द झाड़ दिया था। और वह दोनों टूटे हुए पंखों वाले पक्षियों की तरह हो गए थे।
चौधरी श्रीवास्तव दोनों शब्दों की एक मजबूरी थी—चाहे-अलग-अलग तरह की थी। चौधरी शब्द के पास अमीरी का गुरूर था। इसलिए उसकी मजबूरी उसका यह भयानक गुस्सा था, जो नरेन्द्र पर बरस पड़ा था। और श्रीवास्तव के पास बीमारी और गरीबी की निराशा थी—जिसकी मजबूरी गीता पर बरस पड़ी थी, और पैसे के कारण दोनों को कॉलेज की पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी।
और जब एक मन्दिर में जाकर दोनों ने विवाह किया था, तब चौधरी और श्रीवास्तव दोनों शब्द उनके साथ मन्दिर में नहीं गए थे। और मन्दिर से वापस लौटते कदमों के लिए चौधरी-घर का अमीर दरवाज़ा गुस्से के कारण बन्द हो गया था और श्रीवास्तव-घर का गरीबी की मजबूरी के कारण। फिर किसी रोज़गार का कोई भी दरवाज़ा ऐसा नहीं था, जो उन दोनों ने खटखटाकर न देखा हो। सिर्फ देखा था कि हर दरवाज़े से मस्तक पटक-पटककर उन दोनों मस्तकों पर सख्त उदासी के नील पड़ गए थे।
रातों को वह बीते हुए दिनों वाले होस्टलों में जाकर, किसी अपने जानने वाले के कमरे में पनाह माँग लेते थे और दिन में उनके पैरों के लिए सड़कें खुल जाती थीं।
वही दिन थे—जब गीता को बच्चे की उम्मीद हो आई थी।
और जो नौकरी उसको मिलती है वह कहानी को आज से जुड़े वक़्त के हालात से जोड़ देती है जहाँ ‘‘औरत चाहे वेश्या भी बन जाए परन्तु उसके संस्कार नहीं मरते। यह दिन औरत के लिए पति का दिन होता है। पति व पुत्र के नाम पर वह व्रत भी रखती है, पूजा भी करती है—‘‘छः दिन धन्धा करके भी वह पति और पुत्र के लिए दुआ माँगती है...’’
शबनम को बैठने के लिए कहते हुए पूजा ने ठण्डी साँस ली, ‘‘कभी-कभी जब रात का खसम नहीं मिलता, तो अपना दिल ही अपना खसम बन जाता है, वह कम्बख्त रात को जगाए रखता है...। ’’शबनम हँस पड़ी, और दीवान पर बैठते हुए कहने लगी, ‘‘पूजा दीदी ! दिल तो जाने कम्बख्त होता है या नहीं, आज का दिन ही ऐसा होता है, जो दिल को भी कम्बख्त बना देता है। देख, मैंने भी तो आज पीले कपड़े पहने हुए हैं और मन्दिर में आज पीले फूलों का प्रसाद चढ़ाकर आई हूँ...। ’’‘‘आज का दिन ? क्या मतलब ?’’ पूजा ने शबनम के पास दीवान पर बैठते हुए पूछा। ‘‘आज का दिन, बृहस्पतिवार का। तुझे पता नहीं ?’’तू हमेशा यह बृहस्पतिवार का वृत रखती है ?’’‘‘हमेशा...आज के दिन नमक नहीं खाती, मन्दिर में गुण और चने का प्रसाद चढ़ाकर केवल वही खाती हूँ...बृहस्पति की कथा भी सुनती हूँ, जप का मन्त्र भी लिया हुआ है....और भी जो विधियाँ हैं...’’शबनम कह रही थी, जब पूजा ने प्यार से उसे अपनी बाँहों में ले लिया और पूछने लगी—‘‘और कौन-सी विधियाँ ?’’
