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प्रेत संतति

. ?प्रेत संतति ?
ये वाकया आज से 5-6 दशक पुराना है।
घने और काले बादलों ने गाँव को अपने आगोश में ले लिया था। 
शाम के समय ही ऎसा प्रतीत हो रहा था कि मानो रात के काले शाये ने दस्तक दे दी हो। 
बरसात भी प्रारंभ हो चुकी थी। 
कड़कती हुई बिजली के प्रकाश में गाँव के बाहर एक टूटी हुई झोपड़ी कभी कभी दृष्टि गोचर हो रही थी। 
झोपड़ी में एक कोने में एक बुढ़िया अपनी जर्जर हो चुकी चारपाई पर अपने पेरों को हाथों में जकड़े हुई छत से आ रहे टपके खुद को भीगने से बचा रही थी। 
वो बरसात के थमने का इंतजार कर रही थी। 
दरअसल वो बुढ़िया उस गाँव में दाई (ऎसी औरत जो तत्कालीन समय में आधुनिक युग जैसी चिकित्सक सुविधाओं के अभाव में गर्भवती महिलाओं को चिकित्सीय सुविधा देती थी) का काम करके खुद का गुजारा करती थी। 
वो 75-80 उम्र की रही होगी ये उसकी कपकपाते हुए शरीर से जाहिर होता है। 
उसके पास ही एक लालटेन की रोशनी 
उसके घर का टूटा हुआ दरवाजा दिख रहा था। 
बिजली की चमक और गड़ गङाहट माहौल को असामान्य बना रहे थे।
इस तूफानी रात में केवल वही बुढ़िया जाग रही थी वो भी अपने घर की जर्जर हालत की वजह से। 
कुछ क्षण बाद बारिश थम चुकी थी तब बुढ़िया ने राहत की साँस ली और वह लाठी के सहारे लालटेन की ओर बड़ी क्यों कि वह सोने से पहले लालटेन को बंद करना चाहती थी। 
 बुढ़िया लालटेन के पास पहुंची ही थी। कि 
किसी ने उसके दरवाजे को खटखटाया बुढ़िया के पाँव वही ठिठक गए और सांसे भी कुछ क्षण के लिए थम सी गई। 
हालांकि ऎसा वाकया उसके साथ सामान्यत: वर्ष में कई बार होता था क्योंकि उसकी कभी भी जरूरत पड़ जाती थी। ग्रामीणों को परंतु आज न जाने क्यूँ उस बुढ़िया के शरीर में सिहरन दौड़ गई थी। 
इसको मौसम और माहौल को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं। 
कुछ क्षण के लिए सब शांत था केवल टप - टप एवं झींगुरों की आवाज़ के अलावा। 
बुढ़िया ने एक लंबी ठंडी साँस ली और हल्की सी आवाज दी। 
"कौन है?"
"अम्मा हम हैं, रामकिशन की घरवाली।" - बाहर से आवाज आई जो किसी परिचित औरत की आवाज थी। 
बुढ़िया ने कपकपाते हुए एक हाथ में लालटेन लेकर दरवाजा खोल दिया। 
चरचराहट की आवाज के साथ दरवाजे के खुलने पर बुढ़िया को सामने लालटेन की हल्की रोशनी में एक औरत दिखी लेकिन वो साफ नजर नहीं आ रही थी। 
बुड़िया ने लालटेन को और ऊपर लगभग उस औरत के मुंह के सामने लाकर उसे देखने की कोशिश की लेकिन फिर भी वह उसके चेहरे को देखने में असफल रही क्यों कि उस औरत ने अपने चेहरे को नाक तक अपनी साड़ी से ढक रखा था। 
उसके आधे खुले हुए चेहरे पर एक अजीब सी आलौकिक चमक थी और उसके होंठों पर भी मुस्कान भी अजीब सी थी। 
बुड़िया की आंखे भी उसके प्रभाव से चमक उठी। 
जैसे मानो वो बूढ़ी औरत कुछ क्षण के लिए सब भय भूलने के साथ खुद को भी भूल गई हो। 
जैसे कि उस औरत ने उस पर कोई मोहनी कर दी हो। 
