आधी नज्म का पूरा गीत - 19 Ranju Bhatia द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आधी नज्म का पूरा गीत - 19

आधी नज्म का पूरा गीत

रंजू भाटिया

episode 19

ज़िन्दगी धूप का एक टुकडा

अमृता की कविता एक जादू है.उनकी कविता में जो अपने आस पास की झलक मिलती है वह रचना अपनी यात्रा में अंत तक अपना बुनयादी चिन्ह नही छोड़ती है..वह अपने में डूबो लेती है.अपने साथ साथ उस यात्रा पर ले चलती है.जिस पर हम ख़ुद को बहुत सहज सा अनुभव करते हैं....आज उनकी कुछ कविताओं से ख़ुद को जोड़ कर देखते हैं....उनकी एक कविता है ""धूप का टुकडा ""मुझे वह समय याद है --

जब धूप का एक टुकडासूरज की उंगली थाम करअंधेरे का मेला देखताउस भीड़ में खो गया..

अब इस में जो तस्वीर उभर कर आती है वह यह है कि धूप का टुकडा एक बच्चा है..अंधेरे का मेला देखने चला गया था परन्तु वह अंधेरे में ही कहीं गुम हो गया | अभी इस चिन्ह की तहे खोलने की जरुरत नही हैं | यह एक हिन्दुस्तानी मेला है और एक मेले में वह बच्चा गुम हो गया है जो अमृता का कुछ नही लगता.पर बच्चा तो जहाँ प्यार देखेगा वहां का हो जायेगा इस लिए वह अमृता के साथ हो लिया है

सोचती हूँ : सहम काऔर सूनेपन का एक नाता हैमैं इसकी कुछ नही लगतीपर इस खोये बच्चे नेमेरा हाथ थाम लिया है..हम जब यह कविता पढ़ रहे हैं तो महसूस करते हैं कि बच्चे ने अमृता का हाथ पकड़ा जरुर है पर वह डरा हुआ है..यही इस कविता के अन्दर के एहसास से मिलवा देता है पढने वाले को भी..अँधेरा है....मेले के शोर में भी एक चुप्पी, एक खामोशी है..उसके बाद वाली पंक्तियाँ जैसे हमारे दिल की बात कह देती है...और तुम्हारी याद इस तरहजैसे धूप का एक टुकडा....जिसकी यादो से वह जुड़ी है उसी तरह हम भी किसी न किसी अपनी प्यारी याद से जुड़े हुए हैं..तेरी याद तो तेरी है.अंधेरे के मेले में तुझ से बिछड कर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया..तेरी याद मेरे पास है परन्तु वह मुझसे बहलती नहीं है क्यों कि मैं उसकी भला क्या लगती हूँ..और फ़िर वह कहती है...तुम कहीं नही मिलतेहाथ को हाथ छू रहा है..धूप का टुकडा सूरज से बिछड गया और सूरज कहीं मिलता नही..किसी मेले में किसी को तलाश करना आसान काम नही है...इस पूरी कविता में कोई मेले का चित्र यूँ नही बना है पर पढने वाला उस से ख़ुद को जोड़ लेता है...क्यों कि वह जो भी लिखती है वह हमारे आस पास का का है.घर है,.गांव है, इसलिए पढने वाले, अमृता से प्यार करने वाले अमृता से ख़ुद का जुडाव महसूस करते हैं..सूरज अमृता का बहुत प्यारा है.परन्तु आसमान के सूरज को घर बुलाए बिना अमृता उसको अपनी कविता में नही आने देती है...आज सूरज ने कुछ घबरा कररोशनी की एक खिड़की खोलीबादल की एक खिड़की बंद कीऔर अंधेरे की सीढियां उतर गयायह सूरज केवल सूरज नहीं हैं..हम उसको घर में देखते हैं..वह घबराया हुआ है..उसने धबरा कर रोशनी की एक खिड़की खोली और बादल की एक खिड़की भेड़ दी और वह अंधेरे की सीढियां उतर गया..यानी वह एक दो मंजिला मकान में है.यह मकान यह भी बताता है कि सूरज किस वर्ग का है..वह निचले वर्ग का नहीं है.क्यों कि ऐसा होता तो वह दो मंजिले मकान में नही रहता..यह सूरज वही है धूप का टुकडा जो हमारे सामने नही आया था..वह अंधेरों की सीढियाँ उतर गया..आसमान के भवों परजाने क्यूँ पसीना आ गयासितारों के बटक खोल करउसने चाँद का कुरता उतार दिया

रात हो गई है....आसमान ने तारों का बटन खोल कर चाँद का कुरता उतार दिया..यहाँ हम ख़ुद को फ़िर से एक घर से ख़ुद को जुडा हुआ सा महसूस करते हैं जैसे गर्मियीं की रात है....और उसके सोचे पात्र ने अपना कुरता उतार कर रख दिया है.गर्मी के मौसम की एक सहज सी बात है यह..... परन्तु यह सब तो वह उस तरफ़ जो हो रहा है वह सोच रहीं है..उनकी तरफ़ क्या वह महसूस करती है..मैं दिल के एक कोने में बैठी हूँतुम्हारी याद इस तरहआई ---जैसे गीली लकड़ी में सेगाढा कडुवा धुंआ उठे...दिल के कोने का मतलब यहाँ एक एक ऐसी उपमा से है जो हमें घर से बाहर नही निकलने देती है.और तेरी याद कैसे एक धुँए सी उठ कर आँख में लग रही है...यहाँ अमृता आँखों से पानी बहने की बात नही करती है..पर पढने वाला ख़ुद की आँखे गीली महसूस करता है..सूरज डूबा.....चूल्हा जला.गीली लकड़ी जलते जलते आँखे नम कर गई और उसी की याद से जुड़े ख्याल भी धुएँ जैसे सुलग कर जल गए खाना पक गया और सूखी, गीली सभी लकडियाँ बुझा दी गई, परन्तु यह उपमा यहीं रुक नही जाती..वर्ष कोयलों की तरह बिखरे हुएकुछ बुझ गए, कुछ बुझने से रह गएवक्त का हाथ जब समेटने लगापोरों पर छाले पड़ गएलकडियाँ तो बुझ गयीं पर उसको बुझाने की कोशिश में जो हाथ की उंगलियाँ जल गई है..और इसके बाद यह क्या हुआ..तेरे इश्क के हाथ से छुट गईऔर ज़िन्दगी की हंडिया टूट गईइतिहास का मेहमानचौके से भूखा उठ गया....खाना पकाने वाली सब कुछ झेल गई परन्तु जब इश्क के हाथ से ज़िन्दगी की हांडी उतरते, उतारते छूट कर गिरी और टूट गई जिस से इतिहास का मेहमान भूखा उठ गया तो वह बिलख उठी..इस पूरी कविता में न कहीं डोर टूटती है न कहीं उलझती है.और जिस तरह अपने ही आस पास की दुनिया से जुड़ जाती है तो यह अपनी ही लगती है...और हम सहज जी अमृता से जुड़ जाते हैं..उस प्यार को उस रूह के एहसास को ख़ुद में महसूस करने लगते हैं.

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