शबनम हँस पड़ी, ‘‘यही कि आज के दिन कपड़े भी पीले ही रंग के होते हैं, उसी का दान देना और वही खाने....मन्त्र की माला जपने और वह भी सम में....इस माला के मोती दस, बारह या बीस की गिनती में होते हैं। ग्यारह, तेरह या इक्कीस की गिनती में नहीं—यानी जो गिनती—जोड़ी-जोड़ी से पूरी आए, उसका कोई मनका अकेला न रह जाए...’’
शबनम की आँखों में आँसू आने को थे कि वह ज़ोर से हँस पड़ी। कहने लगी, ‘‘इस जन्म में तो यह ज़िन्दगी का मनका अकेला रह गया है, पर शायद अगले जन्म में इसकी जोड़ी का मनका इसे मिल जाए...’’ और पूजा की ओर देखते हुए कहने लगी, ‘‘जिस तरह दुष्यन्त की अँगूठी दिखाकर शकुन्तला ने उसे याद कराया था—उसी तरह शायद अगले जन्म में मैं इस में मैं इस व्रत-नियम की अँगूठी दिखाकर उसे याद करा दूँगी कि मैं शकुन्तला हूँ...’’
पूजा की आँखे डबडबा आई..आज से पहले उसने किसी के सामने ऐसे आँखे नहीं भरी थी कहने लगी तू जो शाप उतार रही है, वह मैं चढ़ा रही हूँ..मैंने इस जन्म में पति भी पाया, पुत्र भी..पर..
सच तेरे पति को बिलकुल मालुम नहीं ? शबनम से हैरानी से पूछा बिलकुल पता नहीं..जब मैंने यह कहा था की मुझे दूतावास में काम मिल गया है तब बहुत डर गयी थी जब उसने दूतावास का नाम पूछा था उस समय एक बात सूझ गयी मैंने कहा की मुझे एक जगह बैठने का काम नहीं मिला है काम इनडरेक्ट है मुझे कई कम्पनियों में जाना पड़ता है उनसे इश्तिहार लाने होते हैं...जिन में इतनी कमीशन मिल जाती है जो ऑफिस में बैठने में नहीं मिलती..पूजा ने बताया और कहने लगी वह बहुत बीमार था इस लिए हमेशा डाक्टरों और दवाई की बाते होती रहती थी...फिर डाकटर ने उसको सोलन भेज दिया हस्पताल में क्यों की घर में रहने से बच्चो को बीमार होने का खतरा रहता..इस लिए अभी तक शक का कोई मौका नहीं मिला उसको। यह कहानी अंत तक पहुँचते आत्मा तक को झंझोर देती है। ठीक इन लिखी पंक्तियों की तरह ज़िन्दगी के उन अर्थों के नाम—जो पेड़ों के पत्तों की तरह चुपचाप उगते हैं और झड़ जाते हैं
अमृता रोती गिडगिड़ाती भी नहीं, आम स्त्री की तरह शिकवे-शिकायत भी नहीं करतीं. यह प्रेम के साथ अना यानी खुद्दारी की भी बात जो ठहरी. इस दौर में वे अपनी जिंदगी के सुनसान और उदास दिनों के अकेलेपन से चुपचाप गुजरती जाती हैं. यूं ही नहीं है कि एक दौर की पढ़ी लिखी लड़कियों के सिरहाने अमृता की रसीदी टिकट हुआ करती थी. यही नहीं, उनके जीने-रहने के तौर-तरीके भी बाकोशिश कॉपी किए जाते रहे. अमृता आजाद ख्याल इन लड़कियों का रोल मॉडल रही हैं और सबसे खास बात है कि इन ज्यादातर लड़कियों के लिए वे उनके क्षेत्र या भाषा की लेखिका नहीं थीं. अमृता का यह आकर्षण उन्हें खास बनाता है जिसने भाषा की दीवारों के परे भी उनके शब्दों के पंखों को खुला आकाश दे दिया था.
अमृता प्रेम और आजादी को एक साथ घोलकर इससे बनने वाला गाढ़ा चटख रंग स्त्रियों के जीवन में चाहती थीं. इसके सपने भी वे खुद दिन-रात देखती थीं
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