"बोलो बहू! क्या हुआ है?, इतनी रात को सब ठीक है न?" बुड़िया ने उत्सुकता बस पूछा। 
"अम्मा! मेरी जेठानी के बच्चा नहीं हो रहा है, शायद बच्चा उल्टा हो गया है। उनके दर्द भी असहनीय हो रहा है। आप जल्दी चलिए वो बहुत घबरा रहीं हैं।" - उस औरत ने घबराते हुए कहा। 
"लेकिन, बहू इतनी रात को और ऎसे मौसम में, मैं बूढ़ी कैसे जाऊँगी आँखो से भी कम दिखता है, रास्ता में भी पानी भर गया है। "-बुड़िया ने अपनी असमर्थता को प्रकट करते हुए कहा। 
" चलिए, न! मैं हूँ न। आप मेरे पीछे पीछे चली आना। आप ही उनकी जान बचा सकतीं हैं नहीं तो वो मर जाएँगी। "-उस औरत की बातों में बिनम्रता थी। 
जिसके परिणामस्वरूप उस बुड़िया का हृदय पिघल गया और वह उसके साथ चल पड़ी। 
वो इतनी जल्दी में थी कि वह दरवाजा बंद करना भी भूल गई थी। 
बाहर बहुत अंधेरा था क्योंकि आसमान में बादल अभी भी थे। 
हवा का बहाव भी काफी तेज़ था जो बुड़िया के शरीर में स्पर्श करके हल्की सी सर्दी का एहसास करा रहा था, जिससे उसके रोंगटे खड़े हो गए थे। 
लालटेन की झपझपाती रोशनी में आगे चल रही औरत की धुंधली सी परछाइ दिख रही थी, जिसका अनुसरण करती हुई बुड़िया आगे बढ़ती जा रही थी उसके पायल के घुंघरूओं की आवाज के साथ बरसाती कीड़े माकोड़ो और कुत्तों के रोने की आवाज सुनाई दे रही थी। 
कुछ क्षण बाद चलने के बाद... 
वो दोनों पास के ही झाड़ियों और छोटे बड़े पेड़ों से घिरे एक खण्डहर में जा पहुंची। 
प्रसूता के प्रसव पीड़ा के कारण उसकी चीखने की आवाजें बुढ़िया के कानों में पड़ने लगीं थीं। 
ये जाहिर था, लेकिन उसकी दर्द से भरी आवाजें आसपास के वातावरण को खौफज़दा बना रहीं थीं। 
बुड़िया की चाल में परिवर्तन होता है, वह अचानक धीरे धीरे चलने लगी, आश्चर्य इस बात का है उस औरत ने रास्ते में बुड़िया से कोई बात नहीं की। 
अन्ततः.... 
बुड़िया अपनी लालटेन को आगे की ओर बड़ाते हुए उस वीरान खंडहर में दाखिल हो गई। 
जो औरत उसके साथ थी, वो भी प्रसूता के पास खड़ी उस जैसी औरतों के पास जा खड़ी हुई। 
सबके चेहरे पर ढके हुए थे और सबके चेहरे पर एक अजीब सी शांति थी। 
बुड़िया ने सामने देखा कि एक चारपाई पर एक औरत पड़ी है जो प्रसूता थी उसको 4और‍तों ने घेर रखा था। 
वह प्रसूता प्रसव पीड़ा से चीखे जा रही थी। 
वहां पर एक मसाल जल रही थी। 
चारों तरफ़ घास और सूखे पत्ते बिखरे हुए थे। 
बुड़िया को अजीब सा लगा, लेकिन प्रसूता की पीड़ा देख कर उस से रहा न गया और तुरंत वह उसके पास जा पहुंची। 
सभी औरतें एक तरफ़ हो गई। 
उसने देखा कि उस प्रसूता औरत की हालत पीड़ा से वास्तव में नाजुक हो गई थी। 
बुड़िया ने उसके सर पर हाथ फेरा और उसे ठीक होने का आश्वासन दिया। 
बुड़िया ने उपचार चालू कर दिया। 
आश्चर्य की बात यह थी कि बुड़िया पास खड़ी औरतों से जो भी मांगती वो उसे तुरंत देती मगर देखने मे कोई औरत अपनी जगह से नहीं हिलती थी और न ही कोई चीज़ उस जगह पर नहीं दिखी थी। केवल घास और सूखे पत्तों के अलावा। 
कुछ समय बाद... 
