आधी नज्म का पूरा गीत
रंजू भाटिया
episode 17
हर यात्रा "मैं से शुरू होती है और मैं तक जाती है "..
अमृता का कहना था कि दुनिया की कोई भी किताब हो हम उसके चिंतन का दो बूंद पानी जरुर उस से ले लेते हैं..और फ़िर उसी से अपना मन मस्तक भरते चले जाते हैं.और फ़िर जब हम उस में चाँद की परछाई देखते हैं तो हमें उस पानी से मोह हो जाता है...हम जो कुछ भी किताबों से लेते हैं वह अपना अनुभव नही होता वह सिर्फ़ सहेज लिया जाता है....अपना अनुभव तो ख़ुद पाने से मिलता है...इस में भी एक इबारत वह होती है जो सिर्फ़ बाहरी दुनिया की सच्चाई लिखती है, पर एक इबारत वह होती है जो अपने अंतर्मन की होती है और वह सिर्फ़ आत्मा के कागज पर लिखी जाती है....इस जेहनी और रूहानी लिखने का सिलसिला बहुत लंबा होता है जो परिवार चेतना के विकास की जमीन पर बनता है. इसी जमीन पर संस्कारों के पेड़ पनपते हैं और इसी में अंतर्मन की एक झील बहती रहती है..पर इस के तर्क दिल के गहरे में कहीं छिपे होते हैं.जो कभी किसी की पकड़ में आते हैं..कभी नही आते. तब उँगलियों के पोरों से यह गांठे खोलनी होती है और यही सच्चे इश्क का तकाजा है. और यही इस चेतन यात्रा का इश्क कहलाता है. अमृता की एक नज्म है जिस में इस सारे अमल को उन्होंने सुइयां चुनना कहा था. जिसके लिए प्रतीक उन्होंने एक बहुत पुरानी कहानी से लिए थे....इस कहानी में एक औरत सुबह की बेला में अभी बैठी ही थी कि उसका मर्द बहुत बुरी तरह से जख्मी हालात में घर आया.किसी दुश्मन ने उसके सारे शरीर में सुइयां पीरों दी थी.वह औरत अपने मर्द के रोम रोम में सुइयां देख कर तड़प गई...तभी उसको एक आकाश वाणी सुनाई दी..अगर वह सारा दिन भूखी प्यासी रह कर अपने मर्द के बदन से सुइयां चुनती रहे तो शाम के वक्त चाँद निकलते ही उसका मर्द ठीक स्वस्थ हो जायेगा....अब यह कहानी कब घटित हुई...किन अर्थों में घटी.इसका कुछ पता नही है..पर वह एक सुहागन औरत के लिए एक प्रतीक बन गई..करवा चौथ का व्रत रखने का..जिस में वह सूरज निकलने से पहले कुछ खा पी कर सारा दिन भूखी प्यासी रहती है उस दिन उसके लिए घर का सारा काम वर्जित होता है..न वह चरखा कातती है..न चक्की को हाथ लगाती है.और गहरी संध्या होने पर.चाँद को अर्ध्य दे कर पानी पीती है.और कुछ खाती है...और यह मान लेती है कि इस तरह से उसने अपने मर्द के सारे दुःख उसके बदन से चुन लिये हैं.....अमृता ने इस कहानी को चेतन के तौर पर इस्तेमाल किया और एक नज्म लिखी मैं पल भर भी नही सोयी, घड़ी भर भी नही सोयीऔर रात मेरी आँख से गुजरती रहीमेरे इश्क के बदन में, जाने कितनी सुइयां उतर गई हैं..कहीं उनका पार नही पड़ताआज धरती की छाया आई थीकुछ मुहं जुठाने को लायी थीऔर व्रत के रहस्य कहती रहीमैं कहाँ अर्ध्य दूँ ! कहीं कोई चाँद नही दिखतासोचती हूँ --यह जो सुइयां निकाल दी हैशायद यही मेरी उम्र भर की कमाई है.…
अमृता की इस नज्म में इस कहानी की सुइयां --हर तरह के समाज.महजब और सियासत की और से इंसान को दी हुई फितरी, जेहनी और गुलामी का प्रतीक हैं..जिनसे उसने अपने आप को आजाद करना है...इस पूरी कहानी में दो किरदार दीखते हैं एक मर्द और औरत..पर ध्यान से देखे और इस चिंतन की गहराई में उतरे तो एक ही किरदार है वह है इंसान..यह दो पहलू हर इंसान की काया में होते हैं..मर्द की काया में मर्द उसका चेतन मन होता है और औरत अचेतन मन..औरत की काया में औरत उसका चेतन मन और मर्द उसका अचेतन मन होता है..सुइयां निकालना यहाँ चेतन यत्न है...सिर्फ़ परछाइयों को पकड़ने से जीया नही जा सकता है..अपने भीतर एक आग, एक प्यास निरंतर जलाए रखना जरुरी है....तभी आगे की दास्तान बनती है....अमृता प्रीतम से एक साक्षात्कार में पढ़ा कि ----उनसे किसी ने पूछा उनकी नज्म"मेरा पता " के बारे में.... जब उन्होंने मेरा मेरा पता जैसी कविता लिखी तो उनके मन की अवस्था कितनी विशाल रही होगी..आदम को या उसकी संभावना को खोज ले तो यही पूर्ण मैं को खोजने वाली संभावना हो जाती है....यथा ब्रह्मांडे तथा पिंडे को समझने वाला मनुष्य कहाँ खो गया है, सारा सम्बन्ध उस से से है...आज मैंने अपने घर का पता मिटाया है..और हर गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है....इस में हर यात्रा "मैं से शुरू होती है और मैं तक जाती है "..तंत्र के अनुसार यह यात्रा दोहरी होती है, पहली" अहम से अहंकार तक 'और दूसरी "अहंकार से अहम तक "....आपके अहम की और जाने वाली अवस्था के रास्ते में आज कोई सज्जाद नही, कोई साहिर नही कोई इमरोज़ नही…
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