वह खंडहर बच्चे की किलकारियों से गूँज उठा। 
सभी के चेहरे खुशी से खिल उठे। 
बुड़िया भी खुश थी। 
जैसे ही बुड़िया बच्चे को उनको सौंफ कर अपने घर को चल दी तो, एक औरत बोली :-"अम्मा, आपने जो किया उसका उपहार स्वरूप ये अनाज और कुछ पेसे ले लीजिए। हम सब आपके इस उपकार के हमेशा एहसान मंद रहेंगे।" 
औरत के हाथों में एकबड़े से थाल में गेहूँ का भरे हुए थे। 
"नहीं, बेटा! हम तो दूसरों की खुशी में खुद को शामिल करने को ही उपहार समझते हैं, अगर तुम इतने प्यार से बोल रही हो तो मुझे तुम्हारा उपहार मंजूर है।" बुड़िया की बातों में ममता झलक उठी। 
बुड़िया ने अनाज बांधा और निकल पड़ी अपने घर की ओर। 
तभी..... 
10-15 कदम चलने के बाद बुड़िया ने अजीब सी शान्ति देखी तो उसने पीछे मुड़कर देखा तो वह भय से कांप उठी, क्योंकि जहां कुछ क्षण पहले प्रकाश और बच्चे की किलकारियाँ थी वहां कुछ भी नहीं था। 
वह जल्दी से अपने घर पहुंची और जल्दी से दरवाजा बंद कर लिया। 
उसे रात भर करवतें बदलकर काटी। 
अगली सुबह...
वह बुड़िया उसी जगह पर जाने लगी तो कुछ लोगों ने उसे जाते हुए देखा तो कारण पूछा तो बुड़िया ने रात वाली सारी कहानी लोगों को बता दी। 
पहले तो किसी को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ।
फिर सब उस बुड़िया को उस खंडहर में ले गए तो बुड़िया को बहुत ही अचंभा हुआ। 
बुड़िया पागलों की तरह सबको रात वाला वाकया सुना रही थी सबको लगा कि बुड़िया अपना मानसिक संतुलन खो बैठी है। 
बुड़िया अपनी बात को सिद्ध करने के लिए सबको अपने घर पर ले गई और उसने सबको रात में जो अनाज लायी उसे खोलकार दिखाने लगी तो सबके मुंह आश्चर्य से खुले रह गये। 
क्यों कि उसमें अनाज की जगह इंसानी हड्डियां थीं और नोट की जगह सूखे पत्ते थे। 
बुड़िया को इस अप्रत्याशित घटना से गहरा सदमा पहुंचा वो कई महीनों तक बीमार रही। 
दरअसल वहां किसी प्रसूता औरत की आत्मा रहती थी। जिसकी मौत उसके पेट में बच्चे की मौत होने पर चीख चीखकर हो गई थी। 
इसलिए कई लोगों को आज भी उस खंडहर में किसी औरत के चीखने और बच्चे के रोने की आवाज सुनाई देती है। 
ये घटना सत्य पर आधारित है ये गाँव आज भी मध्य प्रदेश के भिंड जिले में है जो कई भुतिया रहष्यों को अपने में समेटे हुए हैं। 
          ☠️समाप्त ☠️
नोट :-ये कहानी प्रत्यक्षदर्शीयों के वक्तव्य पर आधारित है, लेकिन यह घटना के सत्य होने का दावा नहीं करती है। और किसी भी तरह से अंधविश्वास को बढ़ावा नहीं देती है। 
    
       ~ ?दो शब्द? ~
प्रिय पाठक गण आपके अपार स्नेह ने मुझे इस कहानी को लिखने के लिए प्रेरित किया है। आपसे अनुरोध है कि कोई भी टिप्पणी करने से पहले रचनाकार के परिश्रम का आकलन जरूर करें। 
कृपया नकारात्मक टिप्पणी न करें। 
आपके सुझाव मेरे पर्सनल मैसेज़ इनबॉक्स, फेसबुक या वाट्सएप्प पर सादर आमंत्रित हैं।
कहानी कैसी लगी बताना मत भूलिएगा। ???
? जै श्री राधे ? 
आपका ✍️सोनू समाधिया 'रसिक' 


 

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